संन्यास कर्म में जितनी उच्चता होनी चाहिये, उतनी ही निम्नता हुयी है, क्योंकि ढ़ोंगियों ने, ढ़कोसलाबाजों ने समाज में इस रूप को मलिन कर दिया है। पिछले कई वर्षो से मैंने अनुभव किया कि लोग संन्यासियों के नाम से डरने लगे हैं। सामान्य व्यक्ति किसी संन्यासी को देखते ही, दूर से रास्ता बदल लेता है, और वास्तव में इन भगवाधारियों ने धर्म को विकृत कर दिया है। प्राचीन समय में अनेको-अनेको ऋषियों का पूरा परिवार था, पत्नी थी, बन्धु, पुत्र-पुत्रियां सब कुछ था, और वे संन्यासी कहलाये, उच्चकोटि के ऋषि-महात्मा, पुण्य आत्मा कहा गया उन्हें, और उन्होंने नवीन साधनाओं, ग्रंथों की रचना कर दी और परिवार भी चलाया, यही नहीं उनकी पत्नियों को संन्यासिनी कहा गया, ऐसी-वैसी संन्यासिनी नहीं उच्चकोटि की संन्यासिनी थीं वे, कई-कई विद्याओं की सिद्धहस्त थीं, वेद-पुराण का पूर्ण ज्ञान था उन्हें, और वे सब संन्यासी, ऋषि, महात्मा कहे गये, तत्व ज्ञानी कहे गये।
और वन के निकट रहने का तात्पर्य उनका इतना ही था कि सामान्य व्यक्ति उन्हें डिस्टर्ब ना करें, उनके कार्यो में बाधा ना डाले, इसलिये वे अपनी कुटिया नगर से दूर बनाते थे। जिससे उन्हें उनके अनुकूल वातावरण मिल सके, संन्यास मात्र एक कर्म है, जिसे भली-भांति पूर्ण किया जाना ही इसका वास्तविक स्वरूप है। संन्यास और परिवार, पत्नी, पुत्र-पुत्री, परिवार, समाज से कोई लेना-देना नहीं है, संन्यास के लिये समाज, परिवार से अलग होने की आवश्यकता नहीं है और ना ही समाज, परिवार के साथ रहने की अनिवार्यता है, इन दोनों से जो परे हो वही संन्यासी है। जो भी सुकर्म करता है, वह संन्यासी बन सकता है, उच्चकोटि का संन्सासी बन सकता है, और वह उच्चकोटि की साधनाओं में सफलता प्राप्त कर सकता है, लेकिन सफलता का अधिकारी वही होगा जो सुकर्म के पथ पर चलने को राजी हो, वह साधना सिद्धि का अधिकारी है, उसे महाविद्यायें सिद्ध होती ही हैं, अध्यात्म पथ पर वह उच्चता प्राप्त कर सकता है और सद्-ज्ञान, सद्-चेतना को आत्मसात करता हुआ, वह संन्यासी बन सकता है। केवल और केवल इतनी ही सावधानी रखनी है कि कोई पाप ना हो जाये, मन में कोई आसक्ति ना आ जाये, तत्वदर्शी बनकर सद्-चेतना को आत्मसात करना ही सच्चा संन्यास है।
एक बात अच्छे से समझ लो, संसार में कहीं भी चले जाओ, यदि आपके दिमाग में अशांति है, तो संसार में आपको कहीं भी शांति नहीं मिल सकती, कितना भी भटक लो, कितने भी चौखटों पर सर पटको, कुछ भी कर लो, शांति भटकने से नहीं मिल सकती, गेरूआ कपड़ा और झोला लटकाने से भी नहीं मिलती, शांति अपने मन के द्वन्द्वों पर विजय प्राप्त करने से मिलती है और विजय प्राप्त हो सकती है, सौम्यता, सरलता, सहजता से, जितना ही व्यक्ति सरल और सहज होता है, उतना ही वह शांत होता हुआ उच्चता की ओर अग्रसर होता है।
कर्तव्य से मुंह मोड़ लेने को संन्यास नहीं कहा गया है, कायरों की तरह भागने को भी संन्यास नहीं कहा गया है। जो वर्तमान में लोगों की विचारधारा बन गयी है, वास्तविक संन्यास तो वह है, जिसमें आप अपने बुरी प्रवृत्तियों का त्याग कर दें, अपने बुराईयों, अवगुणों, तामसिक विचारो, घृणित कार्यो का त्याग कर दें, वही वास्तविक संन्यास है, गेरूआ वस्त्र संन्यास की परिभाषा नहीं हो सकता है, अपने जीवन के मलिन विचारों पर विजय प्राप्त करने वाला, सात्विक स्वच्छ जीवन निर्मित करने वाला संन्यासी कहा जा सकता है। वह परिवार वाला भी हो सकता है, वह एक साधु भी हो सकता है।
इसलिये कभी आपके मन में यह विचार आये, कि मुझे संन्यास लेना है, संन्यासी बनना है, तो सबसे पहले अपने कर्म चिन्तन को परिवर्तित करना, अपने विचारों को बदलना, त्याग शक्ति को प्रबल करना, क्योंकि संन्यास सुकामनाओं का बंधन है, अर्थात् जो व्यक्ति सुकामनाओ से ओत-प्रोत हो वह संन्यासी है। मलिन विचारों से मुक्त हो, सबका भला करने वाला हो, सभी जन के प्रति समभाव रखता हो, परिवार के सभी सदस्यों के प्रति कर्तव्य का निर्वाह करने वाला हो, और ईश्वर के सिवा, गुरु के अलावा किसी से कोई अपेक्षा ना रखता हो।
एक बात और ध्यान देने योग्य हैं, कि संन्यास कभी धारण नहीं किया जा सकता है, संन्यास स्वतः हो जाता है, मन के पार गये कि संन्यासी हो गये। जो लोग यह कहते हैं कि मैं संन्यासी बन गया, संन्यासी तो कभी बना ही नहीं जा सकता है। संन्यास तो घटना है, जो जीवन में घटित हो जाता है, मन के पार जाने पर, हां इसके लिये मन के पार जाना पड़ेगा, मन को, अपने इन्द्रियों को नियंत्रित करना होगा। नियमित जीवनचर्या निर्धारित करनी होगी। ऐसा नहीं कि संन्यासी हो गये, जब इच्छा हुई प्रभु का सुमिरन किया, जब इच्छा हुयी सो गये, जब इच्छा हुयी आरती किया, पूजा किया, नहीं हुयी तो पड़े रहें। संन्यास कर्म निर्धारित, नियमित दिनचर्या है, नित्य प्रति ईश्वर का अनुग्रह प्राप्त करना, दैनिक कार्यो को पूर्ण करना, जीवन को संयमित, सुविचारो, सुसंस्कारों से युक्त करना, संन्यास कर्म कहलाता है।
संन्यास मन का विरोध नहीं है, ना ही इच्छाओं का दमन करना, दमन करने से ज्वाला फटने की प्रबल आशंका रहती है, और विरोध से टूटने की संभावना रहती है, दोनो ही स्थितियां भयावह है। संन्यास मन के भावों को परिवर्तित कर देने की क्रिया है, जैसे किसी व्यक्ति की इच्छा है, कि मैं दो घण्टे फलां मूवी देखूगां, अगले ही पल वह इस विचार को परिवर्तित कर कहे, नहीं मैं दो घण्टे ईश्वर का ध्यान लगाऊंगा, इससे मुझे मानसिक शांति और शक्ति दोनों प्राप्त होगी, पर यदि यही कार्य वह मजबूरी वश अथवा विवशता से करे तो पहले वाले का दमन होगा, और उसका विस्फोट होना स्वाभाविक है, इसलिये दमन ना करें, परिवर्तित करें, सकारात्मक चिंतन के साथ दोनों का विश्लेषण करते हुये, और एक बार मन कहेगा कि नहीं मूवी देख लेते हैं, क्योंकि मन रस लेने को इच्छित रहेगा, यहीं पर अपने मन के पार जाना है, मन पर विजय प्राप्त करना है, दमन नहीं करना है, मन को ध्यान में रस प्राप्त होने लगे इस योग्य अपने को निर्मित करना है, बनाना है, और ऐसे भाव-चिंतन द्वारा आप अपने मन पर विजय प्राप्त कर सकेंगे, और संन्यास के मूल स्वरूप को समझने की ओर बढ़ने में समर्थ हो सकेंगे, संन्यास भाव को आत्मसात कर सकेंगे। विचारों के द्वन्द्वों से पार होने के योग्य बन सकेंगे।
आपके संन्यास शक्ति युक्त मंगलमय जीवन की शुभकामनाओं सहित———!!
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,