शिष्य को निरन्तर चिंतन करना है कि अब मेरा तन, मन, प्राण, रोम-रोम सदैव गुरु के ही नाम का स्मरण करे।
शिष्य को गुरु-मूर्ति का अपने हृदय में ध्यान करना चाहिये, इस प्रक्रियानुसार शिष्य द्वारा हृदय-कमल के आसन पर गुरु के स्वरूप को स्थापित करके, ध्यानावस्था में उनका चिन्तन करने से, विशेष कर उनके चरणों का ध्यान करने से चित्त की एकाग्रता बढ़ती है।
शिष्य को गुरु के प्रति सदैव कृतज्ञ होना ही चाहिये, क्योंकि उनकी कृपा से ही शिष्य का जीवन सौभाग्यमय बनता है।
शिष्य को गुरु चरणोदक का पान अवश्य करना चाहिये क्योंकि गुरु चरणोदक केवल जल मात्र नहीं होता, अपितु गुरु का तपस्यांश चरणों के अंगूठे के माध्यम से उसमें समाहित होकर शिष्य का कल्याण करता है।
शिष्य को प्रत्येक प्रकार से प्रयत्न कर गुरु की खोज एवं उनकी कृपा-प्राप्त करना आवश्यक है क्योंकि इस संसार के विषय-भोग इतने रमणीय और सुखद हैं, कि इनके मोह-पाश से निकल पाना सर्वगम्य नहीं है, इस आसक्ति से जीव को बाहर निकालने के लिये गुरु का आश्रय लेना ही पड़ता है।
शिष्य को प्रातः, मध्य और सांय तीनों कालों में अभिवादन करना चाहिये क्योंकि गुरु अपनी तपस्या के माध्यम से अनुग्रह वश शिष्य को दुःखों से निकाल कर ले जा सकते हैं।
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