भारतीय संस्कृति में पति-पत्नी का सम्बन्ध काया एवं छाया की भांति है। जिस परिवार में पति की इच्छा पत्नी की इच्छा एवं पत्नी की इच्छा पति की इच्छा होती है, वह परिवार सर्व सुखमय होता है। वह परिवार समाज में सम्मानीय होता है। पति-पत्नी के बीच स्नेह-सम्मान, विचार-विनिमय, सहानुभूति सुखी दाम्पत्य के आधार हैं। पति-पत्नी एक-दूसरे के प्रतियोगी नहीं, बल्कि सहयोगी एवं पूरक हैं।
श्री रामचरितमानस के बाल काण्ड में महाराज मनु एवं महारानी शतरूपा का वर्णन है, जो आदर्श दाम्पत्य का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं-
दंपति धरम आचरण नीका।
अजहुं गाव श्रुति जिन्ह कै लीका।।
महाराज मनु द्वारा तपस्या हेतु वन गमन का निर्णय लेने पर महारानी शतरूपा ने भी राज महल के सुखों का परित्याग कर पति का अनुगमन किया। उनके तप के प्रभाव से साक्षात् नारायण प्रकट हुये ओर वर मांगने को कहा। नारायण के द्वारा वर मांगने की बात कहने पर महाराज मनु कहते हैं-
दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ।
चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ।।
जब प्रभु महारानी शतरूपा से कहते हैं कि देवि! महाराज ने तो अपने इच्छा अनुरूप वर मांग लिया, अब आप भी अपने इच्छा अनुकूल वर मांग लीजिये। इस पर शतरूपा कहती हैं
कि- जो बरू नाथ चतुर नृप मागा।
सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा।।
अर्थात् हे नाथ! बुद्धिमान राजा ने जो वर मांगा, वह मुझे बहुत ही प्रिय है। तात्पर्य यह है कि दोनों मन-वाणी और कर्म से से एक रूप हैं।
इसी प्रकार श्रीराम और सीता जी के आदर्श दाम्पत्य जीवन के माध्यम से भी शिक्षा मिलती है। साथ ही दाम्पत्य मतभेद के भयंकर दुष्परिणामों को भी चित्रित किया गया। महाराज दशरथ के निर्णय के विरूद्ध कैकेयी के द्वारा हठ करने पर श्रीराम, लक्ष्मण और सीता को वनवास के कष्ट उठाने पड़े और राजा दशरथ का तो प्राणान्त ही हो गया। अयोध्या अनाथ हो गया तथा स्वयं महारानी कैकेयी भी विधवा हो गयीं। इस तरह दाम्पत्य मतभेद से कैकेयी को कलंक ही लगा। साथ ही पुत्र भरत भी जीवन भर दुखी रहे और उनका पूरा परिवार बिखर गया।
आधुनिक युग में पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव भारतीय संस्कृति पर पड़ा है। फल स्वरूप पति और पत्नी की इच्छायें और विचार अलग-अलग हो गये हैं। इस प्रकार जब पति एवं पत्नी के विचार में मत भिन्नता होगी तो पारिवारिक जीवन की नींव कमजोर हो जायेगी। वर्तमान में लोग भौतिक सुख-सुविधाओं को अधिक प्रश्रय देते हैं और ये सुविधायें मृगतृष्णा की भांति कभी पूरी नहीं होती। पति-पत्नी का सम्बन्ध भौतिक सुखों पर आधारित हो गया है। रसना और वासना सम्बन्धी सुख करना मानो युग धर्म बन गया है। जिसके कारण परिवार में प्रेम, स्नेह, आत्मीयता, समर्पण भाव समाप्त सा हो गया है। पति- पत्नी का सम्बन्ध पवित्रता, श्रद्धा, विश्वास, सहयोग एवं सम्मान पर आधारित होता है, लेकिन वर्तमान में श्रद्धा, विश्वास एवं सम्मान के बदले स्वार्थ तथा अहंकार की भावना काम करने लगी है। जिसके कारण अधिकांश पारिवारिक जीवन विखण्डित होने लगे हैं।
भारतीय संस्कृति में विवाह को जन्म-जन्मान्तर का सम्बन्ध समझा जाता है और पति को परमेश्वर और पत्नी को घर की लक्ष्मी माना जाता है। इस परम्परा को स्थायी बनाने के लिये भारत में तीज एवं करवाचौथ जैसे अनेक व्रत- उपवासो की परम्परा गतिशील है। भारत में विवाह को एक संस्कार माना जाता है और विवाह का अर्थ है एक-दूसरे के प्रति समर्पण। इस संस्कृति में विवाह के बाद मैं का भावना का लोप हो जाता है एवं हम की भावना का उदय होता है।
आज कल बहुधा यह देखने में आता है कि पति को अपने कर्तव्य का ध्यान तो नहीं रहता, परंतु वह पत्नी को सीता और सावित्री के आदर्श पर सोलहों आने प्रतिष्ठित देखने की इच्छा रखता है। यह मनोवृत्ति न्याय संगत नहीं है। स्त्री हो अथवा पुरूष दोनों को अपने-अपने कर्तव्य का ज्ञान और उसके पालन का पूर्णतः ध्यान रहना चाहिये।
आज-कल वैवाहिक जीवन की बड़ी ही दयनीय स्थिति देखने को मिलती है, दिन-प्रतिदिन इसमें ह्रास होता ही प्रतीत होता है। अधिकतर वैवाहिक रिश्तों में तनाव की स्थिति देखने को मिलती है, पति-पत्नी दोंनो एक-दूसरे के विचारों को समझने के लिये तैयार ही नहीं होते। जबकि गृहस्थाश्रम रूपी रथ के पति एवं पत्नी दो पहिये हैं। इन दोनों पहियों पर ही यह रथ चलता है। जहां एक पहिये की खराबी से ही रथ की गति में अवरोध उत्पन्न हो जाता है। वहां यदि दोनो ही पहियें खराब हुये तो रथ का चलना ही कठिन हो जाता है।
वर्तमान में वैचारिक मतभेद बहुत अधिक हो गया है। जिसके कारण टकराहट की स्थिति बनी रहती है। कब कौन सी स्थिति आ जाये कुछ कहा नहीं जा सकता। ऐसे मे लोग वैवाहिक सम्बन्धों को मजबूरी समझकर घसीटते हैं। प्राचीन समय में ऐसा नहीं था, वैवाहिक सम्बन्ध अत्यन्त प्रगाढ़ व मधुर होते थे। क्योंकि उस समय पति-पत्नी अपनी मर्यादा में रहते थे, और एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान करते थे। उस समय पति के दीर्घायु जीवन व मधुरतम सम्बन्ध हेतु शास्त्रोक्त पूजन, व्रत, उपवास, विधि-विधान से साधना पति-पत्नी दोनो सम्पन्न करते थे, जिससे उनका गृहस्थ जीवन पूर्णतः श्रेष्ठ सुफल प्राप्त होता था।
आज भी कुछ परम्पराओं को निभाया जाता है, परन्तु वर्तमान में जो वातावरण है, उसके अनुरूप वे परम्परायें, व्रत, उपवास, आराधना केवल औपचारिकता- वश ही सम्पन्न करते हैं, साथ ही गृहस्थ जीवन को पूर्ण- रूपेण सुखमय, आनन्द युक्त बनाने हेतु अनेक उपाय किये जाते हैं, परन्तु वे कारगर साबित नहीं हो पाते हैं। ऐसे में गृहस्थ जीवन को सुख-सौभाग्य युक्त बनाने हेतु सावित्री सुहाग करवा शक्ति दीक्षा कार्तिकेय मास की करवा चतुर्थी के दिव्यतम अवसर पर सभी सुहागिनों को आत्मसात करना चाहिये। यह विशिष्टतम दीक्षा जहां एक ओर गृहस्थ जीवन के सभी सुखों आत्मिक प्रेम, सामंजस्य, एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान, अपनत्व की भावना, त्याग, सहनशीलता, धैर्य, सौम्यता प्रदान करता है, वहीं सावित्री शक्ति से आपूरित होने के कारण सुहाग की रक्षा भी होती है, अर्थात् जो साधिका इस दीक्षा को ग्रहण करती है, उसके पति को पूर्ण आयु प्राप्त होती है व संतान सुख में वृद्धि होती है, साथ ही किसी भी आकस्मिक घटना-दुर्घटना से उसकी रक्षा होती है।
इस दीक्षा के साथ ही सम्मोहन वशीकरण की चेतना से आपूरित शिव गौरी सुख सौभाग्य वृद्धि लॉकेट प्रदान किया जायेगा। जिसे करवा चतुर्थी पर तप रूप में उपवास करने वाली सुहागिन करवा पूजन के पश्चात् अपने पति के हाथों से लॉकेट गले में धारण कर लें, जिससे पति-पत्नी का आत्मिक सम्बन्ध अक्षुण्ण रूप से गतिशील रहे, मधुरतम प्रेम जीवन पर्यन्त जीवन्त जाग्रत रूप में बना रहे। साथ ही इस लॉकेट द्वारा पति अपनी पत्नी के सम्मोहन, आकर्षण, सौन्दर्य प्रेम से संतुष्ट होता है।
इस विशिष्टतम दीक्षा व लॉकेट को वर्तमान में जीवन की अनेक न्यूनताओं को समाप्त करने में सहायक है, अतः प्रत्येक स्त्री को इसे अवश्य ही धारण करना चाहिये। जिससे उनका गृहस्थ जीवन सौन्दर्य, आकर्षण, सम्मोहन, सौभाग्य युक्त सावित्री सुहाग शक्ति से आपूरित होकर परिवार में सुख-शान्ति प्रेममय वातावरण का निर्माण होता ही है।
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