शिष्य हर क्षण गुरु मंत्र का जप करता है तो वह स्वयं देवता स्वरूप बन जाता है।
शिष्य पूजा करे तो केवल गुरु के चरणों की ही पूजा करे, उसके जीवन में गुरु-मंत्र के अलावा अन्य कोई मंत्र नहीं होता और न उसे किसी प्रकार के मंत्र की साधना करने की आवश्यकता होती है।
मोक्ष मार्ग पर चलने वाले शिष्य को सदैव गुरु का ही चिन्तन, मनन करते रहना चाहिये।
जो साधक या शिष्य गुरु की निन्दा करता है, उसके समान पापी इस संसार में कोई नहीं है। वह निश्चय ही नरक में जाता है और सारी तपस्या क्षीण हो जाती हैं।
गुरु के बताये हुये मार्ग पर चलना ही साधाक शिष्य के लिये श्रेयस्कर है। मन की शुद्धि केवल गुरु की कृपा से ही संभव है।
जब तक शिष्य का स्थूल शरीर इस संसार में विद्यमान है, तब तक आराध्य के रूप में गुरु का ही चिन्तन, ध्यान, मनन एवं सेवन करना चाहिये।
गृहस्थ शिष्य को गुरु से सशरीर दूर रहकर भी उनके चिन्तन से अपने को जोड़े रहना चाहिये।
गुरु के पास बैठे रहने मात्र से ही साधक के हृदय में ज्ञान का प्रकाश उदय होने लगता है, जिसको ब्रह्म का प्रकाश कहा जाता है।
शिष्य को अपने जीवन में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की पूर्णता केवल गुरु को अपने हृदय में स्थापित करने से ही संभव है।
शिष्य के लिये गुरु चरणामृत अमृत बूंद है जिसे पीकर उसके पाप-ताप भस्म हो जाते है।
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