यह तो याद रहे कि यह साधना मैं कर रहा हूं, लेकिन ये भी याद रहे कि कर किस लिये रहे हैं? कर इसलिये रहे हो ताकि सद्गुरु की कृपा मिल जाये और सद्गुरु की कृपा मिली तो जीवन में घटना घट जाती है। अतः तुम सब साधनाओं से, सेवा से, प्रयासों से, मेहनत से, प्रयत्नों से, उस कृपा को प्राप्त करो तो तुम्हें वरदान, प्रसाद, सिद्धियां हस्तगत हो सकती हैं। तुम दूसरों को देखकर विचार करते हो कि सद्गुरु ने उसे अधिक दिया मुझे कम दिया ऐसा नहीं है। तुम्हारे ये विचार थोथे हैं, क्योंकि जब वर्षा होती है, तो ऐसा नहीं है कि वह तुम्हारे ऊपर नहीं बरसेगी तथा तुम्हारे पास वाले के ऊपर ही बरसेगी। वह तुम्हारे पास वाले को ही भिगोयेगी तुम्हें नहीं। यह सब अगर होता भी है, तो तुम्हारी बुद्धि के कारण ही तुम स्वयं ही वर्षा की बूंदों से बचने के लिये छाता खोल लेते हो। इसी प्रकार जब सद्गुरु अपनी कृपा बरसाते हैं, तो तुममें से कुछ अपनी बुद्धि से स्वयं ही अपने लिये बाधायें खड़ी कर लेते हैं, कुछ सफल होते हैं, जो अपने घडे़ को शुद्ध तथा सीधा रखते हैं, कुछ हैं जो अपने घडे़ को उल्टा लिये बैठे हैं, तो वर्षा का जल कृपा का फल कहां एकत्र हो पायेगा और कुछ घड़ा भी सीधा लिये बैठे हैं, तो उसके छिद्रों पर (कमी पर) ध्यान नहीं देते और उनका जल भी एकत्र नहीं हो पाता सब रिस जाता है। कृपा बरसेगी भी आप स्वयं को अनुभव भी करोगे लेकिन उपयोग न कर सकोगे, क्योंकि भरते रहोगे और जब उपयोग करने का समय आयेगा तो खाली हाथ जो कुछ हाथ में आया है वह भी खो जाता है।
कुछ व्यक्ति ऐसे भी हैं कि घड़ा भी उल्टा नहीं है न ही छेद है, परन्तु भिन्न-भिन्न प्रकार बेकार की कामनायें, हजारों रोग, व्याधियां आदि से भरे हैं तथा अनेक जन्मों के कुसंस्कार से भरे हुये तथा मलीनता से युक्त हुये हैं। जब पहले से ही भरे हैं तो उनमें और क्या डाला जा सकता है। अतः वे भी वंचित रह जाते है कृपा से, क्योंकि जो पहले से भरा हुआ है, तो उसमें और कैसे डाल सकते हैं? और सभी का घड़ा अर्थात् ऐसा नहीं है, सब घडे़ पूरे भरे हुये हों कुछ आधे भरे हैं, उनमें डाला जा सकता है लेकिन उनमें डालना भी व्यर्थ सिद्ध होता है, क्योंकि वे आधे अधूरे गन्ध से भरे हुये हैं। जन्म-जन्म के संस्कार हावी होते है इस जन्म में भी। और अगर इस और भी ध्यान दें तो यदि किसी घडे़ में विष भरा रखा हो परन्तु अब वह खाली भी हो लेकिन यदि उसमें अब दूध अथवा जल डाले तो वह भी जहर बन जायेगा क्योंकि घडे की दीवारे जो जहर पी चुकी थी। वह घड़ा भी विषाक्त हो गया था। उस घडे से दूध या पानी बाहर नहीं आयेगा, विष ही बाहर निकलेगा जो मानवता के लिये घातक होगा।
इसीलिये सद्गुरु तुम्हारी आंतरिक सफाई पर शुद्धता पर अधिक ध्यान देता है, क्योंकि सभी एक सा भोजन ही ग्रहण करते हैं लेकिन सबकी भाव दशा भिन्न-भिन्न होती है, वह भाव दशा तुम्हारे अन्दर की अभिव्यक्ति है, यदि तुम अत्यधिक क्रोध करते हो तो तुम्हारे अन्दर क्रोध समाया हुआ है। तुम्हारे द्वारा लिया गया भोजन क्रोध बन कर बाहर निकलता है, किसी का लोभी का बन जाता है लोभ। तो किसी भक्त में भक्ति बन कर निकलता है तथा प्रेमी व्यक्ति में वहीं प्रेम रस बन जाता है, ज्ञानी में ज्ञान बन जाता है और कोई-कोई तो उसी भोजन से खूनी भी बन जाता है। सभी एक जैसी चीजें ही अन्दर लेते हैं, लेकिन अन्दर जाते ही बदलाव शुरू हो जाता है, जैसी हमारी भाव दशा होती है, वह ही बाहर निकलती है, घडे़ की दीवारे जहर सोख गई थी। उसमें अमृत डाला गया तो वह अमृत से भरा हुआ माना जाना चाहिये, लेकिन उससे बाहर निकलेगा तो वह विष ही होगा।
अतः यह प्रामाणिक नहीं है कि तुम्हारे अन्दर क्या प्रवेश करता है, प्रामाणिक वह होगा जो तुमसे बाहर निकलेगा। अन्दर तो सभी लोग शुद्ध आक्सीजन द्वारा ही श्वास ले रहे होते हैं लेकिन जब श्वास बाहर निकालते हैं तो किसी विरले में सुगन्ध भरी सुवास आती है, क्योंकि भीतर बदलाव की क्रिया होती रहती है।
और ऐसे तो भगवान शिव ही हैं, सद्गुरु ही है, जो जहर पीकर भी अमृत बाहर निकाल सकते हैं। और ईश्वर तो सभी के अंतः स्थल में विद्यमान है और वह तुम सबके भीतर भी जाता है लेकिन वह सभी रूपों में प्रकट होता है वह प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर उसी रूप में उसी स्वरूप में प्रकट होता है जैसा वह आंतरिक रूप से है।
आप सभी लोग साधना शिविरों में आते हैं, शिविर तीन दिन तक होता है, तो आपका प्रश्न होता है, मैं तीन-तीन दिन के लिये शिविर में रूक जाता हूँ क्या कुछ अपूर्व घटना, कुण्डलिनी जागरण आदि घट सकती है। मैं कहता हूँ कि हाँ घट सकती है, यदि आपकी तैयारी पहले से की गई हो, आप पहले भी अभ्यास करते रहे हो तो और ऐसा उनके साथ ही होता है, जो इस बात की प्रतीक्षा नहीं करते वे तो बस उत्सव मनाने आनन्द का स्वाद लेने, अपने सद्गुरु का दर्शन करने प्रेम वश अनजाने में ही पहुँच जाते हैं शिविरों में। और उनके तार ईश्वर से जुड जाते हैं वह उसकी झलक पा जाते हैं, झलक पा जाते हैं तो वह बार-बार उस झलक को पाने हेतु उस आनन्द को पाने के लिये सद्गुरु की तरफ, शिविरों की तरफ उनकी यात्रा होती है।
किसी भी साधना अनुष्ठान को कम से कम सवा लाख बार जप करने पर सिद्ध कहा जाता है और मनोकामना पूर्ण होने के अवसर प्राप्त होते हैं। ऐसा क्यों ऐसा इसीलिये कि तुम्हारी मांग, तुम्हारी प्रार्थना तुम्हारा मंत्र जप एक गलत मांग पर टिका होता है। एक बडी अच्छी पद है जो संत लोग सदैव से कहते रहे हैं।
राम नाम रटते रहो जब तक घट में प्रान ।
कबहूँ तो दीन दयाल के भनक पडेगी कान ।।
इसमे कहा गया है जब तक तुम्हारी श्वास है, तुम जीवित हो तब तक राम का नाम जपते रहो कभी ना कभी तो उस दीन दयाल ईश्वर को तुम्हारी आवाज सुनाई देगी, तब वह तुम्हारे पास आयेगा, तुम्हारा कल्याण करेगा, तो दीन दयाल इतना बहरा हो गया है जो तुम्हे आजीवन नाम स्मरण करते रहना होगा तब वह तुम्हारी सुन भी सकता है नहीं भी। नहीं ऐसा नहीं है वह बहरे नहीं है, वह तो तुम्हारी पहली आवाज, पहले स्मरण को ही सुन लेते हैं लेकिन तुम उनके स्मरण के साथ-साथ अपनी दस माँगे भी साथ में लगा देते हो। उसे याद करने का, उसके नाम स्मरण करने का तो सिर्फ बहाना है तुम्हे तो उससे अपने दस और कार्य निकलवाने हैं, तुम्हें अपना मुकदमा जीतना है, दुश्मन को मारना है, चुनाव में जीतना है, पुत्र प्राप्ति करनी है, धन को और अधिक बढ़ाना है, पत्नी की बीमारी को ठीक करनी है, एक सुन्दर पत्नी मिल जाये, इसके लिये प्रेमिका को वश में करना है, लाटरी का नम्बर लग जाये, पद पर प्रमोशन मिल जाये, एक अच्छा सा गाडी बंगला भी हो जाये इस प्रकार तुम दस माँगे अपनी जोड़ देते हो तो तुम्हे ईश्वर से, राम से प्रेम क्या हुआ? तुम तो अपनी मांगों से प्रेम कर रहे हो।
यदि तुम्हारी मांग जायज है और हृदय से की गई हो तो पहली बार में भी स्वीकार हो जाती है और तुम जीवन में देखते हो कि किसी भी यात्रा में वजन (बोझ) जितना कम होता है, यात्रा उतनी ज्यादा सुगम होती है। साधना मार्ग में जितनी मांगे, कामनायें कम होंगी उतना ही श्रेयस्कर होगा। यदि आकाश में उड़ना होता है, तो स्वयं को भार रहित करना होगा स्वयं के अन्दर से भूमि तत्व का लोप करना ही होगा तभी हम वायुगमन कर पायेंगे पर्वत पर चढ़ते हुये हम थकते जाते हैं, तो शिखर पर पहुँचते-पहुँचते हमारे वस्त्र भी हमें बडे़ भार अनुभव होते हैं। जब साधनायें करो तो भाव यही रहे कि, हे प्रभु! मेरा मन तो ऐसा ही है, मैं तो यूँ ही अनाप-शनाप मांग करता रहता हूँ, मुझे तो न भविष्य का पता है, न वर्तमान का। मेरे लिये क्या हितकर है? क्या नहीं मुझ अज्ञानी से भला ठीक माँग कैसे हो सकती है?
हे भगवन! मेरी मूर्खता पूर्ण मांगो पर ध्यान न देकर, आप जो भी करेंगे सर्वथा उत्तम ही करेंगे। आपने सदैव उत्तम ही किया है। यह अनुग्रह का भाव, कृतज्ञता का भाव रखें। तो तुम्हारी वार्ता को, तुम्हारी आवश्यकताओं को ईश्वर अवश्य सुनता है, जिस प्रकार तुम भी अपने पुत्र की अनेकों मांगो को ठुकराते रहते हो, जैसे यदि छोटा है, नया कार अथवा मोटर साईकिल चलाने के लिये कहे तो, आप उसे अनेक तरीके से समझाकर मनायेंगे और बच्चा तो कुछ भी मांग सकता है, बच्चा कुछ भी देखता है, तो वह उसे ही मांग करता है।
एक बार एक छोटा बच्चा पिता के साथ घर में खेल रहा था, उसने गेंद देखी तो पिता ने गेंद दे दी। उसने सामने रखी एक प्लास्टिक की बोतल देखी तो पिता ने वह भी दे दी, इसके पश्चात् गली में हाथी के आने का शोरगुल हुआ तो पिता ने सोचा चलो बच्चे हो हाथी को दिखा दूँ। वह उसे घर से बाहर लाया तथा दिखाया हाथी को वह हाथी को देख कर बडा प्रसन्न हुआ। तो वह हाथी पर बैठने की जिद्द करने लगा तो पिता ने महावत की सहायता से उसे कुछ देर के लिये हाथी पर भी बैठा दिया। अब वह उसे घर ले आये तो उस बच्चे ने तो घर में घुसते ही कोहराम मचा दिया, कि मुझे तो हाथी ही चाहिये। अब पिता मरता क्या ना करता तभी बाजार गया और एक खिलौना हाथी लाकर बच्चे को दिया तो बच्चा कुछ शान्त हुआ। परन्तु कुछ समय पश्चात् वह तो फिर रोने लगा, तो पिता ने पूछा बेटा अब क्या बात है? तो बच्चा कहता है कि ये हाथी मुझसे इस बोतल में नहीं घुस रहा है, तुम घुसाओ। अब पिता भी सिर पकड़ कर बैठ गया, इस प्रकार बच्चे कुछ भी मांग सकते हैं। उनकी मांग उनके भोलेपन की, उनकी नासमझ की मांग है, वे आसानी से मान भी जाते हैं और तुम्हारी मांगे भी इसी प्रकार की हैं, वह भी चालाकी भरी तथा स्वार्थवश की गयी मांगे हैं। मांगे तो बच्चों जैसी हैं, पर तुम्हारी धूर्तता व स्वार्थपन की तथा बच्चों की भोलेपन व नासमझी के कारण। तुम्हारी नाम स्मरण की गूंज, तुम्हारी आवाज, तुम्हारी ही मांगों के नीचे दबकर रह जाती हैं और वह उस दीनदयाल तक नहीं पहुंच पाती।
तुम्हारे विचार स्वयं के बारे में कुछ हैं तो दूसरे के बारे में सदैव विपरीत ही सोचते हो। तुम्हारा बेटा परीक्षा में अच्छे अंकों से पास हो जाता है, तो वह तो दिन रात पढ़कर पास हुआ है। तुम्हारा बेटा फेल हो जाता है, तो टीचर ही तुम्हारे बेटे से ईर्ष्या के कारण फेल करते हैं। दूसरे का बेटा पास होता है, तो नकल से हुआ होगा, वह कहाँ इतना पढ़ता था, सारा दिन तो खेलता रहता था। तुम्हारी नौकरी की परीक्षा में तुम पास नहीं हुये, दूसरा पास हो गया तो वह रिश्वत देकर पास हुआ होगा। ऐसे तुम विचार रखते हो। यह मनोदशा है तुम्हारी और जैसी जिसकी मनोदशा होगी, जैसा जिसका चित्त होगा उसके आधार पर ही उसकी मनोकामना पूर्णता पाती है। तुम्हें अपनी सोच को बदलना पड़ेगा, तो ही तुम्हारे तार ईश्वर से जुड़ पायेंगे। तुम देखते हो कि जिस चैनल की खबरे फिल्म इत्यादि तुम्हें देखनी होती हैं, उसी चैनल पर तुम रिमोट घुमाते हो, चैनल बदलता है, तभी तुम अपनी पसंद के प्रोग्राम देख पाते हो। अन्यथा अन्य प्रोग्राम में तुम अपना समय जाया करते रहते हो। जब ठीक प्रकार से चैनल सेट हो जाता है, तुम्हारा भटकना रूक जाता है।
इसी प्रकार तुम्हारी चित्त दशा भी, तुम्हारी भाव तरंगे भी जब ईश्वर की तरंगों से, तारों से जुड़ जाती हैं तो तुम्हारा भटकना रूक जाता है। तुम्हारा संबन्ध जुड़ जाता है। जप करते-करते, नाम स्मरण करते-करते तुम्हारा सम्बन्ध कभी न कभी ईश्वर से जुड़ ही जाता है। तुम्हें ज्यादा हल्ला मचाकर, चिल्लाकर अथवा दिखावा करके ईश्वर की प्रार्थना करना जरूरी नहीं है। तुम यही कार्य चुपचाप मौन रह कर भी कर सकते हो। किसी को न दिखा कर भी कर सकते हो, तो भी ईश्वर की कान में तुम्हारी भनक पड़ ही जायेगी। तुम कुछ भी स्तुति, मंत्र, आरती भी नहीं कर पाओगे तो भी ठीक है। वह तुम्हारी मौन अभिव्यक्ति भी सुन लेगा शब्दों का होना भी कोई जरूरी नहीं है। न ही किसी विशेष भाषा का होना आवश्यक है। वह सर्वज्ञ है, उससे कुछ भी छुपा नहीं है, बस तुम अपने आप को, स्वयं को बदलने के लिये तैयार हो जाओ। केवल उसके प्रति अनुग्रह से, कृतज्ञता के भाव से भरकर देखो, जो भी दिया है, उसी में तृप्त हो जाओ। कामनाओं के ढे़र पर मत बैठो वह नित्य नूतन रूप में बरसा ही रहा है, नित्य तुम्हें कुछ न कुछ नूतन, सुन्दर प्रदान करता ही रहता है। उसके द्वारा दिये प्रसाद को प्रेम से स्वीकार कर लो तो तुम्हारी मुक्ति तुम्हारा आनन्द भाव में जीना निश्चित है। और यह आनन्द भाव भी आता है, जब ईश्वर की कोई एक झलक, उस परम आनन्द का कोई क्षण, तुम्हारी अनुभूति बन जाता है। फिर तुम उस परम आनन्द को पाने के लिये उसी की याद में, विरह में जलते रहते हो। यही अवस्था ईश्वर के प्रति अनुराग विराग, नाराजगी (प्रेमभरी) अतुलनीय प्रेम आदि भावों में तुम खोये रहते हो।
यह उसी प्रकार होता है जैसे कोई व्यक्ति अब तक अपने जीवन भर नकली दूध, पानी मिला दूध बल्कि ये कहो कि दूध मिला पानी ही पीकर उसे दूध समझकर पीता रहा हो, आज-कल असली दूध मिलता ही कहां है। सब पानी मिलाकर अथवा सिथेटिक दूध का व्यापार ही है। और वह एक दिन गौशाला में पहुँच जाये तथा वहाँ पर असली दूध का स्वाद ले ले, चख ले तो वह समझ जायेगा कि मैं तो अब तक कुछ और ही पीता रहा हूँ, असली दूध तो यह है जो अब पिया है। उसे पता चल जाता है, असली और नकली का। फिर तो वह नकली को त्याग कर असली को पाने की कोशिश करेगा। अपनी पुर-जोर कोशिश करेगा कि वह असली ही पिये। इसी प्रकार जब तुम्हें ईश्वर की झलक मिल जाती है, तो उसे अपने पूर्व की जिन्दगी के पल व्यर्थ प्रतीत होते हैं, जिन्हे पहले वह सुख के पल माने बैठा था। वह उसे तुच्छ प्रतीत होने लगते हैं, क्योंकि अब उसके साथ शाश्वत का साथ है। इसलिये पुकार, नाम स्मरण, गुरु मंत्र जप करते ही चले जाना है, गुन-गुनाते ही रहना है, नृत्य युक्त होकर, अनुग्रहित होकर, कृतज्ञ होकर। कभी न कभी तो ताल-मेल बैठ ही जायेगी। तरंगों से तरंगे टकरा ही जायेगी, तार से तार मिल ही जायेंगे, कभी तो वह क्षण आयेगा ही, हमारी भाव दशा कभी तो उस स्तर पर पहुँचेंगी ही, जब हमारा संबन्ध उससे हो सकेगा। हजार-लाख बार किसी पत्थर को किसी निशाने पर फेंकते रहो तो कोई न कोई पत्थर उस निशाने पर बैठ ही जाता है, भले ही अंधेरे में मार रहे हो, लेकिन निशाने पर अवश्य ही बैठ जाता है। देर हो सकती है, लेकिन ऐसा नहीं कि निशानी चूकता ही रहे, तुम निशाना लगाते रहो, थक कर मत बैठो, धैर्य को मत छोडना, जल्दी मत करना, प्रतीक्षा करना, सिर्फ प्रतीक्षा ही मिलन होकर रहेगा।
शिविर में उसकी झलक तो पा सकते हो, लेकिन मिलन के लिये तुम्हें जुआरी बनना पड़ेगा। सब कुछ दाँव पर लगाना पडे़गा। तुम्हें बार-बार आना पडे़गा। तुम्हें दीवाना बनना पडे़गा। उस परवाने की भांति जो शमा को देखते ही उस पर आकर्षित होकर अपनी जान कुर्बान कर देता है, तुम्हें भी गुरु रूपी शमा को देख कर आकर्षित होना होगा। स्वयं को कुर्बान होने से भय मत खाना। जब तुम समाप्त होगे अर्थात् तुम्हारा अहंकार जब समाप्त होगा, तो गुरु तुम्हारे भीतर उतर सकेगा। फिर तुम, तुम नहीं रह जाओगे तुम स्वयं गुरु का स्वरूप होगे।
यह परवाने जैसी दीवानगी होती है, तो उन्हें कोई शिकायत नहीं उन्हें कोई जल्दी भी नहीं। वे जन्मों-जन्मों तक प्रतीक्षा करने वाले होते हैं, वे तो कहते हैं कि जैसा भी है ठीक है। जब अब ही इतना आनन्द मिल रहा है तो और क्या चाहिये? लेकिन ऐसे दिवाने को जल्दी हो जाता है, उन्हें तीन दिन की आवश्यकता भी नहीं होती उन्हें तो एक क्षण ही पर्याप्त है। यदि प्रतीक्षा गहन हो तो इसी क्षण हो सकता है।
यदि जल्दी अन्दर होगी तो और देर लग जायेगी, प्रतीक्षा करने में शीघ्र हो सकता है। और प्रत्येक व्यक्ति जन्म लेने के पश्चात् भ्रमित है, वह अपने मन में यह भ्रम पाले हुये है कि वह बडा विशिष्ट है, V.I.P है, उसके बिना यह जगत कैसे चलेगा? यदि मैं कल नहीं रहूंगा तो मेरे बिना यह कार्य, वह कार्य, कौन करेगा? लेकिन वास्तव में तो यह सब भ्रम ही है। तुमसे पहले भी ये जगत चल रहा था। यहाँ सभी कार्य उसी प्रकार से हो रहे थे और यदि तुम नहीं होगे तो भी सब कार्य उसी प्रकार से होते रहेंगे। किसी के आने-जाने से यह कुछ फर्क पड़ने वाला नहीं है। तुम हो तो भी ठीक है, तुम न हो तो भी ठीक है।
यदि कुछ प्रभाव पड़ता है, तो तब पड़ता है जब तुम्हारे साथ ईश्वर का साथ होना हो जाये। अन्यथा अकेले तो तुम बेकार ही सिद्ध होते हो। ईश्वर का, राम का साथ हो, उससे जुडे़ हो तो ही तुम्हारा होना सार्थक है, फिर तुम्हारे न होने से फर्क पड़ता है। जो तुम्हारे पास है, वह सब पूरे जगत में सभी के पास है, तुम्हारे पास देह है, तो तुमसे सुन्दर, ताकतवान, गठीली देह यहाँ और भी बहुत हैं। तुम्हारे पास धन है और तुम्हें उसका गर्व है, तो तुमसे धनी यहाँ अनेकों हैं। तुम दानी हो तो तुमसे अधिक दानी भी यहाँ मिल जायेंगे। तुम सोचते हो कि मेरे धन देने से ही यह संस्था चल रही है, तो और भी बडी संस्थायें अन्यों के धन देने पर चल रही हैं। हो सकता है, सुन्दर पत्नी का घमंड तुम्हें हो, जमीन-जायदाद, पुत्र-पौत्र आदि का हो कि ये मेरे पास ही है। तुम ये भ्रांति पाले हो जब कि तुम्हारे पास असली चीज नहीं है, तुम सोचते हो कि मेरे सम्बन्ध मंत्री से है, राजा से, लेकिन तुम्हारे ये सम्बन्ध किसी काम के नहीं हैं। तुम्हारा होना भी किसी काम का नहीं जब तक तुम राम से जुड़ न सको, राम से जुड़ो तो तुम्हारी विशिष्टता बढ़ जाती है। सद्गुरु से जुड़ो तो तुम V.I.P बन सकते हो और जो जन्म लेकर राम से जुड़ जाते हैं, उसके स्मरण से अपने को कभी खाली नहीं रखते, उन्हें ही हम संत कहते हैं, महात्मा कहते हैं, वर्ना और तो सब एक जैसे ही हैं, जो नहीं जुड़ पाते राम से, उसका स्मरण नहीं कर पाते है वह तो जैसे आये थे वैसे ही चले जाते हैं।
वे जीवन तो जीते हैं लेकिन उनका जीवन भी सार्थक नहीं कहलाया जा सकता है। वे पूरा जीवन भर उठा पटक में लगे रहते हैं। लेकिन फिर भी उन्हें कुछ हासिल नहीं होता कोई उत्सव, कोई लहर आनन्द की उन्हें भिगोती नहीं, वे चलते तो बहुत हैं लेकिन पहुंचते कहीं नहीं। क्योंकि ये जन्म हुआ है तो उसे पाने के लिये ही। ये देह मिली ही इसलिये है कि इसमें जो खजाना है अमृत का, उसे हम प्राप्त कर लें। फिर तो यह देह, देह नहीं रह कर एक अमूल्य देह बन जायेगी, वरना तो इस मनुष्य देह का कोई मूल्य नहीं मिलता। पशु तो मरकर भी बिक जाते हैं, हाथी मरता है तो उसकी शारीरिक वस्तुयें काम आ जाती हैं, लेकिन मानव देह तो किसी काम की नहीं रह पाती। इसलिये जीवन्त जाग्रत स्वरूप में उसका स्मरण करते रहो, परमात्मा, सद्गुरु से आत्मिक सम्बन्ध जोड़ने का प्रयास करो, यही मार्ग तुम्हारे कल्याण हेतु सर्वोत्तम है।
परम पूज्य सद्गुरुदेव
कैलाश चन्द्र श्रीमाली जी
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