यदि इस काल में विद्यार्थी पूर्ण रूप से समर्पित होकर विद्या ग्रहण करता है तो वह निश्चय ही अपने भावी जीवन में वांछित सफलता प्राप्त करने में समर्थ रहता है। विद्यार्थी जीवन ही विद्या (ज्ञान) प्राप्त करने के लिये सर्वाधिक उपयुक्त समय होता है। यह जीवन त्यागमय जीवन जीने का समय है, क्योंकि विद्या अध्ययन, ज्ञानार्जन ही विद्यार्थी का एकमात्र लक्ष्य होता है और यह लक्ष्य तभी प्राप्त हो सकता है, जब विद्यार्थी भोग-विलास और आराम का त्याग कर विद्या ग्रहण करने में संलग्न रहता है। यह काल तप संचय का काल है, जो बड़े ही कष्ट से अर्जित होता है। विद्यार्थी के विषय में निम्नांकित श्लोक बहुत प्रसिद्ध है-
सुख चाहने वाले को विद्या कहाँ और विद्यार्थी को सुख कहाँ? सुखार्थी को विद्या और विद्यार्थी को सुख छोड़ देना चाहिये। सुख और विद्या दोनों एक साथ सम्भव नहीं। महात्मा विदुर जी का उक्त श्लोक अक्षरशः सत्य हैं, जो विद्यार्थी आराम और सुखमय जीवन जीते हुये विद्या ग्रहण करने की इच्छा रखता है, वह अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में असफल ही रहता है।
अर्थात् विद्यार्थी के पाँच लक्षण होते हैं- काकचेष्टा- कौआ की तरह प्रयत्नशील रहना। कौआ अपने खाद्य पदार्थ को प्राप्त करने के लिये लगातार प्रयत्नशील रहता है और उसकी चेष्टा विलक्षण होती है। जब तक वह अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेता है, तब तक वह कोशिश करता ही रहता है। छात्रों के लिये शिक्षा है कि वे भी जब तक अपना लक्ष्य प्राप्त न कर लें, तब तक सतत प्रयत्नशील रहें।
बको ध्यानम्– बगुले की तरह ध्यान लगाना। बगुला पूरे मनोयोग से ध्यान लगा कर अपना भक्ष्य प्राप्त करता है। शान्ति पूर्वक ध्यान केन्द्रित करना यह छात्रों का दूसरा लक्षण है। ध्यान केन्द्रित कर अध्ययन करना ही सार्थक होता है। पढ़ाई के कमरे में टी-वी- पर कार्यक्रम चल रहे हैं, हाथ में पुस्तक है। इस तरह अध्ययन नहीं हो सकता। मन की एकाग्रता के लिये एकान्त-शान्त वातावरण होना अनिवार्य है। मन लगा कर ग्रहण की गयी विद्या ही ठीक से स्मृति में बैठती है और यथा समय स्फुरित भी हो उठती है।
श्वाननिद्रा- कुत्ता सदैव सावधान रहते हुये निद्रा लेता है। थोड़ी सी आहट पाकर वह सक्रिय हो जाता है। छात्र के लिये सीमित निद्रा लेना पर्याप्त है, अपने कर्तव्य एवं दायित्व को समझना तथा आलस्य एवं प्रमाद को छोड़ कर उस पर डटे रहना। यह विद्यार्थी का प्रमुख लक्षण है। शरीर में आलस्य रहे, तन्द्रा अधिक प्रिय हो तो विद्या का अर्जन असम्भव है।
अल्पहारी- भोजन और निद्रा का गहरा सम्बन्ध है। अधिक भोजन कर लेने पर निद्रा का प्रभाव जल्दी होगा और विलम्ब तक सोना पड़ेगा। विद्यार्थी के लिये पौष्टिक अल्पाहार ही उचित है। यथा समय गाय दुग्ध का सेवन करना चाहिये। भोजन और निद्रा के समय का पालन भी आवश्यक है।
गृहत्यागी- तात्पर्य यही है कि घरेलू सुख और आराम का जीवन विद्यार्थी के लिये उचित नहीं है। विद्यार्थी जीवन त्याग का जीवन है, तपस्या का जीवन है।विद्यार्थिीयों के सात दोष बताये गये हैं-
आलस्य, मद, नशा, मोह, चंचलता, व्यर्थ की बातों में रूचि लेना, उद्दण्डता, अभिमान एवं स्वार्थ त्याग का अभाव होना। ये विद्यार्थियों के सात दोष हैं। इस श्लोक का आशय यही है कि विद्यार्थी को उक्त दोषों से दूर रहना चाहिये तभी वह अध्ययन के क्षेत्र में और आगे जीवन में सफलता प्राप्त कर सकता है।
यद्यपि विद्या प्राप्त करना अथवा ज्ञानार्जन करना जीवन पर्यन्त चलता रहता है, तथापि विद्याथी जीवन विद्या ग्रहण करने के लिये सर्व श्रेष्ठ समय माना गया है। मानव जीवन को चार भागों में विभाजित किया गया है, जिसमें से आयु के प्रथम भाग में विद्या प्राप्त करने के लिये कहा गया है।
एक श्लोक है, जिसका भाव है कि जिसने विद्यार्थी जीवन में विद्या प्राप्त करने में विशेष रूचि नहीं ली, दूसरे भाग (यौवनावस्था) में धनार्जन नहीं किया, तीसरे भाग में धर्म अर्जित नहीं किया, तो फिर वह चौथे भाग (बुढ़ापा) में क्या करेगा? तात्पर्य विद्यार्थी जीवन ही विद्या (ज्ञान) प्राप्त करने का सर्वोत्तम समय है। इस जीवन में प्राप्त किया हुआ ज्ञान एवं संस्कार जीवन को सार्थक बनाते हैं। वही जीवन में कुछ कर सकने में सफल हो पाता है, जिसने विद्यार्थी जीवन में समय का सदुपयोग किया हो।
जिस राष्ट्र में विद्यार्थी पूर्ण रूपेण समर्पित होकर विद्या अध्ययन करते हैं, वही राष्ट्र विश्व में आगे रहता है। विद्यार्थी को समाज की रीढ़ की संज्ञा दी गयी है, आने वाला कल कैसा होगा, इस बात का ज्ञान विद्यार्थियों को देख कर आसानी से जाना जा सकता है।
यहाँ विद्यार्थियों के लिये संक्षेप में कुछ अति महत्त्वपूर्ण सूत्र सुझाव रूप में दिये जा रहे हैं, जिनका पालन कर वे अपना भविष्य सफल बना सकते हैं-
श्रद्धावान बनें- अपने माता-पिता एवं गुरु के प्रति सदैव श्रद्धावान् रहना। यह विद्यार्थी के लिये प्रथम बात है। श्रद्धावान छात्र ही ज्ञान प्राप्त करने में सफल रहता है। श्रद्धा के अनन्तर ही निष्ठा होती है और निष्ठा ही रूचि जगाती है, रूचि के अनन्तर तद्विषयक आसक्ति होती है, अनुराग उत्पन्न होता है और फिर अधीन विषय यथावत् रूप में ग्रहण हो जाता है।
शास्त्र में वस्तु ग्रहण का यही क्रम बताया गया है-‘श्रद्धावान लभते ज्ञानं।’ (गीता)। राम चरित मानस में कहा गया है-
माता-पिता और गुरु तीनों ही हमारे प्रत्यक्ष देव तुल्य हैं। अतएव सभी प्रकार से उनका सम्मान करना चाहिये, उन पर श्रद्धा रखनी चाहिये।
सतत अध्ययनशील रहें- यह युग प्रतियोगिता प्रतिस्पर्धा का युग है, इसलिये आज वे ही छात्र मनोवांछित सफलता प्राप्त कर सकेंगे, जो अपनी परीक्षा में सर्वाधिक अंक प्राप्त कर श्रेष्ठता सूची में स्थान प्राप्त कर सकेंगे। अतएव सतत अध्ययनशील रहने की आवश्यकता है। कठोर परिश्रम करने की आवश्यकता है। समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। अतः हाथ में जो समय है उसका सदुपयोग कर लेना चाहिये। आगे के लिये कार्य को टालने का मतलब है लक्ष्य से दूर हो जाना। विद्या अध्ययन में नितान्त आवश्यक है, जहाँ क्रम टूटा विषय सर्वथा विस्मृत होता जायेगा और पश्चाताप ही हाथ आयेगा।
समय का सदुपयोग करें- समय अमूल्य है। जीवन में समय सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। बीता हुआ समय वापस नहीं मिलता। समय देने से धन मिल सकता है, लेकिन धन देने से समय नहीं मिल सकता। बुद्धिमानी यही है कि समय के एक-एक क्षण का सर्वोत्तम ढंग से उपयोग करें। व्यस्त रहें। दिन-रात के 24 घण्टों का इस प्रकार उपयोग करें कि एक क्षण भी बर्बाद न हो। कहा गया है- जो क्षण वर्तमान में उपस्थित है, वही महत्त्वपूर्ण होता है। याद रखना चाहिये समय ही जीवन है।
वाल्मीकि रामायण में भी कहा गया है- नदी का पानी एक बार एक दिशा में बहा तो लौट कर पुरानी दिशा की ओर नहीं आता। यही जीवन का नियम है। यदि आप खाली (बिना कार्य) के बैठ कर समय बर्बाद करेंगे तो निठल्ले मित्र भी आपके साथ में मौज करना चाहेंगे और फिर गलत ही गलत होगा।
अंग्रेजी कहावत है- (Doing nothing is doing ill) अर्थात् खाली बैठे उत्पात सूझे, यदि आप अध्ययन में ही व्यस्त रहेंगे तो कुसंग (निठल्ले मित्रों) से और अनेक प्रकार की बुरी आदतों से भी बचे रहेंगे। अध्ययन कभी निष्फल नहीं जाता और विद्यार्थी जीवन का लक्ष्य तो विद्या अध्ययन करना ही होता है।
अनुशासन का सदैव पालन करें- विद्यार्थी जीवन में ही अनुशासन की शिक्षा मिलती है। अनुशासन में रहकर ही वह जो सीखता या अर्जित करता है, वही जीवन में काम आता है। विद्यालय में रहकर आदेशों का पालन करना गुरुजनों की आज्ञा को शिरोधार्य करना, शिष्टाचार का पालन करना, विनम्रता का व्यवहार आदि सभी नियमों और आदर्शों का पालन करते हुये एक आदर्श नागरिक बनने की शिक्षा विद्यार्थी को विद्यालय के वातावरण में ही सीखने को मिलती है। ‘विद्यया लभते सर्वं विद्या सर्वत्र पूज्यते’ अतएव विद्वान् बनो, विद्यावान् बनो और संस्कारवान बनो, संस्कार ही सर्वोपरि है।
विनीत श्रीमाली
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