राजा जनक के उत्तर सुनकर अष्टावक्र को विश्वास हो गया कि इसे आत्म-ज्ञान हो चुका है क्योंकि आत्म-ज्ञानी की जैसी स्थिति होती है, वैसा ही वह अनुभव कर रहा है। अब इस प्रकरण में वे जनक को मोक्ष का उपदेश देते हैं। अष्टावक्र कहते हैं कि जब आत्म-ज्ञान की स्थिति को तूने जान लिया है तू शुद्ध चैतन्य मात्र आत्मा है, तेरा कोई संगी-साथी नहीं है, तू अकेला है फिर तू किसे त्यागना चाहता है। त्याग उसका किया जाता है जिसे तुम अपना मानते हो। जो तुम्हारा है ही नहीं उसका तुम त्याग कैसे कर सकते हो? यह सब जिसे तुम अपना समझ रहे हो वह मात्र देहाभिमान के कारण है। देहाभिमान से ही यह संसार अनंत शरीरों वाला दिखाई देता है तथा मनुष्यों में जो परस्पर सम्बन्ध हैं वे सब देहाभिमान के कारण ही हैं। इस देहाभिमान के कारण ही आत्माओं में भी भेद दिखाई देता है कि जितने देह हैं उतनी ही आत्मायें हैं, देह अनंत हैं इसलिये आत्मायें भी अनंत हैं। यह मेरा, तेरा, अपना, पराया आदि के समस्त भेद भी देहाभिमान के कारण हैं। इसी देहाभिमान के कारण ही लोग वस्तुओं को अपनी समझ कर दान करते हैं, उनका त्याग करते हैं। यह मोह, लोभ, ममता आदि भी देहाभिमान के कारण ही हैं। यह धन-दौलत, महल, पत्नी, पुत्र, सम्बन्धी आदि छोड़ने से कुछ नहीं होगा। देहाभिमान ही सबसे बड़ा बन्धन है। इसके त्याग से ही मोक्ष हो जाता है। यह देहाभिमान ही अज्ञान है, दीया जलने पर अंधेरे का त्याग नहीं करना पड़ता, जो है ही नहीं उसका त्याग कैसा? इस देहाभिमान के कारण ही तुम्हें यह भ्रान्ति हो गई थी कि यह मेरा है इसलिये त्याग की बात सोचते हो। ज्ञान के प्रकाश में ही तुम्हें इस सत्य का ज्ञान हो सकता है। इस देहाभिमान की भ्रान्ति का मिट जाना ही मोक्ष है, अतः तू इसे मिटाकर मोक्ष को प्राप्त हो।
अष्टावक्र मोक्ष का उपाय बताते हुये कहते हैं कि यह आत्मा समुद्र के समान है एवं यह संसार उस समुद्र में उठे बुद्-बुदे की भाँति है इसलिये यह संसार आत्मा से भिन्न नहीं है। समस्त सृष्टि एक है। इस प्रकार के एकत्व भाव को ग्रहण करके तू मोक्ष को प्राप्त हो। देवी भागवत में भी कहा है- यह बन्धन और मोक्ष मन के ही धर्म हैं, मन के शान्त होने से बन्धन और मोक्ष का नाम भी नहीं रहता। आत्मा में मन के लय करने से सारा जगत् लय को प्राप्त हो जाता है। अष्टावक्र कहते हैं कि जब तक आत्मा के एकत्व का बोध नहीं होता तब तक मोक्ष नहीं है।
अज्ञानी को यह दृश्यमान जगत् स्थूल होने से प्रत्यक्ष दिखाई देता है क्योंकि उसे इस आत्म-तत्व का कुछ पता नहीं है। किन्तु उसके पीछे जो सूक्ष्म है वह इन्द्रियों का विषय नहीं होने से प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देता। आत्म-ज्ञानी ही इस तत्व को जानने में सक्षम है। अतः अष्टावक्र कहते हैं कि यह दृश्यमान जगत् प्रत्यक्ष होता हुआ भी रज्जु सर्प की भाँति तुझ शुद्ध, चैतन्य, आत्म-ज्ञानी के लिये सत्य नहीं है। तेरे लिये तो एकमात्र यह आत्मा ही सत्य है। ऐसा मानकर तू मोक्ष को प्राप्त हो। आत्म-तत्व में दृढ़ निष्ठा वाला होना ही मुक्ति है।
अष्टावक्र कहते हैं कि जब तूने यह जान लिया है कि यह आत्मा पूर्ण है और मैं शरीर नहीं आत्मा ही हूँ इसलिये मैं भी पूर्ण ही हूँ। यह सुख-दुःख मन के धर्म हैं, आशा-निराशा चित्त के धर्म हैं तथा जीवन और मृत्यु शरीर के धर्म हैं। तू इन तीनों से परे चैतन्य आत्मा है जो साक्षी है। अतः ये आत्मा के धर्म कदापि नहीं हैं। इसलिये जब तूने अपने को आत्मा जान लिया तो तेरे लिये ये सब समान हैं। तुझे न इनसे प्रसन्नता है न दुःख। ऐसा स्थितप्रज्ञ होकर तू मोक्ष को प्राप्त हो।
अष्टावक्र इन चार सूत्रों में मुक्ति का उपदेश करते हैं कि – देहाभिमान का त्याग, अद्वैत आत्मा का बोध, जगत् की भ्रान्ति का त्याग तथा द्वन्द्वों में समत्व-बुद्धि का होना ये चार धारणायें आत्म-ज्ञानी को मुक्त करा देती हैं।
पाँचवें प्रकरण में अष्टावक्र राजा जनक के आत्म-ज्ञान पर आश्वस्त होकर उन्हें मुक्ति का उपाय बताते हैं। साथ ही वे परोक्ष रूप से उनकी परीक्षा भी ले रहे हैं कि इसे मोक्ष की चाह है या नहीं। यदि चाह है तो इसका अर्थ है अभी मोक्ष हुआ नहीं। जहाँ न कुछ पाने को है, न छोड़ने को, न राग है, न विराग, न आसक्ति है न विरक्ति, यहाँ तक कि न संसार है न मुक्ति: चित्त की ऐसी शून्य एवं जाग्रत अवस्था का नाम ही मोक्ष हैं यहाँ पहुँचा हुआ व्यक्ति शुद्ध चैतन्यमात्र रह जाता है। समाधि की स्थिति में जब व्यक्ति शून्यावस्था को प्राप्त हो जाता है तब उसे ब्रह्मात्मैक्य का बोध हो जाता है। वह व्यष्टि न रह कर समष्टि के साथ एक हो जाता है, वह पूर्ण सत्तावान् ब्रह्म को जान लेता है, जान लेने से वह स्वयं ब्रह्म हो जाता है, वह सत्य को जानकर स्वयं सत्य हो जाता है। इस स्थिति में पहुँचने से पूर्व कई क्रियायें करनी पड़ती हैं किन्तु पहुँचने पर उन सबको छोड़ना भी आवश्यक हो जाता है वरना वे ही क्रियायें उसका बन्धन बन जाती हैं। नदी पार करके किनारा आने पर नाव भी छोड़नी पड़ती है। फिर उसको ढोना मूर्खता ही है। पहुँचने पर शास्त्र, कर्म-विधि, विधान, ध्यान, धारणा, समाधि आदि सब छोड़ना आवश्यक हो जाता है क्योंकि इनकी उपयोगिता ही समाप्त हो गयी, मंदिर, पूजा, उपासना सब व्यर्थ हो गये। जीवन में इनकी उपयोगिता है, मोक्ष में इनकी कोई उपयोगिता नहीं है। संसार जागने के लिये बनाया गया है कि यहाँ सुख-दुःख आदि सब द्वन्द्वों का अनुभव करके तुम जागो।
अष्टावक्र जनक की मुक्तावस्था की स्थिति को जानने हेतु जो उपदेश देते हैं जनक उनका उत्तर देते हुये कहते हैं कि – मैं शरीर नहीं आत्मा हूँ। जिस प्रकार यह आकाश अनन्त है, असीम है, इसकी कोई सीमा नहीं है उसी प्रकार मैं आत्म-रूप होने से इस आकाश की भाँति ही अनन्त हूँ। यह संसार उसी आत्मा का साकार रूप है, उसी का स्थूल रूप है जो घट की भाँति है। जब यह सम्पूर्ण सृष्टि एक ही आत्म-तत्व है तो फिर इसका त्याग, ग्रहण और लय कैसे व किसमें हो। त्याग, ग्रहण व लय में दो का होना आवश्यक है तब एक का त्याग, ग्रहण व लय दूसरे में होता है, अन्यथा नहीं। जब मैंने देख लिया कि आत्मा एक ही है व वही सत्य है ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ ‘नेह नानास्ति किंचन’ ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’ तो फिर किसका किसमें लय हो, क्या त्याग हो और क्या ग्रहण हो।
जनक दूसरा उदाहरण देते हुये कहते हैं कि मैं आत्म-रूप होने से समुद्र के समान हूँ एवं यह जगत् मेरी ही तरंगों के समान है, ऐसा ज्ञान मुझे हो चुका है। भिन्नतायें जो भ्रान्तिवश प्रतीत हो रही थीं सब मिट चुकी हैं इसलिये न इसका त्याग है न ग्रहण है न इसका लय है। ऊपर के उदाहरण में आकाश एवं घट में भी भिन्नता की प्रतीति होती है कि घट एवं आकाश भिन्न तत्व हैं। इसलिये जनक इस दूसरे उदाहरण में लहर और सागर का उदाहरण देकर अद्वैत की स्थिति को स्पष्ट करते हैं कि आत्मा एक ही है, इसका न निर्माण होता है न विनाश। इसलिये न इसे छोड़ा जा सकता है, न ग्रहण किया जा सकता है, न इसका किसी में लय ही होता है।
ऊपर के उदाहरण में समुद्र और उसकी तरंगों में फिर थोड़ी भिन्नता दिखाई देती है अतः जनक इस सूत्र में तीसरा उदाहरण देकर और स्पष्ट करते हैं कि यह जगत् समुद्र व तरंगों की भाँति भी नहीं है क्योंकि लहरों का लय समुद्र में होना संभव है। किन्तु मैं (आत्मा) सीपी के समान सत्य हूँ एवं इस विश्व की कल्पना उस सीपी में चाँदी की भ्रान्ति के समान है। अतः भ्रान्ति रूप होने से न इसका त्याग है, न ग्रहण है, न लय है। ऐसा ज्ञान है।
उपरोक्त तीनों उदाहरणों में अद्वैत की पूर्ण व्याख्या नहीं हो पाई। इनमें भी थोड़ी-थोड़ी भ्रान्ति रह ही जाती है अतः जनक इस चौथे उदाहरण द्वारा और स्पष्ट करते हुये कहते हैं कि मैं आत्म-रूप होने से सभी भूत पदार्थों में हूँ तथा ये सभी भूत मुझमें हैं। ऐसी आत्मा एवं सृष्टि की अभिन्न स्थिति है। ये समस्त भूत-समुदाय शारीरिक रूप से भिन्न-भिन्न प्रीत होते हुये भी सभी मेरे ही रूप हैं। रूप और अरूप का, सूक्ष्म और स्थूल का, निराकार और साकार का तत्वतः कोई भेद नहीं होता। वाष्प भी जल ही है व जल भी वाष्प ही है। केवल आकार-भेद से तत्व में भेद नहीं होता। ऐसी ही आत्मा और सृष्टि है। इसलिये न इसका त्याग है, न ग्रहण है, न लय है।
इस अद्वैत को और भी कई उदाहरणों से समझाया जाता है जैसे सूत और वस्त्र, माला की मणियाँ व धागा, आकाश और उसकी नीलिमा आदि। ऐसा ही सृष्टि एवं आत्मा (ब्रह्म) का सम्बन्ध है।
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