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अर्थात् ज्ञानी की स्वच्छन्द, स्वाभाविक स्थिति भी सुशोभित होती है। किंतु आसक्ति ग्रस्त चित्त वाले अज्ञानी व्यक्ति की कृत्रिम शान्ति सुशोभित नहीं होती।
इसका तात्पर्य है-
ज्ञान अमृत- कामना मन में विकार उत्पन्न कर देती है। कामना अथवा उसकी सूक्ष्म वासना मन को विषम और व्याकुल कर देती है तथा शान्ति का हरण कर लेती है। किसी पदार्थ के प्रति आसक्ति होने पर मन में उसे प्राप्त करने की कामना उत्पन्न हो जाती है तथा वह उद्दाम अथवा तीव्र होने पर मन को व्याकुल कर देती है। मनुष्य की कामना तृप्त होने पर अन्य कामनाओं को जन्म दे देती है तथा अतृप्त रह जाने पर कुण्ठा उत्पन्न कर देती है। मनुष्य उद्दाम लालसा की पूर्ति के लिये अनेक प्रकार के छल-कपट और अनैतिक उपाय करने लगता है तथा सत्य के मार्ग से भटक कर शान्ति खो बैठता है। अज्ञानी मनुष्य कामना के वशीभूत होकर शान्ति खो देता है तथा दिन-रात चिन्ता और भय में डूबा रहता है। बुद्धिमान् पुरूष विवेक द्वारा कामना पर नियन्त्रण कर लेता है तथा कामना को उत्तम दिशा देकर उसका उदात्तीकरण कर लेता है।
वासना ग्रस्त मनुष्य जीवन में सम और शान्त नहीं रहता तथा वह कृत्रिम (बनावटी, मिथ्या) शान्ति का स्वांग करता रहता है। कृत्रिम शान्ति कदापि स्थिर नहीं होती तथा मनुष्य की आन्तरिक व्याकुलता का विस्फोट सहसा हो जाता है। अशान्त और व्याकुल होकर अज्ञानी मनुष्य शान्ति की खोज में अनेक पतन कारक उपायों का आश्रय ले लेता है। जिनसे अल्प कालिक सुख मिल जाता है, किंतु गहन शान्ति प्राप्त नहीं होती और अतृप्त कामनायें शूल की भाँति क्लेश देती रहती हैं। वास्तव में शान्ति का स्त्रोत अपने भीतर ही स्थित चित्त की निर्मलता है तथा अशान्ति का कारण आसक्ति भी अपने भीतर ही है। अशान्त मनुष्य शान्ति का मिथ्या प्रदर्शन करता है, किंतु शान्ति की शीतलता का अनुभव नहीं करता।
जिस मनुष्य के भीतर शान्ति नहीं है, उसे बहिर्जगत् में भी शान्ति प्राप्त नहीं होती इसके विपरीत जिसके मन में शान्ति होती है, उसे सर्वत्र शान्ति का ही अनुभव होता है। शान्त मनुष्य सम और सन्तुलित होकर व्यवहार करता है तथा चारों ओर शान्ति की सुगन्ध को प्रसारित करता है। एक शान्त मनुष्य अन्य जन को भी मात्र सामीप्य और स्निग्ध दृष्टि से शान्ति प्रदान कर देता है, वह कामना के विकार और बन्धन से सर्वथा मुक्त होता है। ज्ञानी पुरूष का मन अनासक्त और निष्काम होता है। वह आत्मा के चैतन्य स्वरूप में स्थित होकर अपने भीतर प्रकाश और आनन्द का अनुभव करता है तथा आत्म तृप्त रहता है। ज्ञानी लौकिक नियम-संयम से नियन्त्रित नहीं होता, वह स्वच्छन्द होता है, उसके कार्य अन्तः स्फूर्त एवं उत्तम ही होते हैं तथा वह स्वच्छन्द एवं सहज स्थिति में रहकर भी शोभायमान होता है। इसके विपरीत वासना ग्रस्त अज्ञानी मनुष्य कृत्रिम शान्ति को ओढ़कर सुशोभित नहीं होता। कृत्रिम पुष्पों में सुगन्ध नहीं होती।
कामना का उदय प्रत्येक मनुष्य में होता है। अज्ञानी मनुष्य कामना के उद्रेक को न नियन्त्रित करता है और न उसे उत्तम दिशा ही देता है। बुद्धिमान् पुरूष कामना को संयम द्वारा मर्यादित कर लेता है तथा उसे उदात्त करके सकारात्मक बना लेता है। ज्ञानी महात्मा मन से परे जाकर आत्मा के चिदानन्द स्वरूप में मग्न रहकर परम शान्त रहता है। वह मनुष्यों में श्रेष्ठ होता है।
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