तंत्र के आदि रचयिता भगवान शिव हैं और भगवान शिव को सम्पूर्ण देव माना गया है। तंत्र शास्त्र में छः प्रकार के कर्म का विशेष उल्लेख आता है। यह कर्म तांत्रोक्त षट्कर्म कहे जाते हैं।
इस सम्बन्ध में तंत्र शास्त्रों में जो ज्ञान है उसमें सबसे पहले यही उल्लेख आया है कि प्रत्येक जीवन के भीतर एक आकर्षण शक्ति है, प्रत्येक जीवन के भीतर एक वशीकरण शक्ति है। इसी आकर्षण शक्ति के आधार पर, वशीकरण शक्ति के आधार पर जीवात्माओं में स्त्री-पुरूष का संयोग होता है अर्थात् विपरीत रति के प्रति आकर्षण होना एक सामान्य घटना जान प्रतीत होती है जबकि यह क्रिया ईश्वर द्वारा प्रदत्त एक वरदान है।
पक्षियों में पशुओं में अर्थात् चींटी से लेकर हाथी तक सब में आपस में आकर्षण की क्रिया रहती हे। आखिर इसका क्या कारण है और किस प्रकार इसका ज्ञान होता है? यह तो सभी जानते हैं कि प्राणियों में पांच कर्मेन्द्रियां तथा पांच ज्ञानेन्द्रियां होती हैं और इनके द्वारा ही उसका जीवन चलता है। एक कल्पना करें कि यदि प्राणियों में स्पर्श, गंध, स्वाद, श्रवण, दृष्टि की शक्ति नहीं हो तो जीवन की क्या स्थिति हो जायेगी? जीवात्मा और पत्थर में कोई अन्तर ही नहीं रह जाता है।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि यह सृष्टि आपस में आकर्षण के द्वारा ही बंधी हुयी है और जब तक यह क्रिया रहती है तब तक ही जीव संसार में चलता रहता है। यह आकर्षण जो केवल स्वःजाति के प्रति अर्थात् एक पक्षी का एक पक्षी के प्रति, एक जानवर का जानवर के प्रति और एक मनुष्य का मनुष्य के प्रति ही सामान्य रूप से दिखाई देता है। लेकिन इसका क्षेत्र इससे अधिक विशाल है। सारे प्राणी एक-दूसरे के आकर्षण में बंधे हुये हैं और इन सब प्राणियों में मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी माना गया है। मनुष्य उस शक्ति से केवल अपनी ही विपरीत रति के अलावा अन्य प्रकार के जीवों को भी अपने वश में कर सकता है। यह वश में करने की क्रिया आकर्षण, सम्मोहन कहलाती है, वशीकरण कहलाती है।
यदि पूरे मनुष्य जीवन पर विचार किया जाये तो जीवन की मूल समस्या ही आकर्षण सम्मोहन ओर वशीकरण की है, जिसमें इस शक्ति का अभाव होता है, वह अपना जीवन सही रूप से नहीं चला पाता है और जिसमें यह शक्ति विशेष रूप से होती है, वे अपने जीवन को श्रेष्ठ रूप से जीते हैं। पशु, मनष्य और देवता में भी अन्तर आकर्षण सम्मोहन का ही है।
कभी विचार करें कि हम देवताओं की केवल चित्र-मूर्ति देखकर ही आकर्षित हो जाते हैं और अपने आप उन्हें नमन करने का मन करने लगता है क्योंकि उनमें एक आकर्षक सम्माहेन-क्षमता होती है। मनुष्यो में भी कुछ व्यक्ति जीवन में उच्च पद, उच्चस्थिति प्राप्त करते हैं और कुछ सामान्य रूप से जीवन जीते रहते हैं। इसके मूल में भी आकर्षण, सम्मोहन क्रिया ही है। ऋषि दत्तात्रेय को चौबीस अवतारों में माना गया है और उन्हें भगवान दत्तात्रेय कहा जाता है। उन्होंने अपने तंत्र सिद्धान्त में यही कहा कि मनुष्य को तांत्रिक षट्कर्मों का उचित उपयोग अवश्य करना चाहिये और यदि वह उचित उपयोग करता है तो वह मनुष्य क्या, देवता को भी अपने वश में कर लेता है। वह अपने जीवन में तीव्रता से उन्नति की ओर अग्रसर होता है।
यह कहा जा सकता है कि मनुष्य मृत्यु से अमृत्यु की ओर, वृद्धावस्था से युवावस्था की ओर, निस्तेज से तेज की ओर, अवनति से उन्नति की ओर अधोगति से उर्ध्वगति की ओर जाने लगता है। सामान्य रूप से जैसे नदी ऊपर से नीचे की ओर सरलता से बहती रहती है और वह समुद्र में जाकर अपना अस्तित्व खो देती है लेकिन इसी नदी, सरिता को नीचे से ऊपर की ओर ले जाना हो तो एक महती क्रिया सम्पन्न कर उसे उच्चता की ओर ले जा सकें? ये साधनात्मक क्रिया प्रत्येक व्यक्ति को सम्पन्न करना ही चाहिये, यह एक सामान्य क्रिया नहीं है अपितु जीवन को उच्चतम स्थिति में ले जाने की क्रिया है।
जीवन के किसी भी पक्ष के लिये दस महाविद्याये साधनायें तो सर्वोपरि हैं ही। परन्तु यदि बात सम्मोहन, वशीकरण, उच्चाट्न, विद्वेषण की हो तो महाविद्याओं में भगवती धूमावती का सहारा सबसे उपयुक्त है। क्योंकि भगवती धूमावती उग्र दैवीय शक्ति हैं। जो शत्रुओ का प्रचण्ड वेग के साथ भक्षण करती हैं। जब स्थिति अत्यन्त भयावह हो, तो धूमावती की साधना रामबाण सिद्ध होती है। इनका वार कभी खाली नहीं जाता।
यही नहीं इनके द्वारा दरिद्रता का भी नाश होता है और धूमावती अपने साधक को धन-धान्य, भौतिक सुख-सुविधा से परिपूर्ण करती हैं। धूमावती की मुख्य विशेषता यह है कि भूख-प्यास से व्याकुल उन्होंने उस पीड़ा को अनुभव किया था। एक प्रकार धनहीनता, अभाव भी मानव जीवन में सबसे बड़े शत्रु रूप में हैं। यही कारण है कि जब भी उनका कोई पुत्र उन्हें कारूण्य भाव से पुकारता है, तो वे उसके सभी शत्रु का हरण कर नवजीवन प्रदान करती हैं।
जीवन में अनेक रूप में शत्रु होते हैं। उन सभी से मुक्ति आवश्यक है, परन्तु यह आवश्यक नहीं कि प्रत्येक युद्ध में शस्त्र से विजय प्राप्त की जाये, व्यक्ति अपनी कार्यशैली, विशेष चेतना से व वशीकरण सम्मोहन से भी शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर सकता है। वैसे भी सांसारिक जीवन में अनेको-अनेक शत्रु हैं। ऐसे तो सम्पूर्ण जीवन ही सांसारिक युद्ध करते-करते ही निकल जायेगा।
इसलिये प्रत्येक साधक के लिये आवश्यक है कि वह सभी लोगो को अपनी आकर्षण शक्ति में बांध कर रखे, उन पर अपना आधिपत्य स्थापित करें, वह जीवन का कोई भी क्षेत्र क्यों ना हो, कहीं भी उसके हाथ निराशा अथवा असफलता ना आये और वह अपने लक्ष्य की पूर्ति की ओर अग्रसर रह सफलता अर्जित कर सके। सम्मोहन शक्ति से साधक समाज, परिवार, नौकरी-पेशा, व्यापार अथवा कहीं भी अपना कार्य सिद्ध कर सफल जीवन जी सकता है।
चन्द्र ग्रहण की तेजस्वी चेतना में सद्गुरुदेव सर्व शत्रु सम्मोहन धूम्र शक्ति युक्त चन्द्र ग्रहण दीक्षा प्रदान करेंगे। चन्द्र ग्रहण के श्रेष्ठतम अवसर पर इस श्रेष्ठतम दीक्षा को आत्मसात कर साधक-साधिका अक्षुण्ण रूप से सम्मोहन वशीकरण की चेतना से आपूरित रह सकेंगे और निज जीवन में आने वाले शत्रुओं को परास्त कर अभिवृद्धि, मान-सम्मान, प्रतिष्ठा में उच्चतम स्थान प्राप्त कर सकेंगे।
सांसारिक जीवन के महाभारत में आने वाले नित समस्याओं को आवश्यक नहीं कि युद्ध कर ही विजय प्राप्त किया जाये, साधक यदि विशिष्ट दैवीय शक्ति से आपूरित हो तो वह वशीकरण सम्मोहन की चेतना से भी अपने सभी शत्रुओं को समाप्त कर सुख-सम्पन्नता शांतिमय युक्त जीवन व्यतीत कर सकता है। यदि शत्रु ही व्यक्ति के सहायक बन जाये, उसके विकास में सहयोगी हो जाये, यदि हमारे विकास के गति को अवरूद्ध करने वाला ही ना हो तो जीवन निश्चय सफ़लता के उच्चतम स्थान पर स्थित होगा।
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