दूसरी ओर आध्यात्मिक जगत में इस साधना का जो महत्व है, उसकी तो कभी चर्चा ही नहीं की गयी। वायुगमन साधना का जहां एक और अर्थ है कि व्यक्ति अपने शरीर को वायु के समान हल्का बनाकर विचरण कर सके, वहीं यह शून्य आसन का भी रहस्य है। वस्तुतः उच्चकोटि के योगी अपनी साधना हेतु जो आसन लगाते हैं वह धरती पर न होकर धरती से आठ दस फीट ऊपर शून्य में स्थित होता है क्योंकि उच्चकोटि की साधनायें शुद्ध आसन के बिना सफल हो ही नहीं सकती जबकि यह धरा मल-मूत्र और निरन्तर रक्तपात से इस प्रकार दूषित हो गयी है जहां कोई भी स्थान पवित्र नहीं रह गया है। ऐसी दशा में साधक के समक्ष दो ही मार्ग बचते हैं कि या तो वह सिद्धाश्रम की पवित्र भूमि पर साधनायें करे अथवा शून्य में आसन सिद्ध कर तीव्रता से आगे बढ़ सके।
यह विद्या केवल योगियों अथवा विरक्त साधकों की ही धरोहर है। कोई भी साधक जो तीव्रता से साधना में आगे बढ़ने का इच्छुक हो, शून्य आसन सिद्ध कर, उच्चकोटि की साधनायें सम्पन्न करते हुये सशरीर सिद्धाश्रम में प्रवेश करने की भावना रखता हो वह इसे सिद्ध कर सकता है। भारतीय साधना पद्धति में कोई भी विद्या एक ही ढंग से सिद्ध की ही नहीं जाती है। जिसके संस्कार जिस साधना पद्धति से मेल खा जायें, वह उसे ही ग्रहण कर आगे बढ़ सकता है।
वायुगमन की इन्हीं पद्धतियों में एक पद्धति जो युगों से परीक्षित रही है, वह है महाविद्या साधना पद्धति पर आधारित भुवनेश्वरी साधना पद्धति। महाविद्या साधनायें केवल मां भगवती जगदम्बा के विभिन्न शक्ति स्वरूपों की ही साधनायें नहीं हैं, वरन् इनमें अलौकिक सिद्धियों के भी रहस्य छिपे हुये हैं और जब साधक प्रामाणिक पद्धति से साधनारत होता है तो उसे सफलता भी प्राप्त होती ही है। अंतर केवल यह होता है कि किसी को सफलता शीघ्र मिलती है और किसी को कुछ विलम्ब से, जिसके मूल में साधक का विश्वास, धैर्य, पूर्व जन्मकृत दोष आदि कारण निहित होते हैं।
महाविद्या साधनाओं के अन्तर्गत किस प्रकार से गोपनीय रहस्य छुपे हैं इसका ज्ञान मुझे तब हुआ जब मेरी भेंट अभी कुछ दिन पूर्व स्वामी प्रबोधानन्द जी से हुयी। योगीराज अब तक इस भौतिक देह से अस्सी वर्ष सम्पूर्ण कर चुके हैं, यद्यपि योगी के वास्तविक आयु का किसे ज्ञान हो सका है? जिस प्रकार मैंने उनको तीस वर्ष पूर्व मनाली के समीप व्यास आश्रम के पास निश्चिंत, तृप्त और आह्लादित अनुभव किया था, वे उसी अनुसार ही मिले। उसी प्रकार उनके तन पर मात्र एक धोती पड़ी थी जिसे वे ओढ़े भी थे और पहने भी थे तथा निश्छल भाव से उसी प्रकार कौतुक से भरे थे, जो उनकी चिरपरिचित शैली हुआ करती थी।
जहां उच्चकोटि के साधक अनुभूतियों की चर्चा करने पर बात को दूसरा मोड़ दे देते है अथवा मौन हो जाते है वही प्रबोधानन्द जी सदैव से अपनी साधनाओं के मध्य हुयी अनुभूतियों को खुलकर ही बताते रहे हैं, वस्तुतः उन्हें लगता ही नहीं था कि वे साधनात्मक जीवन की चर्चा कर रहे है अपितु वे तो सरल भाव से मां लीला विहारिणी के भाव राज्य में जो कुछ भी सूक्ष्म दृष्टि से घटित होता देखते थे उसे कौतूहलवश बताये बिना रह ही नहीं पाते थे, यद्यपि इसके लिये उन्हें कई बार पूज्य गुरुदेव की कड़ी डांट पड़ी लेकिन वे अपने को बदल नहीं पाये।
पिछले दिनों जब मैं पुनः मनाली की ओर गया तो ठीक उसी स्थान पर उनसे अचानक भेंट हो गयी और तीस वर्षों का अंतराल तीस सेकेण्ड में समाप्त हो गया। मैंने उन्हें अपनी स्थितियों के विषय में बताया तो उन्होंने सद्गुरुदेव की प्रिय साधना भुवनेश्वरी महाविद्या साधना को पूर्णता से सम्पन्न करने की आज्ञा दी। इस साधना के प्रारम्भ से ही उनकी भूख प्यास आदि शनैः शनैः समाप्त होती गयी और वे धीमे-धीमे एक अनिर्वचनीय सुख में डूबे रहने लग गये। मल-मूत्र त्याग की आवश्यकता न होने के कारण उनके आनन्द में कोई विघ्न नहीं पड़ता था और इसी अवस्था के दौरान जब एक दिन उनकी आंख खुली तो उन्होंने पाया कि वे जमीन से तीन चार फुट की ऊंचाई पर पद्मासन में ही स्थित हैं। वे अपने को एकाएक ऐसी दशा में देखकर घबरा गये किन्तु कुछ समय बाद स्थिति सामान्य हो गयी। बाद में तो यह दशा जब-तब उत्पन्न होने लग गयी और वे भी इसके अभ्यस्त हो गये। साथ ही उन्होंने अनुभव भी किया कि इस दशा में उनके चित्त में एक अतिरिक्त निर्मलता, शीतलता और शांति आ जाती है।
इसके बाद तो उन्होंने अन्य महाविद्या साधनाये भी की उनके अलौकिक रहस्य ढूंढे और विलक्षण अनुभूतियां प्राप्त की किन्तु निष्कर्ष रूप में यही कह सके कि भुवनेश्वरी महाविद्या से श्रेष्ठ कोई भी अन्य महाविद्या नहीं है क्योंकि भुवनेश्वरी साक्षात् प्रकृति स्वरूपा एवं ब्रह्म स्वरूपा महाविद्या जो है। यही वे महाविद्या है जो योगियों व गृहस्थों के मध्य समान रूप से लोकप्रिय व हितकारी है। गृहस्थ सुख की पूर्णता के लिये तो समस्त महाविद्याओं में भुवनेश्वरी श्रेष्ठ महाविद्या है।
भुवनेश्वरी साधना के विविध पक्षों के साथ इस बार जो साधना प्रस्तुत है, वह पूर्ण रूप से शून्य साधना सिद्धि पर आधारित है जिसके फलस्वरूप साधक वायुगमन की क्रिया में तो निष्णात होता ही है। साथ ही साथ शून्य साधना के अनेक अन्य लाभ प्राप्त करने का अधिकारी भी बन जाता है।
29 जुलाई को रात्रि दस बजे के बाद स्नानादि से निवृत्त होकर वस्त्र, आसन, सामने बिछाया जाने वाला कपड़ा श्वेत हो तथा स्वच्छ मनोभाव के साथ साधना को प्रारम्भ करें। सर्वप्रथम आचमनी से तीन बार जल ले कर पी लें और अपने आसन का पुष्प, अक्षत, कुंकुम से पूजन करें, अपने समक्ष प्राण-प्रतिष्ठित शून्य सिद्धि जीवट स्थापित कर उसका सामान्य पूजन कर साथ ही पारद गुटिका का इस साधना में सर्वोपरि महत्व है क्योंकि पारद के माध्यम से व्यक्ति अपने शरीर में से भूमितत्व का लोप एवं पुनर्स्थापन कर सकता है। इन सभी सामग्रियों को पात्र में रखें।
स्तुति एवं ध्यान करें-
इसके बाद भुवनेश्वरी माला से मूल मंत्र की पांच
माला मंत्र जप करें।
मंत्र-जप के उपरांत दूसरे दिन पारद गुटिका को छोड़ शेष सामग्री विसर्जित कर दें, जबकि पारद गुटिका को अपने शरीर पर धारण कर लें। आगे के समय में दिन में जब भी अवसर मिले उपरोक्त मंत्र को तीस मिनट तक उच्चारण करें।
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