इस बार चन्द्र ग्रहण की विशेषता इसलिये भी अत्यधिक है, क्योंकि चन्द्र ग्रहण और शिव-शक्ति युक्त श्रावण पूर्णिमा का अद्भुत योग बन रहा है। श्रावण पूर्णिमा का दिवस अपने आप में पूर्ण चैतन्य और प्रभावशाली तो है ही, साथ ही ग्रहण होने से इसका प्रभाव सहस्त्र गुणा अधिक हो गया है। ग्रहण की महत्ता इसलिये सर्वाधिक है, क्योंकि उस समय इस प्रकार का गुरुत्वाकर्षण प्रभाव पैदा होता है, जो साधना से प्राप्त होने वाले फल को कई गुणा बढ़ा देता है।
ग्रहण काल के दौरान किये गये मंत्र जप सामान्य रूप से किये गये लाख जपों के बराबर होते हैं, उस दिन की गई एक आहुति भी हजार आहुतियों के समान फल देती है। चन्द्रमा अपनी शीतलता, कोमलता और सौन्दर्य के लिये प्रसिद्ध है, इसीलिये चन्द्रमा व्यक्ति को सौन्दर्य, समस्त भौतिक सुखों और गृहस्थ सुखों को देने वाला है, अतः चन्द्र ग्रहण के दिन का विशेष समय साधक के लिये महत्वपूर्ण समय होता है, क्योंकि उन क्षणों में साधना सम्पन्न करने पर साधक की अन्तः स्थिति विशेष तरंगों द्वारा ग्रहों से जुड़ जाती है, और जिस व्यक्ति का भी इन तरंगों से सामञ्जस्य हो जाता है, वह अपने जीवन में सफल हो जाता है।
बड़े-बड़े तांत्रिक व मांत्रिक भी ऐसे ही क्षणों की प्रतीक्षा में टक-टकी लगाये बैठे रहते हैं, क्योंकि उन्हें उसके द्विगुणित फल प्राप्ति का ज्ञान पहले से ही होता है। सामान्य गृहस्थ के जीवन में समस्यायें, कठिनाइयां व संघर्ष अधिक होती है, जिस कारणवश वह हर क्षण दुःखी व तनावग्रस्त ही दिखाई देता है, वे व्यक्ति इस क्षण का लाभ उठाकर अपने जीवन से उन समस्याओं और बाधाओं का निराकरण कर सकते हैं और इस दृष्टि से सामान्य गृहस्थ व्यक्तियों के लिये यह ग्रहण वरदान स्वरूप होता है।
परन्तु यह उनके लिये ही है, जो ऐसे समय का सही उपयोग करना जानते हैं, जो क्रियाशील हैं, जिनका चिंतन जीवन में कुछ भिन्न, श्रेष्ठ, उत्तम और एकदम से आगे बढ़कर प्रगति के अंतिम छोर तक पहुंचने का है, वही साधक, शिष्य ऐसे अवसर को अपने जीवन में पूर्णता से आत्मसात कर पाते हैं।
जो निठल्ले हैं, जो सिर्फ बातों के शेर हैं, जिनका आधा जीवन सिर्फ विचार करने में गुजर गया, वे तो ना पहले कुछ कर पाये हैं, ना उनके लिये आगे कोई ऐसी संभावना नजर आती है। इस हेतु तो दृढ़ संकल्प से सराबोर व्यक्ति की आवश्यकता होती है, जो अपने जीवन को नयी दिशा देने के लिये वास्तविक रूप से गंभीर हो। साथ ही उसे क्रियान्वित करने का प्रयास भी करता रहता हो, ऐसे लोग निश्चय ही ठोकर खाकर भी मंजिल तक अवश्य पहुंचते हैं।
मेरा उन सभी साधको से आग्रह है, जो जीवन को परिवर्तित कर लक्ष्मी से पूर्ण होना चाहते हैं, जिन्हें अपने जीवन में लक्ष्मी को आबद्ध करना है। वे इस चन्द्र ग्रहण काल व श्रावण पूर्णिमा की दिव्य तेजस्विता में विश्वामित्र प्रणीत अष्ट महालक्ष्मी साधना अनिवार्य रूप सम्पन्न करें।
चन्द्र ग्रहण व श्रावण पूर्णिमा की दिव्य तेजस्विता में विश्वामित्र ने इस साधना को जिस रूप से सम्पन्न किया था। उसी रूप में यह साधना आपके लिये प्रस्तुत है।
विश्वामित्र दक्षिण दिशा की ओर मुंह कर बैठ गये और नीचे पीला आसन बिछा दिया था, सामने लकड़ी के बाजोट पर पीला वस्त्र बिछाकर उस पर पीले चावल से 9 ढेरियां बनायी जो 9 निधियों का प्रतीक स्वरूप था। मध्य ढेरी पर एक ताम्रपात्र रख उसमें सहस्त्र ऐश्वर्य युक्त महालक्ष्मी यंत्र को स्थापित किया। सहस्त्र रूपा महालक्ष्मी का तात्पर्य है, धन-धान्य लक्ष्मी, पृथ्वी लक्ष्मी, कृषि लक्ष्मी, भवन लक्ष्मी, कीर्ति लक्ष्मी, आयु लक्ष्मी, यश लक्ष्मी, पुत्र लक्ष्मी, पौत्र लक्ष्मी और जितने भी प्रकार के भोग होते हैं, उन सभी भोगो से सम्बन्धित लक्ष्मी के संयुक्त रूप को सहस्त्र महालक्ष्मी कहा जाता है। लक्ष्मी बाजोट के दूसरी ओर नौ चावलों की ढेरियां जमीन पर बनायी और उन पर नौ दीपक लगाये, जिनमें तेल भरा हुआ था और दीपक की लौ साधक की अर्थात् विश्वामित्र की ओर थी।
फिर विश्वामित्र ने जल, केशर, अक्षत, पुष्प और प्रसाद से लक्ष्मी का पूजन किया और दाहिने हाथ में जल लेकर संकल्प लिया कि मैं विश्वामित्र, ब्रह्माण्ड से प्राप्त इस यंत्र तथा मंत्र के द्वारा लक्ष्मी को आहूत करता हूं और लक्ष्मी चाहे चाहे वह प्रसन्न हो या विवश मेरे इसी आश्रम में, इस घर में आना ही है और प्रसन्नता के साथ स्थापित होना है, अपने समस्त रूपों के साथ समस्त ऐश्वर्य के साथ मुझे पूर्ण सुख और सौभाग्य, धन-धान्य यश और प्रतिष्ठा सब कुछ प्रदान करना है और मैं इसी संकल्प के साथ नव दिवसीय नव सिद्धि प्राप्ति की साधना को सम्पन्न कर रहा हूं और ऐसा कह कर उन्होंने जल जमीन पर छोड़ दिया। इसके बाद उन्होंने उस मंत्र को प्राप्त किया जो ब्रह्माण्ड शक्ति आपूरित मंत्र था। इसका वर्णन विवरण विश्वामित्र सांगतेय हस्त लिखित ग्रंथ में मुझे तिब्बत में देखने को मिला। जो ब्रह्माण्ड से आपूरित मंत्र प्राप्त हुआ था, वह मंत्र था-
यह बीज युक्त मंत्र अपने आप में ही अत्यधिक तेजस्वी और दुर्लभ है। विश्वामित्र ने देखा कि मंत्र के प्रत्येक अक्षर में से विचित्र प्रकार की किरणें निकल रही हैं, जो इस बात की प्रतीक थी कि यह मंत्र ब्रह्माण्ड रश्मियों से आपूरित है।
फिर विश्वामित्र ने ऐश्वर्य माला से निष्ठ होकर मंत्र जप प्रारम्भ किया, वस्तुतः उसमें केवल नित्य 11 माला मंत्र जप करने का विधान है और यह नौ दिन तक की जाने वाली साधना है। उसी पुस्तक विश्वामित्र सांगतेय में यह भी व्याख्या लिखी है कि किसी विशिष्ट मुहुर्त में यह साधना मात्र 11 माला ही जप करने पर सिद्ध हो जायेगी।
विश्वामित्र ने 11 माला मंत्र जप कर अनुष्ठान को सम्पन्न किया। इस प्रकार जब आठ दिन पूरे हो गये तो विश्वामित्र ने देखा कि पूरा कमरा सुगन्ध से आपूरित हो उठा है और यह एक विचित्र अद्भुत और आनंददायक सुगन्ध थी। विश्वामित्र बराबर मंत्र जप करते रहे और अनुष्ठान के मध्य भाग में पहुंचे तो विश्वामित्र ने देखा कि अत्यंत तेजस्विता से युक्त षोडश वर्षीय अत्यधिक सौन्दर्यवती और रूप यौवन से युक्त युवती जिसका सारा शरीर दैदीप्यमान हो रहा था और जिसके शरीर से शीतल किरणें प्रवाहित हो रही थीं, जिसकी कमल सी आंखें आपने आप में सम्पूर्ण भाग्य ओर ऐश्वर्य देने में समर्थ थीं, जिसके गले में कमल के पुष्पों का हार विद्यमान था, वह अत्यंत मोहक और प्रसन्न मुद्रा में विश्वामित्र के सामने पद्मदल पर पद्मासन में बैठ गयी और एकटक दृष्टि से विश्वामित्र को अनुष्ठान करते देखती रही। न विश्वामित्र हिले और न बोले, उनके होंठ सतत मंत्र जप कर रहे थे, जब उन्होंने 11 माला पूरी की तब उन्होंने अपने आंखें खोलीं और देखा कि सामने सहस्त्र ऐश्वर्य के साथ, विविध सौन्दर्य के साथ भगवती महालक्ष्मी विद्यमान हैं।
साधक को चाहिये कि 07 अगस्त चन्द्र ग्रहण व श्रावण पूर्णिमा की तेजस्वी रश्मियों के दिव्य अवसर पर रात्रि में 10:22 से 12:29 के मध्य सम्पन्न करें।
साधक इस साधना को पूजन विधान अनुसार सम्पन्न करें और इस चैतन्य दिवस पर मात्र 11 माला मंत्र जप करना ही पूर्ण है। क्योंकि इस दिन किसी मंत्र जप का लाभ कोटि गुना अधिक प्राप्त होता है। साधना समाप्ति पर सभी सामग्री जल में विसर्जित कर दें।
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