उनकी ईश्वर के प्रति आस्था ही है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति में ईश्वर विद्यमान है, वह इसी नियम पर चल कर ही घर के प्रत्येक सदस्य का लालन-पोषण करता है, अतः गृहस्थ की तपश्चर्या भी संन्यस्त लोगों से कम नहीं है। गृहस्थ में रहकर भी अधिक तपश्चर्या की जा सकती है, पूरा जीवन ही तपश्चर्या है। न हिमालय में, न आश्रमों में, न गुफाओं में ऐसी तपश्चर्या है जैसी तुम अपने गृहस्थ जीवन में कर रहे हो। चौबीसों घंटे, हर पल तुम दहकते अंगारों पर बैठे हुये हो, जलती आग में चल रहे हो यदि एक बार भी धैर्य का त्याग किया तो फिर अपनी गति तुम स्वयं जान लेना।
तुम में से कुछ लोग सोचते हैं कि घर से भाग कर संन्यास ले लूं तो यह कार्य बड़ा ही आसान है लेकिन यह भगोड़ापन गलत है। तुम स्वयं से पूछो एक बार जरा घर में या आफिस में कुछ उठा-पटक ज्यादा हुई तो अत्यधिक खिन्न अवस्था में सोच लेते हो भाग जाने की। कितनी ही बार ऐसा हुआ होगा, आत्महत्या तक करने की बात मन में आ जाती है। व्यक्ति सोचता है कि मर जाना अच्छा है। अब तो स्वयं को खत्म कर लूं। क्यों इतना कुछ सहन करूं? किसलिये इतना परेशान होऊं?
और इस जीवन से कभी मुक्ति नहीं मिलती। शरीर को समाप्त कर लोगे तो आत्मा तो रहेगी ही, यहां नहीं तो कहीं और रहोगे, किसी और रूप में रहोगे लेकिन रहोगे अवश्य। मृत्यु एक झूठ है, एक भ्रांति है क्योंकि इस देह को छोड़ने के बाद अस्तित्व तो अवश्य रहता है अमृत के समान। इसे तुम मृत्यु समझ बैठे हो वह केवल रूप परिवर्तन है, तुम्हारी देह का बदल जाना है जैसे वस्त्र को बदलना। जिन्हें सोचते हैं वह मर गये, वह कोई मरते नहीं है वरन् वह कहीं और जन्म ले लेते हैं और यह यात्रा जारी रहती है।
गीता में भगवान श्री कृष्ण ने यही तो कहा है कि हे अर्जुन! मृत्यु नहीं है केवल जीर्ण वस्त्रों का बदलना ही है और नये वस्त्रों को धारण कर लेना है। तुम यहां मरे तो तुम्हारी देह का अन्तिम संस्कार भी नहीं हो पाता उससे पहले ही तुम कहीं और जन्म ले लेते हो। अतः इस जीवन में इस देह से छुटकारा पा सकते हो आत्महत्या के द्वारा, लेकिन आत्मा बन्धन में पड़ जायेगी। अथवा दूसरा जन्म इससे भी निकृष्ट हो सकता है तब और ज्यादा दुखी होओगे। अतः इसी जन्म में जीवन मुक्त होने की कोशिश करो और स्वयं का आत्म प्रकाश से दर्शन करो। जीवन मुक्त होने के लिये ईश्वर को याद करो, उसकी प्रार्थना करो, उसके ध्यान में डूब जाओ।
दो ही उपाय है केवल या तो पलायन कर जाना अथवा स्वयं को समाप्त कर जाना, पलायन के पश्चात् भगवे वस्त्र धारण कर जटा जूट बढ़ा लेना तब फिर से समाज में सम्मान पाना, हमारा समाज भगवे वस्त्रों को सम्मान की दृष्टि से देखता है, भले ही उस चोले के अन्दर शैतान छिपा हो, कोई माथे पर थोड़े ही लिखा है कि शैतान है या पुण्यात्मा। और संन्यासी को हम भगोड़ा अथवा पलायन वादी न कह कर उसे सम्मान जनक शब्दों से संबोधित करते हैं कि इन्हे तो वैराग्य उत्पन्न हो गया है, इन्होंने सब कुछ त्याग कर दिया है।
घर-परिवार, धन सम्पत्ति आदि। अब ये वैराग्य कैसे उत्पन्न हुआ है, यह तो वह स्वयं ही जानता है। लेकिन यह मार्ग आत्म हत्या करने से कहीं अच्छा है, हमारे देश में बड़े ही ब्रिल्लियन्ट लोग हैं, उन्होंने ही यह मार्ग खोज लिया कि मरने की आवश्यकता नहीं है, मर कर मिलेगा भी क्या? बस भाग जाओ और संन्यास ले लो सभी सामाजिक समस्याओं से मुक्ति भी मिलेगी और सम्मान भी। और फिर रमाते हैं धूनी और करो तपस्या कि अंगारों पर चल रहे हैं लेकिन फिर भी अग्नि से जल नहीं रहें हैं। बहुत पहुंचे हुये बाबाजी हैं यहां फूल मालायें चढ़ रही है, कांटो की सेज पर लेटे हुये हैं महाराज जी। महाराज जी के चरणों में लोग झुके जा रहे हैं। जब तुम गृहस्थ में थे तो कौन से अंगारों पर नहीं चल रहे थे या फिर तुम्हारी जिन्दगी कांटों से भरी हुई नहीं थी। वहां तो संयम नहीं हो पाया अब प्रदर्शन कर लोगो को मूर्ख बना रहे हो।
और मैं कहता हूं गृहस्थ व्यक्ति भी संन्यासी से कम नहीं है, यदि तुम धैर्य पूर्वक कर्मशील हो तो तुम्हारे गृहस्थ जीवन में पल-पल तुम्हारी तपश्चर्या ही तपश्चर्या चल रही है, चाहे तुम नौकरी पर हो अथवा व्यापार में, खेत में हो या फिर बाजार में। तुम्हें कोई धूनी नहीं रमानी, तुम्हारी धूनी तो तुम्हारे घर का चूल्हा है, जो पेट भरता है, असंख्यों का। इन सभी स्थितियों के बीच रह कर तुम अपने जीवन को समझ पूर्वक जीना और विचार किया करो कि मैं क्या कर रहा हूं? क्यों कर रहा हूं, उससे मुझे क्या प्राप्त होगा। यदि तुम्हें सुख व आनन्द की प्राप्ति होती है तो और अधिक वह कार्य करना, जी भर कर जियो। अगर तुम दुखी हो रहे हो और जिन कारणों से तुम्हें दुःख मिल रहा है उन कारणों को त्याग कर दो। यदि क्रोध में दुःख मिलता है तो उसका त्याग कर दो, यदि ध्यान में आनन्द प्राप्त होता है तो जो शक्ति, जो ऊर्जा क्रोध में खर्च कर रहे हो वह शक्ति ध्यान में लगा दो, तो तुम्हारे अन्दर परिवर्तन आरम्भ होगा तुम ऐसी वस्तुओं का चुनाव मत करो जो तुम्हे क्रोध की तरफ ले जाये। तुम अहंकार, लोभ, मोह, क्रोध जैसी वस्तुओं का त्याग कर सरलता, सहृदयता, विनम्रता जैसी विभूतियों को चुनो, तुम इस प्रकार उचित वस्तुओं का चुनाव करो, संन्यास इसी को कहते हैं। जो भी जीवन में तुम भोग रहे हो उसे देखो, विचारो तथा कारणों का पता लगाओ कि किन कारणों से तुम पीड़ा भुगत रहे हो, उन कारणों को त्याग कर उनका निदान कर समाधान करो तो तुम्हारी समझ में बात आ जायेगी। तुम गृहस्थ में हो या संन्यास में हो। इन दुःख के, पीडा के, कारणों का आत्म विश्लेषण कर पता लगाना होगा।
तुम प्रतिभाशाली हो प्रतिभा तुम्हारे अंदर विराजमान है। ईश्वर तुम्हारे अंदर विराजमान है उसे जगने का अवसर दो वह स्वयं भी तुम से मिलने के लिये व्यग्र है और जब तक वह नहीं जगेगा तुम पीड़ा से मुक्त नहीं हो पाओगे तब तक तुम्हारा जीवन एक कोरा कागज की भांति ही रहेगा। न तुम कोई संगीत गुन गुना सकोगे न कोई सुगंध जीवन में उड़ेगी जैसे थे, वैसे ही चले जाओगे। तपश्चर्या में तुम अपने शरीर को, देह को, जो पीड़ा दे रहे हो उसे तपस्या मान रहे हो, योग की विधि मान रहे हो, बड़ी कुशलता से नये-नये तरह की खोज कर रहे हो। कोई अन्न ग्रहण नहीं कर रहा है, कोई फल ही फल खाने का नाटक कर रहा है अथवा कई-कई माह निराहार रह कर अपनी देह तथा आत्मा का शोषण कर रहा है देह को कष्ट देने पर क्या प्राप्त हो सकता है? यदि पेट गड़बड़ है तो एक-दो दिन केवल पेय पदार्थ लिया जा सकता है जिससे पेट को आराम मिले तथा शरीर को सबल व निरोगी बनाकर साधना के योग्य बनाया जा सकता है।
यदि इस प्रकार देह को कष्ट देकर ईश्वर से साक्षात्कार हो सकता तो भगवान बुद्ध को क्यों नहीं हुआ? उनसे ज्यादा तितिक्षा, व्रत, तपश्चर्या, उपवास आदि शायद ही किसी ने की हो लेकिन उन्होंने भी तपश्चर्या त्याग किया और तपश्चर्या के त्यागने के पश्चात् तुरंत साक्षात्कार को उपलब्ध हुये। कुछ व्यक्ति तपश्चर्या ईश्वर को पाने के लिये नहीं करते हैं वह तो प्रतिष्ठा पाने के लिये, समाज में अपना नाम ऊँचा रखने के लिये ही करते हैं। समाज भी उन्हें ऐसी तपश्चर्या करने को उत्साहित करता है क्योंकि समाज उसे दर्शाता है कि बहुत पहुंचे हुये महात्मा है इतने समय से एक पैर पर खड़े है। कोई दोनों हाथ ऊपर उठाये खड़ा है तो कोई कई घण्टे शीर्षासन लगाकर हनुमान चालीसा कर रहा है। ये सब स्वयं को आकर्षण का केन्द्र बना देते हैं। कुंभ आदि मेलों में ऐसे कौतुक पूर्ण दृश्य अधिकांश रूप में दिखाई देते हैं। कोई व्यक्ति अपनी तपश्चर्या छोड़ना भी चाहे तो वह समाज के डर से नहीं छोड़ पाता और उसी पाखण्ड में डूबा रहता है। उसे भय रहता है कि यदि उसने तपश्चर्या का दिखावा छोड़ दिया तो समाज में उसका सम्मान नहीं रहेगा। सभी भगवान बुद्ध जैसा जिगर नहीं रख सकते है। भगवान बुद्ध को लगा कि तपश्चर्या छोड़नी होगी तभी कुछ हो सकेगा, चाहे समाज कुछ भी कहे। उनके तपश्चर्या त्यागने पर उनके समीप रहने वाले शिष्यों ने उन्हें छोड़ दिया लेकिन उन्हे समाज की चिंता नहीं थी।, उन्हें तो व्यग्रता थी ईश्वर से मिलन की और जिसे वह प्यास जग गई तो उसे फिर घर-परिवार समाज की चिंता नहीं रहती।
और आज कल अधिकांश महात्मा, संन्यासी आदि को यदि ध्यान पूर्वक देखा जाये तो उन्हें कोई ईश्वर से मिलन की प्यास थोड़े ही है, उन्होंने तो समाज से ही तंग होकर यह चोला धारण किया है अर्थात् उन्होंने घृणा की है संसार से। उन्होंने ईश्वर से प्रेम के कारण संन्यास धारण नहीं किया है, उन्होंने तो संसार से घृणा करके, परिवार की प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण धार्मिक बन बैठे हैं। इस तरह के लोग धर्म के नाम पर भी घृणा ही फैलायेंगे। वह पहले प्रेम नहीं कर पाया न ले पाया। उसके अंदर विष भाव प्रवेश करने के कारण उसकी शक्ति, उसकी मान्यतायें, अलगाववादी, भगोड़ापन ही रहेगी। वह किसी से एड्जेस्टमेंट नहीं कर पायेगा। अतः तुम प्रेम करना सीखो, किसी से भी करो, गुरु से करो, परिवार से करो, पत्नी से, पति से, पुत्र से किसी से भी करो, कर लो और अनुभव करो। जो प्रेम कर सकता है वहीं ध्यान भी कर सकता है, भक्ति भी कर सकता है।
आप गृहस्थ में रहकर भी सभी कर्तव्यों को पूरा करते हुये स्वयं के अंदर ईश्वर से मिलन की प्यास जगा सकते हो। और ईश्वर से मिलन कर सकते हो, यह संन्यास से भी आगे की स्टेज है यह समाज से भागना नहीं है, कर्तव्यों से मुख मोडना नहीं है तथा चुनौतियों से घबराना नहीं है। तुम्हारा प्रेम देह का प्रेम होता है, माँ से तुम्हें प्रेम है तो तुमने उसके गर्भ से जन्म लिया है उसकी देह से तुम्हारा एक रिश्ता जुड़ा है। इसी प्रकार तुम्हें पिता से प्रेम है तो उनके शुक्र से तुम्हारी देह का निर्माण हुआ है। इस प्रकार सभी सांसारिक रिश्ते नातों से तुम जो प्रेम (मोह) करते हो वह सब तुम्हारी देह का उनकी देह से संबंध जुडा होना है। इसीलिये उनसे प्रेम करते हो। लेकिन गुरु से प्रेम होता है तो वह देह से प्रेम नहीं होता। उसका तुम्हारी देह से कोई नाता भी नहीं है, वह देह से परे है। तुम गुरु मे श्रद्धा रखते हो तो वह देह के कारण नहीं रखते हो। तुम्हें उनमें कुछ दिव्य झलक दिखाई दे जाती है। तुम्हें गुरु के भीतर कुछ अलौकिक दिखाई पड़ता है जो देह से ऊपर है और तुम उस अलौकिक को देखते-देखते स्वयं को भुला बैठते हो तो वह तुम्हारा वास्तविक गुरु है। गुरु-शिष्य का संबन्ध आत्मिक संबन्ध है। यह आत्मिक प्रेम भी अलौकिक है, विचित्र है यह प्रेम कभी टूटे से भी नहीं टूटता कोई दूसरा पूछे भी तो कोई जवाब नहीं बन पाता। मौन ही केवल इसका उत्तर है क्योंकि प्रेम क्यों हुआ, कैसे हुआ? इसका कोई उत्तर कोई प्रेमी न कभी दे सका न दे सकेगा।
प्रेमिका से, पिता से, माता से, पुत्र से, प्रेम का कारण बता सकते हो लेकिन गुरु से क्या कारण है प्रेम होने का। शायद ही शब्दों में व्यक्त कर सको, निरूत्तर ही पाओगे क्योंकि प्रेम होने का कोई कारण नहीं होता वह तो बस हो जाता है, किया नहीं जाता। प्रेम में होता क्या है? प्रेम में तुम पास होते हो या दूर हो तो केवल एक ही बात होती है केवल याद में खो जाना अपने प्रेमी की। अपने गुरु की याद बार-बार करते रहने से, अपने प्रेमी की याद करते रहने से अथवा ईश्वर की याद करते रहने से तुम और गुरु अथवा प्रेमी या ईश्वर दो न रहकर एक हो जाते हो। और जब तुम नहीं रहते हो तो केवल गुरु या ईश्वर ही रह जाते है। तुम इतना सामीप्य प्राप्त कर लेते हो कि स्वयं को भूल जाते हो और तुम ईश्वर रूप हो जाते हो, गुरु रूप बन जाते हो। मुख्य बात ये है तुम गृहस्थ में हो अथवा संन्यास में, तुम्हें जब भी समय मिले तुम्हें याद करना है, याद में खो जाना है और स्वयं को भुला देना है। केवल और केवल अपने गुरु का, ईश्वर का, प्रेमी का ही चिंतन करना है। इसी चिंतन से, इसी स्मरण से तुम ईश्वर को पा लोगे क्योंकि कोई भी कोमल से कोमल वस्तु भी निरंतर अभ्यास से कठोर से कठोर वस्तु पर भी अपना प्रभाव जमा लेती है। जैसे –
एक कठोर चट्टान पर भी एक कोमल रस्सी प्रति दिन की रगड़ से अपने निशान छोड़ देती है। चट्टान को भी घिस देती है, ऐसी कल्पना आरंभ में कोमल रस्सी को देख कर कोई नहीं कर सकता कि यह कोमल रस्सी चट्टान को घिस देगी, लेकिन नित्य प्रति दिन के रगड़ खाने से चट्टान घिस जाती है। इसी प्रकार नदी की पतली जलधार में पड़ी चट्टान भी धीरे-धीरे टूट कर छोटी होती चली जाती है। यह निरंतर-निरंतर अभ्यास का ही परिणाम होता है। इसी प्रकार यदि निरंतर नाम स्मरण गुरु मंत्र जप का अभ्यास करें तो ईश्वर के दर्शन होते है। केवल निरंतर अभ्यास की आवश्यकता है, साधना सतत रूप से चलती रहे, नित्य स्वयं को साधना रूपी मंत्रों से मांजते धोते रहे धैर्य के साथ तो ईश्वर रूपी रस्सी तुम्हारे कठोर हृदय पर अपना प्रभाव अवश्य डाल देगी क्योंकि ईश्वर या गुरु तो फूल से भी कोमल है। तुम्हारा हृदय रूपी पत्थर पर उसके नाम की रगड़ लगेगी तो समय तो अवश्य लगेगा। जितना तुम्हारा हृदय कोमल होगा उतना ही तुम्हारा कल्याण शीघ्र होगा। जब-जब भी तुम्हारे सामने कोई समस्या, संकट उपस्थित हो तो उसके समाधान हेतु ईश्वर को, गुरु को गहरे से याद करना। तुम्हारे भीतर से ही हल निकलेगा कोई भी संकट या समस्या अधिक समय के लिये नहीं होती। तुम्हारे विचारों के कारण, तुम्हारे अतीत की यादों के कारण वह भयावह रूप धारण कर लेती है, तुम उस समय में उन विचारों को केवल देखते रहना उनमें बहना नहीं क्योंकि वह तुम पर अधिक प्रभाव जमाने का प्रयत्न करेंगे, तुम उसमें डगमगाना नहीं। यदि तुम एक अच्छाई, एक सद्गुण भी स्वयं के लिये अपनाते हो तो अन्य दूसरे अच्छे गुण, अच्छे विचार उस एक सद्गुण के साथ-साथ चले आते है। जो सद्गुण तुम अपनाते हो तो और अनेक दुर्गुण विदा हो जाते है। जिस प्रकार एक बुराई तुम आरम्भ करते हो तो उसके साथ-साथ अन्य बुराईयां भी तुम्हारे साथ लग जाती है। उन्हें अपनाने की कोई आवश्यकता नहीं होती यह सब एक दूसरे से जुड़े होते है। तुम नित्य प्रार्थना, साधना, मंत्र जप आदि करते हो तो नित्य स्वच्छता का ध्यान भी स्वतः हो जाता है। तुम नित्य स्नान आदि गुणों से भी युक्त हो जाते हो।
संन्यास लेने का अर्थ है कि तुमने कुछ त्याग किया, कुछ बुराईयां छोड़ी, कुछ सद्गुणों को अपनाया, तुमने स्वयं अपना रूपांतरण किया है। तुमने गुरु दीक्षा ली, मंत्र जप किया तो कुछ बुराईयां स्वतः ही छूट गई होंगी। कुछ सद्गुण तुम्हारी अंदर दृष्टिगोचर अवश्य हुये होंगे। यह रूपांतरण भी कम नहीं है। तुम कुवृत्तियों को छोड़ो तो जीवन में चमत्कार भी घटित होते है, तुम्हारा विश्वास यदि सच्चा है तो ईश्वर के लिये कुछ भी असंभव नहीं है। संन्यास का अर्थ मैं असहाय हूं, मेरे से कुछ भी नहीं हुआ, न होगा अर्थात् ईश्वर को पूर्ण रूप से समर्पित हो जाना स्वयं के प्रयत्न से कुछ न हुआ अब तो केवल तेरे करने से ही कुछ होगा। मैने तो प्रत्येक प्रयास करके देख लिये। इस हार के साथ ही तुम ईश्वर के हो जाते हो और ईश्वर तुम्हारे हो जाते है तब तुम्हारी हार स्वयं की हार नहीं होती, तुम्हारी जीत स्वयं की जीत नहीं होती क्योंकि तब तुम्हारे सामने हार जीत का कोई औचित्य नहीं होता यह सब उस समय गौण हो जाते है। एक अदृश्य हाथ तुम्हारी नाव को चला रहा होता है। बिना पतवार के भी तुम्हारी नाव तैरती जाती है। संन्यास तुम्हारे अहंकार का विसर्जन है। तुम पतवार चला-चला कर थक जाते हो लेकिन किनारा नहीं मिलता। जब थक-हार कर पतवार रख देते हो, रख क्या? समुंदर में फेंक देते हो कि अब जो कुछ करना है तुम्हें ही करना है। मुझसे यह नाव किनारे न लगी तो ईश्वर ऐसी लहरे उत्पन्न करता है, ऐसी हवाये चलाता है कि तुम किनारे लग ही जाते हो। यही तुम्हारा सौभाग्य है।
तुम मन को साध लो, इसे अपने वश में कर इस पर विजय प्राप्त कर लो तो सभी सद्गुण तुममे आत्मसात हो सकते है। जब कि इस मन पर विजय पाना बड़ा कठिन है। महाभारत में गीता के उपदेश के समय अर्जुन भी भगवान श्री कृष्ण से कहते है –
अर्थात् हे मधुसूदन! समत्व में स्थित होकर आपने जिस योग का उपदेश किया है, मन की चंचलता के कारण मैं इसकी स्थिर स्थिति नहीं देखता हूं। क्योंकि हे कृष्ण! यह मन बहुत ही चंचल, प्रमथनशील एवं बलशाली है। उसका दमन नहीं होता। इसे वश में करना वायु को रोकने की भांति अत्यंत दुष्कर मानता हूं। अर्जुन जैसी यही स्थिति सभी की है जब-जब तुम लोग ध्यान, मंत्र जप, पूजा, साधना में बैठते हो मन बड़े वेग से इधर-उधर भागता है, कभी शरीर में खुजली होती है तो कभी दर्द अनुभव होता है तथा कभी मन में कामुक विचार उत्पन्न होते है, कभी निद्रा आती है तो कभी अनर्गल विचारों से तुम भर जाते है।
लेकिन भगवान श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन की समस्या का समाधान किया है। वह कहते है
अर्थात्- हे महाबाहो! निश्चित रूप से यह मन बहुत ही चंचल है और बडी कठिनाईयों से वश में होने वाला है परन्तु हे कुन्ती पुत्र! अभ्यास और वैराग्य द्वारा इसको वश में किया जा सकता है। असंयमी व्यक्ति के वश में मन नहीं हो सकता ऐसे व्यक्ति को योग की प्राप्ति भी असंभव ही है किन्तु मन पर संयम रखने वाला व्यक्ति इसे अपने अभ्यास के द्वारा प्राप्त कर लेता है।
इसी प्रकार तुम्हारी भी जिज्ञासायें है इसीलिये तुम भी अपने मन को सदैव श्रेष्ठ विचारों से युक्त रखो, श्रेष्ठ साहित्य का अध्ययन, स्वाध्याय श्रेष्ठ विचारों से मन को युक्त रखता है तथा धारणा को दृढ़ करता है। गुरु का ध्यान, गुरु मंत्र का जप, इष्ट चिंतन, मन को एकाग्र करने का सर्वोत्तम उपाय है। जब-जब मन इधर-उधर चलायमान हो तो उसे ध्यान अथवा गुरु मंत्र का जप करने पर उसका मन सुपर चेतन की यात्रा करने लगता है क्योंकि जिसे सद्गुरु की प्राप्ति हो गई वह निर्बल हो ही नहीं सकता अर्थात् मन एक शिष्य से बलशाली नहीं हो सकता, क्योंकि शिष्य अब अकेला नहीं, न ही वह दुर्बल है उसके पीछे गुरु का बल है, गुरु की शक्ति है। वह गुरु द्वारा बताये गये मार्ग पर चलकर मन पर निश्चित रूप से विजय प्राप्त कर लेता है लेकिन फिर भी तुम्हारा जब-जब मन विषयों की ओर आकर्षित हो तब-तब उसे अपने ध्यान के बिन्दु पर वापस लाने का प्रयास करे। निरन्तर कठोर परिश्रम करे और निरन्तरता में कोई कमी नहीं होने पाये तो इस अभ्यास योग से स्व केंद्रित कामनाओं से विरक्ति उत्पन्न होने पर उनसे छुटकाना पाने की इच्छा बलवती होती है। इस प्रकार तुम अभ्यास और वैराग्य के द्वारा मन को भी वश में कर सकते हो और योग की एक महत्वपूर्ण विभूति को हस्तगत कर सकते हो।
परम पूज्य सद्गुरुदेव
कैलाश चन्द्र श्रीमाली
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