जनक स्वयं को महासागर के रूप में अभिव्यक्त कर रहे हैं। जिस प्रकार महासागर में सभी ओर जल ही जल है, उसी प्रकार जो भी दिखता है, वह मेरा ही स्वरूप है। तो फिर तरंगादि? ये तो चलती वायु की प्रतिक्रियायें मात्र हैं। खेल-सा करती हैं ये। अभी तक जिसे सच मानकर दुख-सुख आदि से पीडि़त होता था, अब दिखाई दे रहा है कि सब तो एक खेलमात्र है, खेल में तो आनन्द और प्रसन्नता ही होती है, वहां क्लेश कैसा। जनक अब प्रकृति की समस्त क्रियाओं उत्पत्ति, स्थिति और लय आदि को, एक साक्षी के रूप में देख रहे हैं।
तृतीय अध्याय
तू धीर है। धीर का अर्थ है जो अपनी बुद्धि को नियंत्रित कर सके बुद्धि अर्थात् अन्तः करण की निश्चयात्मिका वृत्ति। धीर वह है, जो अपने निश्चयों में किसी भी प्रकार के बाह्य आकर्षणों से प्रभावित नहीं होता। श्री कृष्ण ने उसे धीर कहा, जिसे सुख की इच्छा नहीं और जिसे दुख व्यथित नहीं करते। भर्तृहरि कहते हैं कि धीर व्यक्ति सत्य के मार्ग से कभी विचलित नहीं होता, भले ही उसे मृत्यु का ग्रास क्यों न बनना पड़े। वह निर्भीक होता है।
उसके लिये सत्य ही श्रेष्ठ है। वही उसके लिये वरण करने योग्य होता है। जबकि महाकवि कालिदास ने धीर शब्द की परिभाषा अपने ग्रन्थ ‘कुमार संभव’ में की-जो विकारों के कारण उपस्थित होने पर भी विकारों को प्राप्त नहीं होता। अष्टावक्र ने पूछा, तुमने आत्मस्वरूप की उपलब्धि कर ली है, फिर भी तेरी धन के अर्जन में रूचि तो नहीं। तुझे धन को इकट्ठा करने में रस तो प्राप्त नहीं होता। धन को इकट्ठा कर कहीं गहरे में संतोष का अनुभव तो नहीं होता। अष्टावक्र सावधान करना चाहते हैं जनक को-यदि ऐसा है तो तू कही-सुनी और पढ़ी कह रहा है। तुझे हलकी-सी झलक भर मिली है उस आनन्द की। तूने अभी उसका तत्वतः अनुभव नहीं किया।
अष्टावक्र ने पहला सवाल धन के बारे में इसलिये पूछा क्योंकि वे जानते हैं कि धन में रस उसे ही मिलता है, जो आत्मा के प्रति सचेत नहीं। क्षणिक को पाकर, जो संतुष्ट हो रहा है, वह स्थायी व अनश्वर की यात्रा क्यों करना चाहेगा। लोग धन को इकट्ठा करने की दौड़ में लगे हैं, इसका कारण यह है कि वे क्षणिक सुखों से संतुष्ट हैं। और ऐसी मानसिकता के लोग आत्मा से, आनन्द से दूर ही होते जाते हैं। इस प्रश्न द्वारा अष्टावक्र शिष्य को एक बार फिर से आत्म अवलोकन करने को कहते हैं।
व्यवहार और ज्ञान में विरोध संभव नहीं, इस प्रकार की चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं। भय आदि लक्षणों से मुक्त हुआ व्यक्ति यह कहे कि वह सामने पड़ी रस्सी को रस्सी रूप में देख रहा है, यह समझ नहीं आता। रस्सी यदि रस्सी रूप में दिखाई दे रही है तो वहां सर्प दिखने के फलस्वरूप पैदा होने वाले लक्षण सहज रूप में समाप्त हो जाते हैं।
जानाति, इच्छति, यतते अर्थात् जानता है, इच्छा करता है और फिर प्रयत्न करता है, यह मनोवैज्ञानिक सिद्धांत है। कार्यों से जानकारी का अंदाजा लगता है। इसलिये जानने और करने में भेद समझ से बाहर है। इसी उपरोक्त सिद्धान्त के संदर्भ में महर्षि प्रश्न करते हैं। जैसे रस्सी में सर्प की भ्रांति है, वैसी ही भ्रांति सीप में चांदी की है। यह जानने के बाद कि ‘चांदी नहीं सीप है’ सीप की सार्थकता नष्ट हो जाती है। ऐसा जानने वाला सीप का लोभ क्यों करेगा। लोभ तो उसका होता है जो सार्थक हो। जब विषयों की सार्थकता समाप्त हो गयी, जब यह ज्ञान हो गया कि वे लक्ष्य से विमुख करने वाले हैं, तो उसे पाने की इच्छा क्यों होगी। यदि ऐसा होता है, इसका सीधा अर्थ है कि विषयों की सार्थकता अभी सूक्ष्म रूप में बनी हुई है। आत्मवेत्ता क्योंकि संसार के स्वरूपों को उसके स्वभाव रूप में जान जाता है, उसे संसार की निरर्थकता के साथ उसकी भी अनुभूति हो गयी होती है जो सबसे अर्थवान् है, इसीलिये उसकी विषयों में प्रवृत्ति का, उनको ज्यादा से ज्यादा एकत्रित करने का अर्थ ही नहीं होता।
महर्षि अष्टावक्र जनक से पूछते हैं, तू जिस अनुभव की चर्चा कर रहा है, वह अपनी अर्थवत्ता खो देता है, यदि तेरा विषयों में राग बना है। यदि तेरा धन के प्रति मोह बना है तो-
दीन वह है जिसमें कामनायें हैं, उन्हें पाने के लिये जिसने प्रयत्न किया है, लेकिन उन्हें प्राप्त नहीं कर सका है। इतना ही नहीं, उसमें यह बात भी घर कर गयी है कि अब वह स्वयं उन्हें प्राप्त नहीं कर सकता। स्वयं से विश्वास उठ जाने के बाद अब वह इधर-उधर लोगों के पास जाता है, देवी-देवताओं के पास जाता है। वह उन सबके पास जाता है और गिड़गिड़ाता है, जिन्हें वह समझता है कि उनसे उसकी कामनायें पूरी हो जायेंगी।
गलती पर गलती कर रहा है वह। पहली गलती तो यह है कि विषय उसकी कामनाओं को पूरा करेंगे, दूसरी यह है, कोई उसे विषयों को प्राप्त करवायेगा। एक दूसरे के मिलने से आनंद का भ्रम और दूसरे यह कि वह दूसरा उस कार्य में सहायक हो सकेगा। न तो विषय सुख के कारण हैं और न ही कोई किसी को सुख दे सकता है। अगर ऐसा होता तो इस दुनिया में सभी सुखी होते। पर ऐसा है नहीं।
यह कैसे संभव है कि जो संसार का अधिष्ठान रूप स्वयं को जान गया है वह दीन बना इधर-उधर भागे। यह भागना बिल्कुल उसी प्रकार की भ्रान्ति का परिणाम है, जैसा कि रेगिस्तान में मृग को होती है। वह जगह-जगह यही मानकर भटकता है कि पहला भ्रम था, लेकिन इस बार ऐसा नहीं हो सकता। इस बार गलत नहीं हो सकती उसकी आंखें। लेकिन फिर गलती होती है। झूठ को सच मान रहा है, इससे बड़ी गलती और क्या हो सकती है। लेकिन जब कोई बताता है, और उसे विश्वास हो जाता है कि रेगिस्तान में कितना भी दौड़े, कितना भी भटके पानी नहीं मिल सकता उसे वहां। तब वह क्यों दर-दर भटकेगा। तो जनक, झांको भीतर, दीनता तो नहीं है मन में। भटकाव खत्म हुआ है या नहीं, क्योंकि ‘वह मैं हूं’ हम सोऽहम् इस ज्ञान के बाद भटकाव व दीनता समाप्त हो जाती है।
इससे पहले महर्षि ने अनुभव और व्यवहार के परस्पर विरोध की ओर संकेत किया है कि ऐसा है तो नहीं। क्योंकि ऐसा नहीं। ऐसा होना नहीं चाहिये। लेकिन इस बार महर्षि ‘श्रुत्वाऽपि’ कहते हैं, अर्थात् सुनकर भी। सीधा-सादा अर्थ तो इस शब्द का यही है। लेकिन पहले श्रवण, मनन, निदिध्यासन के संदर्भ में दो शास्त्रीय मतों की चर्चा हम कर चुके हैं। हमने पढ़ा भी है कि जिज्ञासु शिष्य को गुरु ने उपदेश दिया, और शिष्य को श्रवण मात्र से आत्म तत्व ज्ञान हो गया। श्रवण ही साधन बना। यहां श्रवण का परिणाम आत्मज्ञान नहीं, ऐसी भी धारणा हैं सुनने के परिणाम को तब माना जाता, जब सुनने के बाद ज्ञान होता। असल में श्रवण के क्षण ही स्वरूपोलब्धि हो गयी। इसीलिये ‘श्रुत्वापि’ का अर्थ अनुभव के अर्थ में यहां लिया गया है।
इस उपरोक्त सिद्धान्त की व्याख्या कुछ इस तरह भी की जा सकती है- मनन, विदिध्यासन तो तब हो, जब गुरुवाक्यों के प्रति अनिश्चय हो। श्रद्धा में अनिश्चय का क्या काम- सत्य गुरुवेद वाक्य है, श्रद्धा अस विश्वास सुना और स्मृति जागृत हो गयी। और जब सौन्दर्य का असली स्वरूप अनुभूति में आ गया तो कलुषता कुरूपता के प्रति आकर्षित कौन होगा?
संसार में एक जीव की दूसरे जीव के संबंधों की दो स्पष्ट स्थितियां हैं, एक हैं मेरे पन की और दूसरी ‘मेरा नहीं’ यह। मेरापन स्वार्थपरक है। मेरा वो है, जिससे मेरा हित जुड़ा है। और दूसरी स्थिति में अमुक मेरा नहीं है क्योंकि उससे मेरा हित बाधित होता हैं हित ही सध रहा, इसलिये वो मेरा नहीं है। मेरा उससे कोई लेना-देना नहीं है। इसलिये भी हो सकता है कोई आपका न हो। आपके मेरेपन की परिधि में न आये। जिससे आपका कुछ सधता नहीं इसे आप जानते हैं। आपकी हाय-हैलो है इससे! दूर का रिश्ता है इससे आपका। रिश्ता तो है पर नाम मात्र का। आमतौर पर इन प्रत्यक्ष से दिखने वाले रिश्तों के इर्द-गिर्द ही सारे जीवन हम घूमते रहते हैं। इन दोनों से अलग भी हमारे रिश्ते होते हैं अप्रत्यक्ष। उनके बारे में हम जानते नहीं। पर इससे क्या फर्क पड़ता है। प्रकृति के कई रूप ऐसे हैं जिनसे हमारा कुछ इस तरह का रिश्ता है। हम उसे नकारते हैं और नुकसान करते हैं।
वृक्षों से हमारा क्या रिश्ता है, पर्वतों से हमारा क्या लेना-देना है, नदियां पानी देती हैं, बस इतना ही प्रत्यक्ष रिश्ता है हमारा इनसे। अष्टावक्र पूछते हैं कि क्यों है ऐसा कि रिश्तों की गहराई को जानने वाला भी कि सबमें मैं हूं, सब मुझमें हैं, मेरे पन का अपना अलग ही दायरा बना लेता है। महर्षि को यह हैरानगी वाली बात लगती है कि एक मननशील व्यक्ति भी ‘मुझमें सब सबमें मैं’ स्थिति के अनुभव को व्यवहार में स्थित नहीं रख पाता। जनक तुममें ऐसे विरोधाभास की स्थिति तो नहीं है।
तुममें मेरा राज्य, मेरा परिवार, मेरा वंश इस तरह की भावना तो नहीं। यदि ऐसा है तो पुनर्विचार करो उस पर, जिस अनुभव का जिक्र तुमने किया है। आत्मज्ञानी के लिये सब उसका होता, या फिर कोई नहीं।
क्रमशः अगले अंक में
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