वास्तव में लक्ष्मी जो सहस्त्र गुणों से युक्त होती है। उसकी आवश्यकता संन्यासी को गृहस्थ व्यक्ति से अधिक रहती है। गृहस्थ व्यक्ति तो केवल और केवल अपने लिये जीता है। उसका जीवन पशु जीवन से थोड़ा ही ऊपर होता है। इसके विपरीत संन्यासी जीवन साधनात्मक क्रिया को सम्पन्न करते हुए समाज और नियमों का पालन करते हुए अपने आपको उसी तरह सुरक्षित रखता है। जिस तरह एक कमल कीचड़ में उगते हुए भी अपने आप को कीचड़ से अलग रखता है और वह लक्ष्मी का पुष्पासन है। जिस पर लक्ष्मी विराजमान होती है।
वेदों में तो संन्यास का जो तात्पर्य है। वह कर्म संन्यासी के रूप में ही स्पष्ट किया गया है और सबसे बड़े संन्यासी योगेश्वर श्रीकृष्ण को माना गया है। आगे चलकर हम देखें तो शंकराचार्य ने इस परम्परा को सही रूप से निभाया और पूरे भारतवर्ष के आर्यावर्त के चारों कोनों में इतने विशाल धर्मपीठ द्वारका, जगन्नाथपुरी, बद्रीनाथ-केदारनाथ और रामेश्वरम् की स्थापना की। उनका संन्यस्त भाव कर्म संन्यास ही था।
संन्यास दिवस का सम्बन्ध भगवती श्री विद्या सर्वमंगला महालक्ष्मी से है, जो अष्ट स्वरूप है। जब तक जीवन में यह अष्ट स्वरूप सिद्ध नहीं होता तब तक उसका जीवन अधूरा ही रहता है और अधूरा व्यक्तित्व कभी भी श्रेष्ठ शिष्य, श्रेष्ठ गृहस्थ, श्रेष्ठ साधक, श्रेष्ठ योगी बन ही नहीं सकता है। श्रेष्ठ व्यक्तित्व बनने के लिये आवश्यक है कि उसके जीवन में भगवती श्री विद्या राजराजेश्वरी महालक्ष्मी अपने अष्ट स्वरूप के साथ प्रगट हो, उसमें समाहित हो जायें और वह अपने जीवन में सारे कार्यों को श्रेष्ठ रूप में सम्पन्न कर सकें। लक्ष्मी के ये आठ स्वरूप धन लक्ष्मी, भू-वसुधा लक्ष्मी, सरस्वती लक्ष्मी, प्रीति लक्ष्मी, कीर्ति लक्ष्मी, शांति लक्ष्मी, तुष्टि लक्ष्मी और पुष्टि लक्ष्मी है।
जब मनुष्य के जीवन में लक्ष्मी स्थापित होकर अपनी इन सहस्त्र क्रियाओं का प्रकाश फैलाती है, तो मनुष्य का जीवन जगमग हो जाता है तथा वह सिद्धि युक्त व्यक्तित्व कहलाता है। इसीलिये संन्यास दिवस सर्वमंगला महालक्ष्मी की इन आठ विशिष्ट शक्तियों, स्वरूपों की साधना का अवसर है सर्वश्रेष्ठ रूप में पूर्णिमा दिवस है इस दिवस पर लक्ष्मी से सम्बन्धित कोई साधना की जाएं तो वह सफल होती ही है। सभी तरह के सुख, वैभव, यश लक्ष्मी मंगलमय स्थितियां प्राप्ति होती है।
मनुष्य का जीवन निरंतर विरोधी परिस्थितियों के बीच स्थित है। इसे द्वन्द्व कहते हैं। ये अच्छे और बुरे, सुखद-दुखद, स्वीकृति-अस्वीकृति, प्रेम-घृणा इत्यादि के एक दूसरे के ठीक विपरीत होते हैं। इस तरह का द्वन्द्व मनुष्य के मन में निरंतर उत्पात, उत्तेजना, विक्षिप्तता तथा अस्थिरता का कारण बनते हैं। जिसके कारण मनुष्य के अन्दर की शांति और आनन्द समाप्त हो जाता है।
जीवन के इन द्वन्द्वों का ज्ञान केवल मनुष्य के मन में ही जागता है। विकास की हर अवस्था के साथ यह ज्ञान सूक्ष्म और व्यापक होता जाता है। जीने की अदम्य इच्छा और उसके लिए हर प्राणी द्वारा जारी कोशिश मनुष्य को मिली प्रकृति की ही विरासत है। लेकिन मनुष्य जीवन में आत्मा रथी, शरीर रथ, बुद्धि सारथी और मन लगाम है। विभिन्न इन्द्रियां घोड़े हैं, उपभोग के सभी विषय उसके रास्ते है, इन्द्रियों और मन से युक्त आत्मा उसका भोत्तफ़ा।
संन्यासी उसे कहा जा सकता है, जो इस जीवन रूपी समर भूमि में अपने हाथ में लगाम रखें अपने मन पर बुद्धि का नियंत्रण रखें और योगी धर्म की अपेक्षा गृहस्थ का धर्म निभाना बहुत कठिन है। हर मनुष्य की आत्मा शरीर के बंधन में बंधी पड़ी मालूम होती है, और इसी आत्म सुख की प्राप्ति के लिए यह आत्मा चाहती है कि इसी शरीर में रहकर तरल और विशाल बन जाएं। जीवन के प्रति आशक्ति वास्तव में आत्म आशक्ति है। घर परिवार, नौकरी, व्यवसाय यह सारे कर्म मनुष्य आत्म सुख के लिए ही करता है और जो आत्म सुख प्राप्त करने की विद्या जानता है, वही संन्यासी है।
जब संन्यास का भाव जाग्रत होता है तो वह अपने प्रत्येक कर्म को अपने तंत्र को अलग रूप से देखने लगता है तब उसमें और संन्यासी में अंतर मिट जाता है। वह जीवन को अच्छी तरह से जीता है और उसे अपने लक्ष्य का हर समय ध्यान रहता है। वह जान जाता है कि वह कर्त्ता का, ईश्वर का एक अंश है, वह एक निमित्त रूप में इस संसार में आकर कर्त्ता का कार्य कर रहा है। तब उसे किसी भी प्रकार का दुःख सताता नहीं है। गृहस्थ व्यक्ति को देह की चिन्ता ज्यादा सताती है और देह की चिन्ता को वह मन की चिन्ता बना लेता है और एक चिन्ता दूसरी चिन्ता को उत्पन्न करती है। जबकि संसार का कार्य संन्यस्त भाव से किया जाए तो चिन्ता की उत्पत्ति ही नहीं होती है।
संन्यास कर्म से भागना नहीं सिखाता है, कर्म को सही ढंग से करने का तरीका सिखाता है और जब इस प्रकार से मानसिक रूप से वह संन्यासी बन जाता है तो उसे सत्य प्राप्त होता है, उसे ज्ञान प्राप्त होता है वह अपनी शक्ति का विकास कर्म के द्वारा करता है, क्योंकि कर्म केवल शारीरिक संरचना की प्रक्रिया नहीं है। कर्म मानसिक और भावनात्मक शक्ति को प्रखर करने का माध्यम है। जहां-जहां भी व्यक्ति क्रिया करता है वहीं यह शक्ति क्रिया करती है। कर्म के साथ-साथ उसकी चेतना भी कार्य करती है। संन्यास भाव में शारीरिक श्रम और आध्यात्मिक प्रयास दोनों ही समान रूप से किया जाता है, इसीलिए श्रेष्ठ व्यक्ति को राज योगी कहा जा सकता है।
इच्छा करना, कामना करना, महत्वाकांक्षा यह सब मनुष्य को कर्म के लिए प्रेरित करते हैं। इसलिए कर्मयोग, भक्ति योग और ज्ञान योग का अभ्यास निरंतर करना चाहिए और जो व्यक्ति अपने मन के तीन विकारों अशुद्धता, अज्ञान और मोह पर विजय प्राप्त करने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहता है, वही तो वास्तव में संन्यासी है, वही जीवन में पूर्ण सत्य की प्राप्ति कर सकता है। हर समय जीवन में संन्यास भाव बना रहे और संन्यास के रूप में जीवन को देखा जाए तो जीवन के दुःख अवश्य ही दूर हो जाते हैं। संन्यस्त भाव ही जीवन का श्रेष्ठतम भाव है। यही जीवन के पूर्ण आनन्द का भाव है।
संन्यासी तो जीवन का जाग्रत कर्मयोगी होता है, वह भाग्य को प्रधानता न देते हुए गीता के कर्म सिद्धान्त पर विश्वास करता है। इसीलिये वह अपने गुरु से प्राप्त ज्ञान को अपनी उन्नति में लगाता है। आज देश में श्रेष्ठ गुरु आश्रम और धर्म के प्रति विशेष जुड़ाव की जो लहर चल रही है। वह प्रत्येक गृहस्थ को कर्म की ओर प्रवृत्त करती है। संन्यास और गृहस्थ तो एक ही जीवन के दो पक्ष है। गृहस्थ में रहते हुए भी मानसिक, संन्यास द्वारा अपने कार्य में तीव्र प्रगति की जाती है और यही सिद्धान्त को आधार रूप रखते हुए सम्पन्न होता है।
महामाया की तपोभूमि पर अष्ट लक्ष्मी संन्यास महोत्सव कार्त्तिक पूर्णिमा के दिव्यतम दिवस पर सर्वमंगला महामाया संन्यास शक्ति महोत्सव कोरबा (छ-ग-) में 2-3-4 नवम्बर को सम्पन्न होगा। तीन दिवसीय महोत्सव साधक जीवन के लिये आवश्यक अष्ट लक्ष्मी स्वरूपों में धन लक्ष्मी, भू-वसुधा लक्ष्मी, सरस्वती लक्ष्मी, प्रीति लक्ष्मी, कीर्ति लक्ष्मी, शांति लक्ष्मी, तुष्टि लक्ष्मी और पुष्टि लक्ष्मी की साधनात्मक चैतन्य क्रियायें परम पूज्य सद्गुरुदेव के दिव्य सानिध्य में सम्पन्न होंगी।
साथ ही कार्तिक पूर्णिमा की प्रातः बेला में तेजोमय चेतना युक्त सर्वमंगला महामाया लक्ष्मी संन्यास शक्ति दीक्षा प्रदान की जायेगी। जिससे साधक अपने जीवन को संन्यस्त शक्ति के मूल कर्म योग को अपने जीवन में धारण कर लक्ष्मी के अष्ट स्वरूपों को पूर्णता से आत्मसात कर सकेगा।
संन्यास शक्ति के इन्हीं मूल तत्वों को आत्मसात करने की क्रिया शास्त्रों में निहित है, जो चिंतन स्वरूप में आत्मसात कर प्रत्येक गृहस्थ साधक संन्यास शक्ति कर्म को धारण कर अपने जीवन को शीतलता, शांति, प्रेम, आनन्द, धवलता, नम्रता, शौर्य, ज्ञान लक्ष्मी, धन लक्ष्मी और वृद्धि लक्ष्मी से आपूरित हो सकेगा।
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