ठीक उसी समय कर्ण भी मैदान में पहुँच जाता है और अर्जुन को तीरंदाजी में चुनौती देते हुये कहता है कि ‘हे पार्थ, यह मत सोचो कि इस धरा पर तुमसे बढ़कर कोई तीरंदाज नहीं है, तुम इस बात पर जरा भी घमण्ड मत करना। मैं तुमसे कहीं बढ़कर अपनी महारत प्रदर्शित करूँगा।’ इतना कह कर कर्ण ने अपनी कला का प्रदर्शन करना आरंभ किया।
उसने सबसे पहले परजन्य (वर्षा सम्बन्धी) अस्त्र से आकाश में तीर चलाकर वर्षा ला दी, उसके बाद वायव्य (वायु सम्बन्धी) अस्त्र से उस वर्षा की दिशा नापी। फिर अग्नेय अस्त्र द्वारा अग्नि का आहवान किया और वरूण अस्त्र से उसे बुझा दिया। उसके बाद उसने एक तेज गति से घूमने वाले धातु से बने जंगली सुअर में एक साथ पाँच तीर के निशाने लगाये। कर्ण ने अन्तरधन अस्त्र (भ्रम सम्बन्धित) के प्रयोग से स्वयं को अदृश्य कर दूसरी जगह से प्रवेश कर वहां प्रस्तुत सभी को चकित कर दिया। इसके बाद कर्ण ने गदा ली और उसे विभिन्न तरीकों से चलाना बताया। सभी ओर कौलाहल मच गया, सभी ओर कर्ण की कला व पराक्रम की चर्चा हो रही थी।
कर्ण के कुछ और प्रदर्शन करने से पहले ही दुर्योधन अपने स्थान से उठकर मैदान की ओर आया और कर्ण की प्रशंसा करने लगा। दुर्योधन ने कर्ण को अपनी कोई इच्छा प्रकट करने को कहा जिसे वह पूरा कर सके। उत्तर में कर्ण ने कहा ‘महाराज, मुझे कुछ नहीं चाहिये। आपकी मित्रता व अर्जुन से तीरंदाजी का मुकाबला, बस यही दो मेरी कामना है’ यह सुन दुर्योधन ने सहर्ष कर्ण से अपनी मित्रता स्वीकारी और उसे अपनी बराबरी का स्थान भी दिया।
यह सब देख अर्जुन जो समीप ही खड़ा यह सब सुन रहा था, उत्तेजित होकर कर्ण से बोला कि तुम्हें किसी ने भी यहाँ आमंत्रित नहीं किया फिर भी तुम यहाँ आ गये और इतना कुछ बोल गये, मैं तुम्हारा यहीं वध कर दूँगा, तैयार हो जाओ! कर्ण भी भड़क कर बोला कि यह एक सार्वजनिक भूमि है, जिसे भी तीरंदाजी आती है। वे इस मैदान में आकर अपनी कला का प्रदर्शन कर सकते हैं। आओ मैं अपने तीर से तुम्हारा यहीं वध कर देता हूँ।
इतने में कृपाचार्य जिन्हें युद्ध के नियमों का ज्ञान था, मैदान में आते हैं और कर्ण को कहते हैं कि अर्जुन एक राजकुमार हैं। जिसके समक्ष युद्ध करने वाला भी सभी तरह से उसके बराबर का होना आवश्यक है। तुम किसके पुत्र हो? तुम्हारी जाति क्या है, किस वर्ग से तुम सम्बन्ध रखते हो? तुम किनके शिष्य हो? यह सभी बाते सभा में घोषित करो, इसके बाद ही तुम राजकुमार अर्जुन के साथ युद्ध कर सकोगे!
कर्ण ने शर्म से अपना सिर झुका लिया क्योंकि उसके अनुसार वह एक सूत पुत्र था, जिसे समाज निम्न वर्ग मानता था, वह स्वयं को लज्जित महसूस करता है। वह सोचता है कि क्या साहस व बल का कोई मोल नहीं? पर इसके आगे मैं कुछ नहीं कर सकता।
कर्ण को इस स्थिति में देख कृपाचार्य पर दुर्योधन क्रोधित होता है और उसी समय कर्ण को अंग प्रदेश का राजा घोषित कर देता है। प्रजा भी समर्थन में सहर्ष आहवान करती है। कर्ण, दुर्योधन की इस कृतज्ञता से अभिभूत हो जाता है। दुर्योधन कहता है कि क्षत्रिय के लिये वीरता महत्वपूर्ण होती है न कि उसकी जाति-धर्म। यदि किसी को भी कर्ण के राजपद संभालने से आपत्ति है तो आये, युद्ध करे और जीत के दिखाये! सभा समाप्ति के साथ सभी दर्शक कर्ण की कौशलता व वीरता की प्रशंसा करते हुये अपने-अपने गंतव्य पर प्रस्थान करते है।
कर्ण और दुर्योधन की मित्रता दिन-प्रतिदिन गहरी होती गई। जब सभी ने कर्ण के नीची जाति का होने के कारण अपमानित किया था, उस समय केवल दुर्योधन ने उसे बराबरी का दर्जा दिया था, इसलिये कर्ण के हृदय में दुर्योधन से पाण्डवों के ज्यादा शक्तिशाली होने के कारण चिंतित होता, तब कर्ण उसे उसकी जीत के लिये आश्वस्त करता है, दुर्योधन को भी अपने परम मित्र पर सम्पूर्ण विश्वास था। कि कर्ण के होते हुये कोई उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता।
कौरवों व पाण्डवों ने साम्राज्य के लिये युद्ध करने का निर्णय ले लिया था। कृष्ण इस युद्ध को रोकने के लिये व शांति के लिये दुर्योधन (जो कौरवों में सबसे ज्येष्ठ था) के पास गये, परन्तु उसने कृष्ण की एक न सुनी। इसके बाद श्री कृष्ण कर्ण के पास गये और उसे बताया कि वह अधीरथ का नहीं कुन्ती-पुत्र है, जो सूर्यदेव की कृपा से उत्पन्न हुआ था, समाज के डर से कुन्ती ने उसे नदी में प्रवाहित कर दिया था।
कृष्ण ने कर्ण को बताया कि वह सूत-पुत्र नहीं क्षत्रिय हैं, व पाण्डवों में और कौरवों में ज्येष्ठ है। इसीलिये वही कौरव साम्राज्य का शासक बनेगा। पाण्डव भी यह जानकर प्रसन्न होंगे और दुर्योधन भी तुम्हें शासक के रूप में स्वीकार कर लेगा। फिर कोई युद्ध नहीं होगा, हजारों लोगों के प्राण बच जायेंगे। कर्ण! तुमने बहुत दुःख भोग लिये हैं, अब राजा के रूप में कौरवों, पाण्डवों व प्रजा सभी से सम्मान प्राप्त करने का समय है। कब तक तुम दुर्योधन की दया पर निर्भर रहोगे! ऐसा कृष्ण ने कहा।
कृष्ण की बात सुनकर कर्ण को आश्चर्य, प्रसन्नता के साथ-साथ स्वयं के भाग्य पर दुःख भी हुआ, उसने भारी स्वर में कृष्ण से कहा कि, आपके अनुसार कुन्ती मेरी माँ है जिन्होंने मुझे जन्म दिया, परन्तु मेरे संसार में आते ही उन्होंने मेरा त्याग कर दिया। जबकि मेरे पिता अधीरथ व माँ राधा ने स्वयं के पुत्र से ज्यादा मुझे प्रेम दिया, मुझे पाल-पोसकर बड़ा किया व मेरा विवाह भी किया, मैं कैसे अपने माता-पिता को छोड़ दूँ, जिन्होंने अपना सर्वस्व मुझ पर लुटा दिया। जहाँ तक बात है, दुर्योधन की, हमारा शरीर अलग है, परन्तु आत्मा एक ही है। जब सारा संसार मेरा उपहास कर रहा था, तब उसने मुझे सम्मान दिया। वह मुझे जानता नहीं था, फिर भी अपना राज्य मुझे दे दिया। मैं उसका यह कर्ज कैसे चुकाऊँ?
पाण्डवों के विरूद्ध युद्ध दुर्योधन ने मेरे भरोसे पर किया है और क्या अब यदि मैं पाण्डवों से मिल गया तो यह मेरे मित्र के साथ विश्वासघात नहीं होगा? नहीं कृष्ण! दुर्योधन ही मेरे लिये सब कुछ हैं। मैं उसके साथ पाण्डवों के विरूद्ध युद्ध लडूँगा। हम विजयी रहें तब ही मुझे संतुष्टि होगी कि मैने अपने स्वामी का कार्य सम्पूर्ण किया, और यदि मैं युद्ध में मारा भी गया तब भी मुझे स्वयं पर गर्व होगा।
यह सब सुनकर कृष्ण के हृदय में कर्ण के प्रति सम्मान बढ़ गया, वे सोचने लगे कि कर्ण निष्ठा व स्वामी भक्ति का साक्षात उदाहरण स्वरूप है। परन्तु अपनी भावनायें कर्ण के समक्ष प्रकट न करते हुये वे चले गये। कर्ण की निष्ठा, मित्रता व पराक्रम का विवेचन अगले अंक में—–!
अक्टूबर माह (कार्तिक मास) पूर्ण रूपेण गृहस्थ शक्ति लक्ष्मी मास होता है, अतः इसका प्रत्येक दिवस हर तरह की सुलक्ष्मियों को आत्मसात करने का मुहूर्त है, इसीलिये इस कार्तिक मास में परिवार के प्रत्येक सदस्य को लघु स्वरूप में मंत्र जाप, साधना व दीक्षा अवश्य ही ग्रहण करना चाहिये, जिससे आने वाला नूतन वर्ष सुसंस्कारों व सुमंगलमय निर्मित हो सके।
निधि श्रीमाली
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