शब्दों से मुझे पहिचाना नहीं जा सकता, अगर मेरी परिभाषा ही करनी है तो कोई नया शब्द गढ़ना होगा, नये शब्द का सृजन करना होगा क्योंकि मैं एक साथ कई-कई रूपों में हूं।
अब तुझे भटकने नहीं दूंगा, अब जीवन की ऊबड़-खाबड़ पगडंडी पर धक्के खाने नहीं दूंगा, अब जीवन के जंगल में अकेले नहीं छोड़ूंगा, निश्चिन्त रहो, अब मैंने तुम्हारा हाथ कस कर पकड़ लिया है, हमेशा-हमेशा के लिये।
तुम बड़े भोले हो मेरे राजहंस! तुमने भुला दिया है अपने कुल को, अपने स्वभाव को और अपने व्यक्तित्व को, और बैठ गये हो इन बगुलों के बीच अपने आप को भी बगुला समझ बैठे हो।
इस पूरे आकाश में उड़ने और अपने पंखों को खोलने की तुम में क्षमता है, इस मानसरोवर में गहरी डुबकी लगाने की तुममें कला है, मैं तुम्हें यही सब कुछ तो समझाने सिखाने आया हूं, क्योंकि मैं तुम्हारा गुरु हूं।
गुरु तो अपने आप में सजीव आशीर्वाद है, जो पृथ्वी पर मानव रूप में विचरण करते हैं, क्योंकि उनकी देह दिव्यात्मा है, सप्राणता है, चैतन्यता है। उन्होंने जो कुछ कहा, वह काव्य हो गया, जो कुछ देखा वह सौन्दर्य हो गया, जो कुछ व्यक्त किया वह संगीत बन गया।
गुरु का चरण जहां पड़े, वह इतिहास की धरोहर हो गई, जिस पत्थर को उन्होंने स्पर्श किया वह ‘काबा’ बन गया, ‘काशी’ बन गई। जो उनके पास बैठ गया, वह सुरभिमय हो गया, सुगन्धित हो गया, अष्टगंधा युक्त बन गया और जिसने उन्हें स्पर्श कर लिया, उनका सही अर्थों में गंगा स्नान हो गया।
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