वेद-पुराणों के अनुसार ऋषि कश्यप सप्त ऋषियों में प्रमुख हैं, जिन्होंने राजा दक्ष की तेरह कन्याओं से विवाह किया। मुख्यतः इन्हीं कन्याओं से सृष्टि का विकास हुआ और कश्यप सृष्टिकर्ता कहलाये। ऋषि कश्यप ही समस्त देवों, असुरो व सम्पूर्ण पशु साम्राज्य के रचनाकार हैं। एक दिन ऋषि कश्यप ने अपनी दो पत्नियों विनता और कदरू को कुछ वरदान देने का निर्णय लिया, वे उनके समक्ष गये व उन्हें बताया कि वे अपने वंशज के लिये महान यज्ञ का आयोजन कर रहे हैं और इस बार वे दोनों मातृत्व को प्राप्त करेंगी, तो वे कैसी संतान की कामना रखती हैं, इसके उत्तर में कदरू, जो सर्प प्रजाति की थीं, उन्होंने हजारों सर्पों की माँ बनने की अभिलाषा व्यक्त की, वहीं विनता जो पक्षी प्रजाति की थी, उन्होंने दो पुत्र प्राप्ति की कामना व्यक्त की जो कदरू के हजारों सर्पों से अधिक वीर व पराक्रमी हों। ऋषि कश्यप ने उन दोनों को तथास्तु कहा और फिर वे यज्ञ की तैयारी में लग गये। उनकी सहायता के लिये अन्य ऋषि व उनके पुत्र देवराज इन्द्र भी आये।
इन्द्र जो अन्य ऋषियों से अधिक बलशाली थे, ऋषियों का उपहास करने लगे, इससे ऋषिगण क्रोधित हुये। इस प्रकार हवन की क्रिया आरंभ हुई, गणमान्य ऋषि जो कि देवराज इन्द्र से पहले से ही क्रुद्ध थे, वे आहुति देते हुये यही प्रार्थना करने लगे, कि उन सभी की तपस्या के फल से उत्पन्न होने वालों में से एक ऐसा बालक भी हो जो इन्द्र देव से अधिक शक्तिशाली हो! वह स्वयं की इच्छा से किसी भी स्थान पर जा पाने में सक्षम हो, और जो कोई भी रूप धारण कर सके! यह देख इन्द्र घबरा गये, वे अपने पिता से सहायता माँगने लगे, हवन क्रिया सम्पूर्ण होने के बाद देवराज इन्द्र ने सभी ऋषियों से क्षमा-याचना की। ऋषि कश्यप ने उन सभी ऋषि से विनती की, ‘आप सभी पवित्र गण, वर्तमान में जो इन्द्र हैं, जिसे स्वयं ब्रह्मा ने देवराज पद दिया है, अतः हवन द्वारा जिस बालक का निर्माण होगा उसे समस्त सृष्टि के पंखों वाले जीवों का देव बनाये। मेरा पुत्र इन्द्र आप सभी के समक्ष नतमस्तक है, इसे क्षमा कर दीजिये। सभी ऋषि मान गये, वे बोले, क्योंकि यह यज्ञ आपकी संतान के लिये संपन्न किया गया है आप हमारी तपस्या का फल स्वीकार करें।
महीनों बाद, निश्चित समय पर कदरू की मनोकामना के अनुकूल हजारों सर्प उत्पन्न हुये, परन्तु विनता के दो पुत्र उत्पन्न नहीं हुये। कुछ दिन तो विनता ने धैर्यपूर्वक जो दो अंडे थे, जिनमें से उसके पुत्र उत्पन्न होने थे, उनके स्वतः फूटने की प्रतीक्षा की, परन्तु एक दिन उससे रहा नहीं गया और अपने पुत्र को जल्द ही देख पाने की लालसा में अण्डे को खोल दिया, परन्तु उसमें से जो पुत्र बाहर आया वह पूरी तरह से विकसित नहीं हो पाया था, उसका आधा हिस्सा विकसित होना अभी शेष था, वह बालक अत्यन्त क्रोधित हुआ, उसने अपनी माँ को श्राप दिया कि, ‘आपको अपने उतावलेपन के कारण दुःख भोगना होगा, आप सदा दासी बनकर रहेंगी, परन्तु यदि आप दूसरे पुत्र को पूर्णतया विकसित होकर, उचित समय पर उत्पन्न होने तक का धैर्य रखेंगी तो मेरा भ्राता आपको इस श्राप से मुक्त कर देगा!’ और वह बालक आसमान की ओर उड़ चला, विनता के लाख जतन करने पर भी वह बालक नहीं रूका व सूर्यदेव के रथ के सारथी का पद संभाला।
कुछ दिन बाद, कदरू व विनता दोनों बहनें, संध्याकाल में वन में भ्रमण कर रही थी, इतने में उच्चैःश्रवा (सात धड़ वाला उड़ने में सक्षम दिव्य अश्व, जिसका निर्माण समुद्र-मंथन के समय हुआ था) उन्हें आकाश में दिखाई दिया। उन दोनों ने उस अश्व के रंग के लिये शर्त लगाई, विनता का कहना था कि वह अश्व पूर्णतया श्वेत रंग का है जबकि कदरू का कहना था कि उसकी पूँछ काले रंग की थी, दोनों ने निर्णय लिया कि वे अगले दिवस ही जाकर अश्व का परीक्षण करेंगे कि उसका रंग क्या है? और जो भी अपनी शर्त में हार जायेगी वह सदा के लिये विजयी की दासी बनेगी। घर पहुँचने पर कदरू को दूसरा विचार आया कि कहीं उसका निर्णय गलत तो नहीं हो गया, क्योंकि विनता ने बड़े आत्मविश्वास के साथ उच्चैःश्रवा का रंग बताया था।
कदरू के कुटिल दिमाग में एक योजना आई, उसने अपने सभी सर्प पुत्रें को बुलाकर आदेश दिया कि वे उच्चैश्रवा की पूँछ को पूरी तरह ढंक दें, जिससे कि वह काले रंग की दिखे, अपनी माँ का आदेश नहीं मानने पर कदरू ने उन सभी को भस्म कर देने की धमकी दी, इसी डर से सभी पुत्रें ने अपनी माँ के कहे अनुसार किया।
अगले दिन जब वे दोनों अश्व का परीक्षण करने गई तो उसकी पूँछ (जो सर्पों से ढंकी हुई थी) काले रंग की ही दिखी और इस तरह शर्त हारकर विनता ने सम्पूर्ण जीवन कदरू की दासी बनना स्वीकार किया। ठीक उसी समय, घर पर, विनता का दूसरा पुत्र उत्पन्न हुआ और जैसा कि ऋषियों की तपस्या से उसे अपना आकार बदल लेने का वरदान था, इसीलिये उसने अपना आकार बड़ा किया और अपनी माँ को खोजने लगा, इतने में विनता भी वहाँ आ गई, उसे ज्ञात था कि उसकी इच्छा अनुरूप उसका पुत्र शक्तिशाली ही होगा।
विनता के पुत्र ने पाया कि उसकी माँ कदरू की सेवा में ही लगी रहती है और उसे भी कदरू के सर्प-पुत्रों की सेवा करने को कहती है, इसका कारण पूछने पर विनता उसे अपने द्वारा हारी गई शर्त के बारे में बताती हैं। अपनी माँ को इस कार्य से मुक्त करने के लिये विनता का पुत्र उन सभी कदरू पुत्र सर्पों से उनकी स्वतंत्रता का मूल्य पूछता है, जो वो देने को तैयार है। सभी नाग एकमत से अमृत की माँग करते हैं। वह अपनी माता से पूछता है कि अमृत कहाँ मिलेगा जिसे लेकर मैं तुम्हें दासी जीवन से मुक्त कर सकूं।
विनता ने अपने पुत्र को उसके पिता ऋषि कश्यप के पास जाकर अमृत का पता पूछने को कहा। वह महर्षि कश्यप के पास पहुंचा, कश्यप अपने पुत्र को देखकर बहुत प्रसन्न होते हैं। उनके पुत्र ने उनसे पूछा पिताजी, मैं अमृत लेकर अपनी माता को दासता से मुक्ति दिलाना चाहता हूँ। कृपया मुझे बताइये अमृत कहाँ मिलेगा। महर्षि बोले- ‘पुत्र! देवराज इन्द्र ने अमृत की सुरक्षा के लिये बहुत व्यापक प्रबंध कर रखा है, वहाँ तक पहुँचना कठिन है। वह बोला कि इन्द्र ने कितनी ही कड़ी सुरक्षा प्रबंध क्यों न रखे हो, वह अमृत ले ही आयेगा। ऋषि कश्यप से उसने अपने भोजन के बारे में पूछा, तब ऋषि ने नीचे एक सरोवर की ओर इशारा करते हुये बताया कि वहाँ किनारे एक विशालकाय कछुआ और एक हाथी बहुत उधम मचा रहे हैं और एक-दूसरे के प्राण लेने पर तुले हुये हैं, तुम उनका भक्षण कर अपनी भूख मिटा सकते हो।
विनता का पुत्र सरोवर तट पर गया उन दोनों पशुओं को अपने पंजों में जकड़ा और उनके भक्षण के लिये उचित स्थान देखने लगा, इतने में एक विशाल व घना बरगद का पेड़ दिखाई दिया, वह उसकी शाखा पर बैठा ही था कि उसे कुछ ऋषि लटके हुये घोर तपस्या में लीन दिखाई दिये। ज्यादा भार से शाखा कमजोर होकर टूटने लगी इतने में उसने उस शाखा को मजबूती से अपनी चोंच में पकड़ा और सभी उन ऋषिवर को सुरक्षित पर्वत की चोटी पर छोड़ दिया। सभी ऋषि प्रसन्न हुये वे उसके बल व गति को देख कर चकित भी हुये। उन्होंने उसका नाम गरूड़ (जिसमें अत्यधिक भार उठा लेने की क्षमता हो) रखा। फिर गरूड़ अपना भोजन कर देव लोक की ओर उड़ चला।
गरूड़ अमृत सरोवर पहुँचा तो उसने देखा कि अमृत की रक्षा के लिये पराक्रमी देव हैं, अमृत कलश के चारों ओर एक विशालकाय चक्र है व अमृत की रक्षा के लिये दो बड़े विषैले नाग भी पहरा लगाये हुये हैं। गरूड़ के आने से देवलोक में अचानक से अंधकार छा गया, चारो ओर अंधेरा व्याप्त होने लग गया, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। सभी देवों को ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों कोई अपशकुन होने को है। यह देख देवराज इन्द्र व अन्य सभी देव अपने गुरु बृहस्पति के पास इसका कारण पूछने गये। गुरु बृहस्पति ने कहा- ‘ऋषि कश्यप और विनता का पुत्र गरूड़ आने वाला है, वह यहाँ से अमृत ले जाने आयेगा, वह अजेय है, वह ऐसा कर पाने में पूर्णतया सक्षम हैं।’
यह सुन इन्द्र देव ने अमृत के सुरक्षा प्रबन्ध कड़े करने का आदेश दिया, उन्होंने सभी देव गण को सचेत किया कि एक विशालकाय पक्षी जिसमें अत्यधिक शक्ति व ऊर्जा है, वह यहाँ अमृत का हरण करने के लिये आ रहा है, सभी उसका बलपूर्वक सामना करने के लिये तत्पर रहें। इतने में, गरूड़ आता है, उसके पंखों से धूल उड़ने लगती है, और अधिक अंधकार छा जाता है, अत्यधिक धूल उड़ने के कारण देवगण कुछ देख नहीं पाते, सभी देव गरूड़ पर तलवार, चक्र, भाला, आदि अस्त्रों से हमला करते हैं, परन्तु सब बेकार जाता है गरूड़ के हमले से सभी देव मैदान से पीछे हट जाते हैं। देवों से निपटने के बाद गरूड़ को अमृत- कलश के चारों ओर फैली अग्नि की दीवार का सामना करना था।
अपने आकार को बदल लेने की क्षमता होने के कारण गरूड़ स्वयं को नब्बे गुणा बढ़ा लेता है, जिससे उसके नब्बे मुख हो जाते हैं। वह विभिन्न समुद्रों का पानी अपनी मुख में भर उस अग्नि को भी शांत कर देता है। इसके बाद गरूड़ को धारदार पहिये वाले चक्र का सामना करना होता है, और इसी के ठीक नीचे दो जहरीले नाग होते है, जिनके नेत्रें में रोष भरा हुआ था। गरूड़ अपना आकार छोटा कर पहियों के बीच में घुस जाता है, ओर अपने पंखों से धूल उड़ाने लग जाता है, जिससे कि नाग कुछ देख न सके ओर इससे पहले वे दोनों नाग कुछ समझ पाते, गरूड़ उन दोनों का भी वध कर देता है। वह अमृत कलश ले अपना आकार बड़ा कर पहिये के लाखों टुकड़ों में चीरते हुये पूर्ण शक्ति के साथ ऊपर गगन में ले उड़ता है।
जब गरूड़ अमृत-कलश लिये हुये उड़ा जा रहा था, तभी भगवान विष्णु की नजर उस पर पड़ती है। वे गरूड़ की निस्वार्थता से प्रसन्न होते हैं कि अमृत जो अमर बना देता है, वह हाथ में होने पर भी उसने उसकी एक बूंद का भी पान नहीं किया, ऐसा आत्म बलिदान तो स्वयं देवों में भी नहीं है। गरूड़ से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु उसे बुलाते हैं और उसे दो वरदान देने की इच्छा व्यक्त करते हैं। गरूड़, भगवान विष्णु से वरदान में अमरत्व, सदा के लिये निरोगी रहने का व भगवान से ऊपर का स्थान माँगते है। भगवान उसे तथास्तु कह वरदान दे देते हैं और गरूड़ को अपनी ध्वजा के ऊपर विराजमान होने के लिये कहते हैं, इससे गरूड़ का स्थान भगवान विष्णु से ऊपर हो जाता है। गरूड़ यह सुनकर अत्यन्त प्रसन्न होता है, व भगवान विष्णु को भी वर माँगने को कहता है, भगवान विष्णु गरूड़ को अपना वाहन बनने की अभिलाषा व्यक्त करते है। गरूड़ कहते हैं अपना कार्य पूर्ण करने के बाद मैं आपकी आज्ञा स्वीकार करता हूँ।
गरूड़ फिर उड़ान भरता है, इतने में देवराज इन्द्र उसे देख लेते है और वज्र से उस पर हमला कर देते हैं। परन्तु इन्द्र के वज्र का गरूड़ पर कोई असर नहीं होता है। उसके डैनों से सिर्फ एक पंख वज्र से टकराकर नीचे गिरता है। यह देख इन्द्र सोचने लगे ‘यह तो महान पराक्रमी है।
मेरे वज्र का इस पर कोई भी प्रभाव नहीं हुआ। जबकि मेरे वज्र के प्रहार से पहाड़ तक टूट कर चूर्ण बन जाते हैं। यह सोच कर इन्द्र ने गरूड़ से कहा ‘पक्षीराज! मैं तुम्हारी वीरता से बहुत प्रभावित हुआ हूँ। इस अमृत कलश को मुझे सोंप दो और बदले में जो भी वर मांगना चाहते हो मांग लो।’ गरूड़ बोला कि ‘यह अमृत मैं अपने लिये नहीं अपनी माँ को दासता से मुक्त कराने के लिये ले जा रहा हूँ।’ इन्द्र बोले तुम कलश लेकर जा सकते हो, उचित मौका देख कर मैं वहाँ से कलश ले आऊँगा। साथ ही इन्द्र ने वर के रूप में गरूड़ को नागों को खाने की अनुमति दी। गरूड़ प्रसन्न हुआ और कलश ले कर उन नागों के पास पहुँचा और अपनी माँ विनता को दासता से मुक्त करने को कहा, नागों ने उन्हें मुक्त किया व कहा कि हम यह अमृत का पान अभिषेक करने के बाद करेंगे। ऐसा कह सभी नाग चले गये, इतने में उनके पीछे से इन्द्र आये और अमृत कलश उठा कर उसे पुनः उसी स्थान पर पहुँचा दिया। कुछ देर बाद जब नाग लौटें तो वे अमृत कलश को गायब देख कर दुःखी हुये। उन्होंने उस कुशा को ही जिस पर अमृत कलश रखा था चाटना आरंभ कर दिया, जिसके कारण उनकी जीभ दो हिस्सों में फट गई। आज भी सृष्टि के समस्त सर्पों की जीभ बीच से कटी हुई होती हैं। क्योंकि नागों के छल के कारण गरूड़ की माँ विनता को दासता स्वीकार करनी पड़ी थी।
इसीलिये नाग और गरूड़ एक दूसरे के शत्रु हैं। इस तरह उसी दिन से पक्षीराज गरूड़ भगवान विष्णु के वाहन के रूप में प्रयुक्त होने लगे। गरूड़ के भगवान विष्णु की सेवा में जाते ही देवता भय मुक्त हो गये।
निधि श्रीमाली
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