सैकड़ों ऋषि, मुनि एवं योगी हुये, चारों तरफ ज्ञान का प्रवाह था। यज्ञ, साधना, ध्यान, जप-तप, पूजा-पाठ, आध्यात्मिक चेतना अपनी पूर्ण उच्चता पर थी, युग परिवर्तन के साथ ही उस दिव्य ज्ञान का प्रवाह भी शनैः शनैः क्षीण होता चला गया, भौतिकता का प्रवेश प्रारम्भ हुआ और आज भौतिकता अपनी चरम सीमा में है, जिसके परिणाम स्वरूप मानव समाज को मिली अशांति, तनाव और व्याधियां चारों तरफ युद्ध के बादल मण्डरा रहें हैं, मानव आज संदिग्ध स्थिति में खड़ा है। यदि वह सांसारिक जीवन को श्रेष्ठता से जीना चाहे तो उसे सही मार्ग नहीं मिल पाता, क्योंकि आज उनके सामने अनेक तथाकथित आध्यात्मिक संस्थायें खड़ी हैं, वहीं दूसरी तरफ हजारों देवी-देवता हैं, जिनकी आराधना एवं साधना प्रामाणिक होती हुयी भी इतनी क्लिष्ट है, जो जन साधारण के समझ से परे है।
दूसरा पक्ष यह भी है कि आज का मनुष्य इतना अधिक भौतिकतावादी हो गया है, कि वह साधनात्मक क्रियाओं की ओर दैनिक रूप से ध्यान नहीं दे पाता, वास्तव में देखा जाये तो इस आधुनिक संसार में समय का अभाव भी प्रत्येक व्यक्ति के पास देखने को मिलता है। इसके उपरान्त भी ऐसे अनेक साधक- साधिकायें हैं, जो अपने गुरु का नित्य वन्दन, पूजन करते हैं।
अध्यात्म जगत में अनेक सम्प्रदाय हैं और सभी सम्प्रदाय में गुरु की साधना, आराधना करने का विधान बताया गया है, सभी सम्प्रदाय ने स्वीकार किया है कि गुरु की साधना, पूजा से जीवन के दोनों पक्ष अध्यात्म और भौतिक में पूर्णता प्राप्त होती ही है। प्रथम बार सद्गुरुदेव निखिलेश्वर के अभिषेक का सारभूत तथ्य इस पत्रिका के माध्यम से प्रकाशित करने का गौरव हमें प्राप्त हुआ। अनेक जटिल संघर्षों के पश्चात् इस प्रयास को मूर्त रूप देने में सफलता प्राप्त हुयी है।
हेतवे जगतामेव संसारर्णव सेतवे।
प्रभवे सर्वविद्यानां शम्भवे गुरुवे नमः।।
‘‘गुरु ही जगत की उत्पत्ति के मूल कारण हैं, वही संसार सागर को पार कराने वाले सेतुरुप हैं व सभी विद्याओं की उत्पत्ति का एकमात्र हेतु श्री गुरु ही हैं, ऐसे शिव स्वरूप कल्याणकारी श्री गुरु के चरण-कमलो में नमन है।’’
परम शाश्वतं नीलकण्ठं गुरुत्वं
भगवान शिव ने जिस प्रकार सृष्टि की रक्षा करने के लिये हलाहल को अपने कंठ में धारण कर देवताओं को अमृत का पान कराया, ठीक वही क्रिया तो गुरु को भी करनी पड़ती है, शिष्य के अन्तरनिहित अज्ञान, अहंकार, पाप, छल आदि दोष रूपी हलाहल को अपने अन्दर धारण कर उसे ज्ञान रूपी अमृत का पान कराते हैं।
अशुभानि निरचष्टे तनोति शुभसंततिम।
स्मृतिमात्रेण यत्पुंसां ब्रह्म तन्मगलं परम।।
अतिकल्याणरूपत्वान्त्यि कल्याण संश्रयात।
स्मर्त णां वरदत्वाच्च ब्रह्म तन्मंगलं विदुः।।
अर्थात् जिनके नाम के स्मरण मात्र से ही मानव के समस्त अशुभ, अमंगल दूर हो जाते हैं तथा कल्याण की प्राप्ति होती है। उन्हीं गुरुदेव का ब्रह्म स्वरूप परम मंगलदायक है, वे अत्यधिक कल्याण स्वरूप तथा नित्य-कल्याण निकेतन है और अपने स्मरण करने वाले को अपनी शरण में लेकर समस्त सिद्धि तथा इच्छित वर प्रदान करते हैं। उन्हीं तत्त्वज्ञानी ब्रह्म के मंगल रूप की विज्ञजन वन्दना करते हैं।
अपने हृदय में गुरु स्थापन करना समस्त देवताओं को स्थापन करने से भी अधिक महत्वपूर्ण है।
ऋग्वेद
जीवन की सर्वोच्च उपलब्धि भजन-कीर्तन, पूजा -पाठ की अपेक्षा गुरु पूजन है।
गुरोपनिषद
चारो पुरुषार्थं धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति केवल गुरु के द्वारा सम्भव है।
याज्ञवल्क्य
जीवन की पवित्रता, दिव्यता, तेजस्विता एवं परम शांति केवल गुरु ही पूर्ण कर सकते हैं।
ऋषि विश्वामित्र
गुरु पूजा से बढ़कर कोई विधि या सार नही है।
शंकराचार्य
जो गुरु की आराधना नहीं करता, उसका सारा समय, साधना एवं तपस्या व्यर्थ ही रहती है।
रामकृष्ण
गुरु-पूजा के द्वारा ही इष्ट के दर्शन सम्भव है
गोरखनाथ
सद्गुरुदेव नारायण के अनेको संन्यासी शिष्य नित्य कई वर्षों से निखिलेश्वर अभिषेक पारद निखिलेश्वर विग्रह पर सम्पन्न कर रहें हैं। बद्रीनाथ यात्रा के समय उन्होंने परम पूज्य सद्गुरुदेव से मिलकर अपने अनुभव को बताया और सद्गुरुदेव से इस विधान को गृहस्थ साधको के लिये उपलब्ध करने हेतु निवेदन किया। उन संन्यासी शिष्य ने बात-चीत में यह बताया कि सद्गुरुदेव निखिल का अभिषेक सर्वश्रेष्ठ स्वरूप में फलदायी और सरल है, साथ ही महत्वपूर्ण विषय यह है कि सद्गुरु के अभिषेक द्वारा शिष्य उनका प्रिय बन समस्त सिद्धियों को आत्मसात करने का उत्तराधिकारी बन जाता है, तथा उसके सभी दुर्गुण स्वतः ही नष्ट हो जाते हैं और अपने भौतिक आध्यात्मिक जीवन में सफलता की उच्चतम स्थिति प्राप्त करने में सफल हो पाता है।
साधारणतः तो गुरु पूजन, साधना, मंत्र जप के द्वारा ही शिष्य गुरु के निकट पहुंच जाता है, और अप्रत्यक्ष रूप से मार्गदर्शन आज्ञा प्राप्त करता रहता है, परन्तु निखिलेश्वर अभिषेक से शिष्य सद्गुरु निखिल के सिद्धाश्रम शक्ति युक्त चेतना से सम्पर्कित होकर विशिष्ट ऊर्जा से ओत-प्रोत होता है और सद्गुरुदेव की विशेष कृपा का अनुग्रह प्राप्त कर पाता है।
साथ उसे अनेक माध्यमों से सद्गुरुदेव नारायण निर्देशित करते रहते हैं, यदि शिष्य धीरे-धीरे साधना की उच्च स्थिति प्राप्त कर लेता है, तो उसे सीधे तौर पर निर्देशन मिलना प्रारम्भ हो जाता है। समर्पित पूर्ण श्रद्धावान साधकों को यह विश्वास दिलाते हैं कि यदि आप अपने जीवन में सद्गुरुदेव का प्रत्यक्ष अनुग्रह प्राप्त करना चाहते हैं, तो आप कुछ विशेष दिवसो पर नियमित रूप से निखिलेश्वर अभिषेक सम्पन्न कर इन तथ्यों का अनुभव कर सकते हैं। इन सब तर्को के माध्यम से केवल इतना ही कहना चाहूंगा कि जीवन के सभी पक्षों को पूर्णता प्रदान करने में निखिलेश्वर अभिषेक पूर्णतः समर्थ, सक्षम और शीघ्र फलदायी है, जिसके माध्यम से साधक- साधिकायें अपने सांसारिक जीवन की व्याधियों का शमन कर भौतिक और आध्यात्मिक जीवन को सफलता युक्त बना सकेंगे और जीवन को नयी दिशा देने में समर्थ होगें।
साथ ही जीवन में आये संकटों में रक्षा हो सकेगी। इस अभिषेक को कोई भी सम्पन्न कर सकता है, इसमें स्त्री-पुरूष आदि का कोई बन्धन नहीं है। गुरु कृपा से प्राप्त यह अमूल्य अभिषेक विधान आपके मध्य प्रस्तुत कर रहें हैं- इस अभिषेक को प्रत्येक शिष्य को वर्ष में एक बार संन्यास शक्ति दिवस या किसी पूर्णिमा दिवस पर अनिवार्य रूप से करना ही चाहिये। वस्तुतः यह अभिषेक आप प्रत्येक माह के 21 तारीख, निखिल जन्मोत्सव, गुरु पूर्णिमा अथवा किसी भी सिद्ध मुहुर्त में करना चाहिये।
पूजा के लिये सामने छोटी सी चौकी रखें, उस पर पीला कपड़ा बिछा लें, धूप व दीपक प्रज्ज्वलित करें। सामने नवीन गुरु चित्र स्थापित करें। अपने सामने आचमन पात्र, पुष्प, नैवेद्य व अभिषेक की सम्पूर्ण सामग्री (दूध, इत्र, गंगा जल मिला हुआ शुद्ध जल) रखें। एक बड़ा पात्र अपने पास में रखें, जिसमें पारद निखिलेश्वर विग्रह पर अभिषेक सम्पन्न किया जा सके।
आसन पूजन
भूमि पर अक्षत, चंदन, पुष्प अपने आसन के नीचे अर्पण करे तथा निम्न मंत्र को हाथ जोड़ कर पढ़ें-
ऊँ पृथ्वि! त्वया धृता लोका देवि! त्वं विष्णुना धृता। त्वं च धारय मां देवि! पवित्रं कुरू चासनम्।।
आचमन
ऊँ आत्मतत्त्वं शोधयामि स्वाहा।
ऊँ विद्यातत्त्वं शोधयामि स्वाहा।
ऊँ शिव तत्त्वं शोधयामि स्वाहा।
ऊँ सर्वतत्त्वं शोधयामि स्वाहा।
गणेश पूजन
हाथ में अक्षत, पुष्प, कुंकुम लेकर निम्न मंत्रों से विघ्न को दूर करने के लिये भगवान गणेश विग्रह के समक्ष मंगल कामना करें, विग्रह के अभाव में सुपारी पर रक्त सूत्र (मौली) लपेट कर पात्र में रखें।
ध्यान
ऊँ गणानां त्वां गणपति (गूं) हवामहे प्रियाणां त्वां
प्रियपति (गूं) हवामहे निधीनां त्वां निधिपति (गूं)
हवामहे वसो मम। आहमजानि गर्भधम्।
ऊँ गं गणपतये नमः ध्यानं समर्पयामि।
आवाहन
हे हेरम्ब! त्वमेह्येहि अम्बिका-=यम्बक-आत्मज।
सिद्धि-बुद्धि-पते त्रयक्ष लक्ष्य-लाभ-पितुः पितः।।
ऊँ गं गणपतये नमः आवाहयामि स्थापयामि पूजयामि।
नीचे दिये मंत्र का उच्चारण कर अक्षत, पुष्प चढ़ाये-
ऊँ गं गणपतये नमः सर्वोपचारार्थे गंधाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि।
माँ भगवती पूजन
मां आद्या शक्ति का ध्यान कर पुष्प अर्पित करें-
तीक्ष्ण दंष्ट्र महाकाय कल्पान्तदहनोपम्।
ऐं क्रीं ह्रीं या भगवती सर्वभूतेषु नमो नमः।।
एक गहरी थाली में स्वास्तिक बनाकर उसके मध्य में पारद निखिल विग्रह स्थापित करें और पारदेश्वर निखिलेश्वर पूजन सम्पन्न करें।
गुरु ध्यान
परमं पदेवं गुरुभ्यो पर गुरुभ्यो पारमेष्ठि
गुरुभ्यो मनस त्वक् प्राण गुरुभ्यो नमः।
श्री निखिल गुरु चरणेभ्यो नमः ध्यानं समर्पयामि।
हे गुरुदेव! मैं आपको, परम गुरु को तथा पारमेष्ठि गुरु को नमन करता हूं।
आवाहन
आवाहयामि आवाहयामि शरण्यं शरण्यं सदाहं भजामि।
तव नाथमेवं प्रपद्ये प्रसन्नं, गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यम।।
श्री निखिल गुरु चरणेभ्यो नमः आवाहयामि समर्पयामि।
आसन
ऊँ दिवोवता च श्रियै सः गुरुर्वै सह हितेनः
श्री निखिल गुरु चरणेभ्यो नमः इदं पुष्पासनं समर्पयामि।
आसन हेतु पुष्प अर्पित करें।
पाद्य
दो आचमनी जल गुरु चरणों में चढ़ावें-
ऊँ एतावानस्य महिमातो ज्यायांश्च पूरूष।
पादोऽस्य विश्वाभूतानि त्रिपादस्यामृतन्दिवि।।
श्री निखिल गुरु चरणेभ्यो नमः पाद्यं समर्पयामि।
अर्घ्यं
जल, पुष्प, अक्षत व चंदन अर्पित करें-
ऊँ नमस्ते देव देवेश! नमस्ते करूणाम्बुजे।
करूणां कुरू मे देव! गृहाणार्घ्य नमोऽस्तुते।।
श्री निखिल गुरु चरण कमलेभ्यो नमः अर्घ्यं समर्पयामि।
आचमन
तीन आचमनी जल गुरु चरणों में अर्पित करें-
ऊँ वेदानामपि वेद्यायै देवानां देवतात्मने।
आचमनं कल्पयामीशि! शुद्धानां शुद्धि हेतवे।।
श्री निखिल गुरु चरणेभ्यो नमः आचमनीयं जलं समर्पयामि।
स्नान
आचमनी से तीन बार जल चढ़ायें –
साधुनामग्रतो गण्ये साधुसंघ समादृते।
सर्व तीर्थमयं तोयं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्।।
श्री निखिल गुरु चरण कमलेभ्यो नमः स्नानं समर्पयामि।
पंचामृत स्नान
ऊँ पञ्च नद्यः सरस्वतीमपियन्ति सहस्त्रोतसः।
सरस्वती तु पञ्चधा सो देशेऽभवत्सरित्।
पञ्चामृतं मयानीतं पयो दधि घृतं मधु।
शर्करा च समायुक्तं स्नानार्थ प्रतिगृह्यताम्।
श्री निखिल गुरु चरणेभ्यो नमः पञ्चामृतस्नानं समर्पयामि।
शुद्ध स्नान
ऊँ शुद्धवालः सर्वशुद्धवालो मणिवालस्त आश्विनः।
श्वेतः श्वेताक्षोऽरुणस्ते रूद्राय पशुपतये कर्णायामा
अवलिप्ताः रौद्रा नमोरूपाः पार्जन्याः।।
श्री निखिल गुरु चरणेभ्यो नमः शुद्धोदकस्नानं समर्पयामि स्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।
अब मुख्य अभिषेक प्रारम्भ होता है। इसमें दुग्ध मिश्रित जल को पारदेश्वर निखिल विग्रह पर निम्न श्लोक बोलते हुये 27 आचमनी जल चढ़ायें।
त्रैलोक्ये स्फुटवक्तारो अष्टोत्तर सुरपन्नगाः।
लक्ष्मीवक्त्रस्थिता विद्या गुरुभक्त्या तु लभ्यते।।
स्वः की पूर्णता प्राप्ति हेतु इस मंत्र का जाप करते हुये निखिल विग्रह पर अखंड जल मिला दुग्ध धारा चढ़ाये।
पूर्णता प्राप्ति हेतु निखिल विग्रह का ध्यान करते हुये नीचे दिये श्लोक का अपनी सभी कामनाओं की पूर्ति हेतु पांच बार उच्चारण करें।
समस्त दुःखं च भवत भव सिन्धु अथ श्रियं
महत्रूपं ज्ञेय नहि मद न शक्यं स्वर स्वधं।।
इसकी पूर्णता के पश्चात् निखिल विग्रह को स्वच्छ जल से साफ कर एक दूसरी थाली में स्वस्तिक बनाकर उसे स्थापित कर दें और सदगुरुदेव विग्रह पर कुंकुंम, चंदन, अक्षत, रोली, यज्ञोपवीत व प्रसाद अर्पित करें।
क्षमा प्रार्थना
आवाहनं न जानामि न जानामि तवार्चनम्।
पूजां चैव न जानामि क्षमस्व परमेश्वर।।
मंत्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वर।
यत्पूजितं मया देव परिपूर्णं तदस्तु मे।।
यदक्षरं पदं भ्रष्टं मात्रहीनं च यद्भवेत।
तत्सर्वं क्षम्यतां देव प्रसीद परमेश्वर।।
नमस्कार
दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करें –
नमः सर्वशिष्य हितार्थायै शिष्याधारहेतवे।
साष्टांगोऽयं प्रणामस्ते प्रयत्नेन मया कृतः।।
गुरु आरती और समर्पण स्तुति सम्पन्न कर सद्गुरुदेव से सभी कामनाओं की पूर्ति हेतु निवेदन करें। अभिषेक किये हुये जल का एक-एक चम्मच घर के सभी सदस्य ग्रहण करें और बाकी जल किसी वृक्ष या पौधे की जड़ में डाल दें वह पैरों में न लगे।
इस प्रकार अभिषेक सम्पन्न कर साधक, शिष्य अपने जीवन की मजबूत नींव का निर्माण कर सकेंगे। साथ ही जीवन का सर्वांगीण विकास, सुख-सम्पदा, साधना सफलता आदि- आदि स्वरूपों में सद्गुरुदेव चेतना की प्राप्त हो सकेगी।
नित्य पूजा स्थान में श्रेष्ठ विग्रह के दर्शन कर अपनी कामना व्यक्त करें, निश्चिन्त रूप से उनकी आभा और चेतना से जीवन सुगन्धमय व रस, आनन्द से युक्त हो सकेगा।
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