तुम्हारे और सत्य के बीच में कोई बड़ा पहाड़ नहीं खड़ा है, धुएं से भी पतली लकीर है। तुम चाहो तो क्षण भर में मिट जाए, न चाहो तो जन्म-जन्मों तक चले। तुम्हारे और तुम्हारे स्वरूप के बीच में विचार की पतली सी दीवाल के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। और विचार तो पानी के बुलबुले हैं। उनके होने ना होने में कितना फर्क है? लेकिन उतनी सी दीवाल ने जो धुएं की लकीर जैसी है, पानी के बुलबुले जैसी है, तुम्हें बहुत भटकाया है। और अगर तुम अपने भटकन का हिसाब लगाओ तो ऐसा लगेगा, कि कोई हिमालय बीच में खड़ा है।
आंख में छोटा सा रेत का कण है और आंख बंद हो गयी, तो अस्तित्व दिखाई देना बंद हो गया। आंख में पहाड़ गिरने की जरूरत नहीं है। जरा सी रेत की किर-किरी ही काफी है, आंख बंद करने में। तुम्हारे भीतर आंख में भी रेत की किरकिरी से अधिक कुछ भी नहीं है। सिर्फ भरोसा चाहिये उठने का। सिर्फ साहस चाहिये जागने का। तुम्हारे संकल्प से ही टूट जायेगी धुएं की यह रेखा। शायद कुछ और भी करना जरूरी ना हो, इतना खयाल में आ जाये, कि बाधा बड़ी ही छोटी है, तुम बहुत बड़े हो, इतना भरोसा ही पैदा हो जाये, तो बाधा टूट जाती है।
और तुम्हारा होना तुम्हारी धारणा पर निर्भर है। तुम छोटा समझो तो छोटा हो जाओगे। तुम बड़ा समझो तो तुम बड़े हो जाओगे। तुम्हारी धारणा ही तुम्हारी सीमा है, तुम अणु समझो तो अणु जैसे हो जाओगे। तुम ब्रह्म समझो तो तुम ब्रह्म जैसे हो जाओगे। वास्तविक धर्म को जिन्होंने जाना है, वे तो चिल्ला-चिल्ला कर कहते हैं कि तुम ब्रह्मा हो। स्वयं में तुम ब्रह्मा हो। तत्वमसि! वे तो चिल्ला कर कहते हैं कि आत्मा ही परमात्मा है। वे तो कहते हैं कि तुम्हारी कोई सीमा नहीं, कोई परिभाषा नहीं। तुम अनंत अनादि हो। लेकिन पुरोहित है, मंदिर, मस्जिद को चलाने वाला, शब्दो के संग्रह पर जीने वाला पंडित, वह तुम्हें छोटा करता है। वह तुम्हें हीन बताता है। वह तुम्हारी निंदा करता है। और उसने इतने समय तक तुम्हारी निंदा की है कि जब तुम्हें कोई कहता है, जागो! तुम महान हो, विराट हो, तो तुम्हें भरोसा नहीं होता।
यह पहली बात ध्यान रखो कि दीवाल न के बराबर है। बड़ी झीनी है, जैसे घूंघट पड़ा हो नववधू की आंखो पर और उसे कुछ दिखाई न पड़ता हो। जरा सरका ले, और सब दिखाई पड़ना शुरू हो जाये। लेकिन तुमने मान रखा है कि बहुत कठिन है।। फिर तो तुम्हें अपने भीतर भी सिवाय रोग, व्याधियों, घृणा, ईर्ष्या, मत्सर, लोभ, काम, क्रोध इनके अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। तुम तो स्वयं को दिखाई ही नहीं पड़ते। बस, यही चीजें दिखाई पड़ती हैं। और रोज-रोज इन्हें तुम देखते हो। रोज-रोज इनका अनुगमन करते हो। तो तुम्हारे भीतर का अनुभव भी तुमसे कहता है, कि पुजारी ठीक ही कहता होगा। फिर अगर तुम्हें कोई संत भी मिल जाये तो तुम भरोसा नहीं करते। क्योंकि तुम्हारी आंख वहीं देख सकती है, जो तुमने अपने भीतर देखा है। एक बात अच्छे से समझ लो। तुम वही देख सकते हो, जो तुम्हारा अनुभव है। जो तुम्हारा अनुभव नहीं, वह तुम्हें दिखाई नहीं पड़ेगा। अगर संत सरल होगा तो तुम्हें मूर्ख दिखाई पड़ेगा। सरलता नहीं दिखाई पड़ेगी। तुम समझोगे मूढ़ है। क्योंकि मूढ़ता तुम जानते हो, सरलता तुम जानते नहीं।
अगर संत तुम्हें मिलेगा और मौन बैठा होगा, शांत होगा, तो तुम समझोगे कि आलसी है, काहिल है, सुस्त है। क्योंकि तुमने उसी को जाना है, अपने भीतर। जब तुम खाली बैठे होते हो, तब तुम काहिल होते हो, सुस्त होते हो, तामसी होते हो। तो संत अगर तुम्हें मिलेगा खाली बैठा, कुछ न करता, तो तुम समझोगे अकर्मण्य है। तुम्हारी भाषा तो तुम्हारी ही रहेगी। उसका मौन तो तुम्हें दिखाई न पड़ेगा। मौन तो तुमने जाना ही नहीं। तुम तो सदा ही शब्दो से भरे रहे हो। तो तुम्हारा अनुभव ही तुम्हें बनायेगा। तुम अपने को ही फैला कर दूसरो में देखोगे। दूसरे दर्पण की भांति हैं।
बहुत वर्ष हुये मैं पहली बार ही बंबई आया था। और एक लेखक, बड़े सुसंस्कृत, संभ्रांत परिवार से आते हैं। गहरे रूप से सुशिक्षित व्यक्ति हैं, संस्कारशील हैं। वे मेरे विचारो से प्रभावित थे, तो मुझे भोजन कराने एक होटल में ले गये। मुझे पता नही था, कि उनकी आंखे कमजोर हैं। और वे बिना चश्मे के नहीं देख सकते निकट की चीजें। पढ़ नहीं सकते। चश्मा वे घर भूल आये थ। टेबल पर पड़े मेनू को उठाकर थोड़ी देर देखते रहे। मुझे कुछ पता नहीं और मुझे शायद उन्होंने इसलिये नहीं कहा, कि न बताना चाहते होंगे कि उनकी आंखे इतनी कमजोर है, कि बिना चश्में के देख नहीं सकते। मैं समझा कि वे पढ़ रहे हैं। तभी तो बैरा आया पानी लेकर और उन्होंने उस बैरे से कहा कि जरा इस मेनू को पढ़ दो। उस बैरे ने उनकी तरफ देखा और कहा भाई! हम भी तुम्हारी माफिक पढ़ेला नहीं है।
जो हमारी दशा है, वही हम दूसरे में देख सकते हैं। दूसरे की दशा तो दिखाई नहीं पड़ सकती। उसके देखने का उपाय ही नहीं है। इसलिये बुद्ध-पुरूष तुम्हारे भीतर आते हैं, तुम्हारे इतिहास का भी अंग नहीं बन पाते। पुराण-कथायें बन जाती हैं। शक होता है, कि ये लोग कभी हुये? चंगेजखां हुआ, इस पर कभी शक नहीं होता। नादिरशाह हुआ, इस पर कभी संदेह नहीं होता। हिटलर हुआ इस पर कभी संदेह नही हातो। नादिरशाह हुआ, इस पर कभी संदेह नहीं होता। हिटलर हुआ इस पर कभी संदेह नहीं होता। लेकिन आज से हजारों साल पहले शंकराचार्य ऋषि हुये या नहीं, यह संदिग्ध होगा। वे इतिहास के हिस्से नहीं बनते। इतिहास तो तुम बनाते हो, इतिहास तो तुम लिखते हो।
तो बुद्ध, महावीर, कृष्ण, क्राइस्ट हुये भी या सिर्फ कपोल-कल्पनायें है? अगर तुम ठीक से सोचो, तो तुम्हें कपोल कल्पनायें ही लगेंगी। ऐसे आदमी हो ही कैसे सकते हैं? क्योंकि आदमी की परिभाषा तो तुम हो। ये भरोसे के नहीं हैं। ये किन्हीं लोगों ने सपने संजोये हैं, कथायें लिखी हैं। लेकिन ऐसा यथार्थ में हो नहीं सकता बुद्ध जैसा आदमी। यह कैसे हो सकता है कि जीसस को लोग सूली दें और सूली पर लटका हुआ जीसस परमात्मा से प्रार्थना करे, कि इन सबको माफ कर देना क्योंकि ये जानते नहीं, ये क्या कर रहें हैं। यह कैसे हो सकता? ऐसी बात तुम्हारे भीतर कभी उठी, कि जो तुम्हें पत्थर मार रहा हो, गाली दे रहा हो और तुमने प्रार्थना की हो, कि परमात्मा इसे क्षमा कर देना, क्योंकि यह जानता नहीं यह क्या कर रहा है? अगर ऐसा तुम्हारे भीतर थोड़ा सा भी हुआ हो तो तुम समझ पाओगे कि जीसस भी हो सकते हैं। लेकिन पत्थर मारने में यह नहीं होता, तो फांसी लगाने पर कैसे होगा?
जो तुम्हारी तरफ मिट्टी का ढेला फेंके, तुम्हारे प्राण उसकी तरफ चट्टान फेंकना चाहते हैं। जो तुम्हें एक गाली दे, तुम्हारी आत्मा हजार गालियों से उसके लिये भर जाती हैं। जो तुम्हें कांटा चुभाये, उसके लिये तुम्हारे प्राणो में फूल पैदा नहीं होते और तुम्हीं तो तुम्हारा बोध हो। तो जीसस संदिग्ध है। हो नहीं सकते। कहानी होगी। पुराण कथा है। पुराण और इतिहास का यही फर्क है। जिन-जिन पर तुम भरोसा नहीं कर सकते, उनके लिये तुमने पुराण लिखा है। जिन पर तुम भरोसा करते हो उनके लिये तुमने इतिहास लिखा है। इतिहास से यह सिद्ध नहीं होता कि ये लोग हुये। इतिहास से इतना ही सिद्ध होता है कि ये तुम्हारे जैसे लोग हैं। और पुराण से यह सिद्ध नहीं होता कि ये लोग नहीं हुये, पुराण से इतना ही सिद्ध होता है। कि इनसे तुम्हारा कोई ताल-मेल नहीं बैठता। ये तुम्हारी भाषा में नहीं आते। ये तुम्हारी सीमा के बाहर पड़ जाते हैं। तुम अगर मान भी लेते हो तो भी बहुत गहराई से नहीं। जानते तो तुम यही हो कि यह हो नहीं सकता।
लेकिन तुम चाहो तो जान सकते हो, पहचान सकते हो और तो और तुम उनके जैसा बन भी सकते हो। यह कोई असंभव नहीं है, यह हो सकता है, तुम्हारे प्रयासो, तुम अपने प्रयत्नों से उनसे एकाकार हो सकते हो। तुम अपने मूल स्वरूप ब्रह्मत्व से परिचित हो सकते हो, आत्मा को परमात्मा में विलय करना कोई असंभव क्रिया नहीं, आवश्यकता तुम्हें अपने रूढि़-रिवाजो, अपनी धारणाओं को बदलने से, इतने मात्र से ही तुम ईश्वरत्व की प्राप्ति कर सकते हो।
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