ब्राउनिंग ने कहा था- श्रीराम चरित मानस में सांस्कृतिक पुनर्जागरण का स्वर सबसे अधिक पुष्ट है, दर्शन और अध्यात्म के पवित्र आलोक में भक्ति काल का साहित्य महान कलाधर तुलसी का स्पर्श पाकर कुन्दन की तरह चमक उठा है, लोक-जीवन के सांस्कृतिक जागरण, हृदय के परिष्कार एवं वैयक्तिक कुण्ठा के परिशमन द्वारा साहित्य को सामाजिकता की पृष्ठभूमि पर लाने का जो कार्य हुआ है, उसका श्रेय तुलसी को सबसे अधिक जाता है।
जहाँ सूर ने सौन्दर्य, कोमलता एवं माधुर्य को, जायसी ने प्रेम और रहस्य को, कबीर ने प्रेम, रहस्य और ज्ञान को, मीरा ने मृदु-माधुर्य भाव की भक्तिपूर्ण तन्मयता को, विद्यापति ने श्रृंगार भाव को अपने साहित्य में स्थान दिया, वहीं तुलसी ने एक ही साथ मानस में शील, सौन्दर्य, प्रेम और ज्ञान का समन्वय उपस्थित किया।
तुलसी जीवन की समग्रता के गायक थे। इनका सम्पूर्ण जीवन, इनका सम्पूर्ण साहित्य एवं इनकी साहित्यिक प्रचेष्टा समन्वय की विराट् प्रक्रिया का प्रतीक है और संस्कृति के सौरभ से आप्लावित कवि किसी न कसी रूप में समन्वय के प्रगतिशील मन्त्र का सिद्ध महर्षि है। इनके काव्य की कनक भूमि में सामाजिक साधना है। समन्वय की विराट चेष्टा और उसका बृहत्तम एवं महत्तम उद्देश्य है- लोक-कल्याण का स्वर्णिम आलोक।
पाश्चात्य रचनाकारों जैसे- टॉलस्टाय, गोर्की, विक्टर, ह्यूगो, कार्लमार्क्स, हक्सले इत्यादि की रचनायें जहां आधिभौतिक प्रयासों की इति हैं, वहीं बर्ट्रेण्ड रसेल, लॉक, रूसो, वर्जीन बैले, दान्ते इत्यादि के दार्शनिक सिद्धान्त अपनी लघु तरणी रूपी लेखन क्षमता के साथ ज्ञान के महासागर में तिरोहित हो गये, किंतु महाकवि तुलसी ने स्वान्तः सुखाय की परिधि में सर्वान्तः सुखाय के मंगल विश्वास को समेटते हुए अहम् से वयम् का, आत्म पक्ष के साथ लोक पक्ष का, भक्ति-कर्म और ज्ञान का, सिद्धान्त के साथ व्यवहार का, निर्गुण और सगुण का, भाषा और संस्कृति का, कथा और तत्त्व ज्ञान का तथा सौन्दर्य और शील का समन्वय किया। इसी विशिष्ट गुण से वे जन-जन के लोक नायक बन सके। तुलसी विश्व-कल्याण की पवित्र भावना और वैयक्तिक आस्था के बल पर ही अपनी सम्पूर्ण साहित्यिक प्रचेष्टाओं द्वारा समन्वय की इस विराट् भाव-भूमि पर खड़े हो सके हैं।
यदि कबीर का काव्य लोक-समुदाय की बुद्धि को झकझोर सका, जायसी के काव्य में लोक हृदय को छूने की क्षमता आ सकी तो महाकवि तुलसी आदर्श, कर्तव्य, नीति और मर्यादा के पवित्र विश्वासों का मन्त्र मुखरित करते रहें। यदि सूरदास ने संवेदनात्मक सहृदयता और संगीत की मुरली से निराशाच्छादित कुहरे को स्वरमय किया, मीरा आत्मतल्लीनता, संगीत, प्रेमोन्माद की मधुर रागिनी ले गिरिधर गोपाल को रिझाने हेतु पग में घुँघरू बाँध नाचती रही, रसखान अपनी अभिलाषा का मृदु-मधुर शब्दावली में शंख फूँकते रहे तो लोकनायक तुलसी प्रचण्ड सूर्य की रश्मियों की तरह कर्म और साधना का आलोक विकीर्ण करते रहे।
भाषा की दृष्टि से भी तुलसी का गुणानुवाद करना उचित ही है। सूरदास ने अपनी मृदु सुहृदयता और संवेदनिक संगीत की अभिव्यक्ति के लिये व्रज भाषा के हृदय देश में उतर गये। कबीर ने पुरूष व्यंग्य और दार्शनिक अभिव्यक्ति के लिये संतों की सधुक्कड़ी भाषा को अपनाया, तो तुलसी ने समन्वय की भाषा अपनायी। अवधी में एक ओर संयमित शील और सौन्दर्य की झाँकी है, मृदुता और कोमलतम भावों की स्निग्ध ज्योत्स्ना है, तो दूसरी ओर युग पुरूष की कठोर एवं सशक्त अभिव्यक्ति की मर्यादा और आदर्श का सक्रिय संदेश भी।
विद्वानों ने भाषा को भावों की अनुगामिनी बतलाया है। कवि जॉन मिल्टन ने कहा है कि Poerty should be simple sensous and passionate तो तुलसी के काव्य की भाषा में तत्सम शब्दों की बहुलता होने पर भी सरलता के कलेवर में इतनी मसृणता सम्पुटित है कि वह सम्पूर्ण भारत के जन-जन का कण्ठहार है। किन्हीं भी लघु-गुरु, जटिल-साधारण परिस्थितियों की पगडण्डी में हम जन-जन से मानस के दोहों को कहावत के रूप में प्रयुक्त होते देखते हैं। भाव के अनुरूप ही भाषा का सौन्दर्य लालन जोगु लखन लघु लोने में स्पष्ट ही द्रष्टव्य है।
श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यंजना में भी तुलसी का काव्य मर्यादित श्रृंगारी भावनाओं की कुशल प्रस्तुति है। मर्यादित, संयमित शील की साधना-रेखाओं से चित्रित मूर्ति मान् भावों की अभिव्यक्ति केवल तुलसी ही कर पाते हैं। ऐसा केवल संयोग भाव में ही नहीं, वियोग भाव में भी है। वन मार्ग में ग्राम वधूटियाँ श्रीराम की ओर लक्ष्य कर विदेह नन्दिसी से पूछती हैं कि ये तुम्हारी कौन हैं? तो सीता की भाषा में शालीनता की पराकाष्ठा है-
बिलोकति धरनी कितनी स्वाभाविक मुद्रा है, दुहुँ सकोच के द्वारा कवि ने सीता के हृदय की कोमलता और अभिमान शून्यता को व्यंजित किया है। सीता जी में श्रृंगारी चेष्टाओं का विधान भी अति रमणीय है-
विप्रलम्भ श्रृंगार में श्रीराम का सीता के वियोग में वन-वन सीते-सीते की रट के साथ भटकना और वन-विटपों से जिज्ञासा-भाव का प्राकट्य बडा ही मार्मिक है। प्रेम की यह उदात्तता अन्यत्र सर्वथा दुर्लभ है।
वात्सल्य-भाव के सम्राट् सूर दास वात्सल्य को व्यापकता से चित्रित करते हैं, तथापि तुलसी का
बाल-मनोविज्ञान का यह दृष्टान्त अत्यन्त आह्लादक तथा उत्कृष्ट है। वस्तुतः मानस में सभी रसों का समन्वय है। करूण, वीर, बीभत्स, शान्त, श्रृंगार इत्यादि सभी इसमें गुम्फित हैं। यहाँ सीता जगज्जननी हैं। इनमें शील की साधना है, महत्त्व का प्रतिपादन है, सौन्दर्य का प्रबुद्ध राग है, मर्यादा का मणिमय स्पर्श है, कोमलता की स्निग्ध वन्दना है और भक्ति की पल्लवित उपासना है। वे पवित्रता का आगार प्रतिष्ठित है, दया, क्षमता और उदारता का मणिमय संयोग है और साधना तथा दास्यभाव की सविनय प्रतिष्ठा है।
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