जबकि बहस में स्वतंत्रता जैसी कोई बात नहीं है, लोग बहस केवल अपनी चलाने के लिये करते हैं। अनादि से अब तक लोग केवल गुलाम ही रहें, कभी स्वतंत्रता की खुश्बु उनके नथुनों को स्पर्श ही नहीं कर सकी, कभी स्वतत्रंता उनके हृदय में उतरी ही नहीं, और जिन बातों को आप स्वतंत्रता का नाम दे रहें है, ये सामाजिक मर्यादा है, एक ताना-बाना है, जीवन जीने की एक परम्परा बनी जिसके अनुसार अलग-अलग समुदाय के लोग अपना-अपना जीवन उस समुदाय के नियमों का पालन करते हुये जी सकें। लेकिन लोगों ने एक-दूसरे को नीचा दिखाने, स्वयं को श्रेष्ठ बताने में ही सारी ऊर्जा लगा रखी है।
स्वतंत्रता के मूल चिंतन से बड़ी अनभिज्ञता है, मनुष्य Blind युक्त जीवन जी रहा है, हैं तो उसके पास दो-दो आंखे, बिल्कुल मोती जैसे अनमोल, परन्तु वह अंधे से कम नहीं है, बिल्कुल अंधेरे से घिरा है, जीवन के ओर-छोर से अनभिज्ञ है। समझाया भी नहीं जा सकता है, क्योंकि जिसे समझना है, वह समझने को तैयार नहीं और समझने को जो तैयार है, उसको समझाने को कुछ भी बचा नहीं वह केवल तर्क-कुतर्क ही कर सकता है, जहां तर्क है, वहां समझने जैसी कोई बात नहीं है, इसलिये संत लोग तार्किक को दूर से ही प्रणाम कर लेते हैं, भईया तू ही बुद्धिमान है, तेरे जैसा कुशाग्र बुद्धि वाला तो कोई है ही नहीं। संत को मालूम होता है, बाहर से ये खूब बहस करेगा, पर अन्दर से खोखला है, तार्किक बाहर की ओर बहस कर सकता है, अन्दर की कोई भी चीज उसे पता ही नहीं होती है।
बाहर-भीतर का कोई ताल-मेल नहीं है, बाहर के बिल्कुल विपरीत भीतर की स्थितियां होती है, बाहर देखने के लिये आंखे खोलनी पड़ती हैं, भीतर देखने के लिये बंद करनी होती हैं, एकदम विपरीत जाना पड़ता है, आपने देखा होगा, आंखे बंद करके एक प्रकाश सा दिखायी देता होगा, धीरे-धीरे वह प्रकाश प्रबल और प्रगाढ़ हो जाता है। भीतर जाने के लिये एकदम से उल्टी क्रिया करनी होती हैं। इसलिये तार्किक को समझाया नहीं जा सकता है, और इसकी कोई आवश्यकता भी नहीं है। संसार में व्यक्ति को प्रकाश चाहिये, उसी के सहारे वह चलता है, बिना प्रकाश के आप चल नहीं पाओगे, चाहे वह प्रकाश विद्युत से प्राप्त होती है अथवा सूर्य से, लेकिन चाहिये आपको चलने के लिये प्रकाश, जहां इन्द्रियां ले जाती हैं, उसी ओर आप चल देते हो, आपको आपकी इन्द्रियां चला रहीं हैं, आप इन्द्रियों द्वारा चलने वाले मात्र एक यन्त्र हो, मन ने जो कहा आपने किया, मन कहेगा रोना है, तो आप रोने लगोगे, वह बोलेगा हंसना आप हंसने लगोगे, आपकी इन्द्रियों ने जो अनुभव किया, उसे ही आप सत्य मानते है, आपकी इन्द्रियों ने जो समझाया वही आप समझ सके, तो आप स्वतंत्र कैसे हुये, आप तो गुलाम हो अपनी इन्द्रियों के, अपने मन के, समाज ने जो बताया, लोगो ने जो कहा, उसी ओर आप चल पड़े।
वास्तविक स्वतंत्रता तो तब होगी, जब स्वयं का कोई अस्तित्व हो, लेकिन जीवन तो उसी तरह हो गया है, जैसे नदी में लकड़ी का टुकड़ा बहता है, लहरे जहां ले जाती हैं, चला जाता है। हवा के धक्के जहां पहुंचाते हैं, पहुंच जाता है। अपना कोई व्यक्तित्व नहीं, निजता नहीं, जीवन एक भटकाव बना हुआ है। जिस ओर परिस्थितियां ले गयीं उसी ओर चल दिये। वास्तव में स्वतंत्रता तो तब होगी, जब आप आज्ञा दो और आपकी इन्द्रियां सक्रिय हो जायें, आपके अनुसार आपकी इन्द्रियां चलें, आप इन्द्रियों के नहीं इन्द्रियां आपके नियंत्रण में रहें। तब ही वास्तविक स्वतंत्रता होगी, अन्यथा ऐसे ही इन्द्रियों के वशीभूत होकर अन्य-अन्य कर्मों को करते रहेंगे।
इन्द्रियों से मुक्त होना क्यों आवश्यक है, इसको भी समझना अनिवार्य है, इन्द्रियां प्रत्येक वस्तु में रस लेती हैं, उनका अच्छे-बुरे से कोई लेना-देना नहीं है, वे जहां भी रहेंगी, रस लेंगी। इन्द्रियों को बुराईयों में भी रस मिलता है और अच्छाई में भी, आज के समाज में बुराई सरलता से उपलब्ध है और इन्द्रियों का काम बन जाता है, जहां भी रस सरलता से मिल जाये, ये उसी ओर ले जाती हैं। परन्तु आत्मा सदा सद्गति पर अग्रसर करती है और आप एक आत्मा हो, परम शक्ति ईश्वर के अंश हो, आप अपनी पहचान भूल सकते हैं, लेकिन वह शक्ति जो आपमें है, वह सदा अपनी पहचान अपने व्यक्तित्व को स्पष्ट करने के लिये संघर्ष करती रहती है। परन्तु इन्द्रियों से निकलने का कोई उपाय आपके द्वारा नहीं होता, केवल इसीलिये वह बंधक बना हुआ। बुराई में मजा है और मजा लेने वालों की संख्या अंनत है, हर कोई मजा लेना चाहता है। संत कहता है, मैं तुम्हें आनन्द से मिला दूंगा, आप सोचते हो, ओह आनन्द! आनन्द Means Enjoy, Enjoy Means मजा, बिल्कुल नहीं आनन्द और मजा की कोई तुलना ही नहीं है, आनन्द जीवन की वह अमूल्य वस्तु है, जिसके लिये हजारो लोगों ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया तब उन्हें आनन्द का अनुभव हुआ, और जिन्हें आनन्द का अनुभव हुआ, उन्हें मजा जैसी शब्द से घृणा हो गयी, वे मजा की ओर देखना भी पसन्द नहीं करते। लेकिन आनन्द को प्राप्त करने की शर्ते हैं, प्राप्त तो बहुत सरलता से हो सकता है, पर शर्ते पूरी करनी होंगी।
आनन्द को प्राप्त करने की पहली शर्त यही है, स्वयं को जान लो, जिसने स्वयं को जान लिया वह आनन्द से मिल सकता है, स्वयं को जानने के लिये अपनी इन्द्रियों की गुलामी से तुम्हें स्वतंत्र होना होगा, अपनी इन्द्रियों को अपने नियंत्रण में करना होगा। प्रारंभ में कुछ भी आसान नहीं लगेगा, शरीर की सारी शक्तियां विद्रोह करेंगी, बड़ी अफरा-तफरी होगी, इन्द्रियां पूरी ताकत से अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ेंगी और आप अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़े, जो वास्तविक योद्धा होगा, वह निश्चित विजयी होगा और आप एक योद्धा हैं, शेर हैं, आपके भीतर ज्वाला धधक रही है, उसी से आपको सम्पर्क बनाना है। यही ज्वाला इन्द्रियों की वासना को भस्म कर आपको स्वर्ण की भांति व कुन्दन की तरह दैदीप्यमान बनायेगी। तब ही आप स्वयं को वास्तविक रूप से स्वतंत्र कह पायेंगे। आपका जीवन आपके नियंत्रण में हो पायेगा। फिर जीवन में कुछ भी आकस्मिक घटना नहीं घटेगी, जो भी होगा, उसका पूर्व में भान रहेगा, जिसका पूर्व में भान होता है, उसके लिये कोई सुख-दुःख नहीं होता है।
स्वतंत्र जीवन ही आनन्द से युक्त हो सकता है, जहां पर स्वतंत्रता है, वहीं आनन्द विद्यमान होता है। प्रत्येक बंधन से मुक्त होने की क्रिया प्रारम्भ करें, इन्द्रिय शक्तियों पर विजय प्राप्त करें और सदाशिव की भांति सदा आनन्द मग्न हो जायें, महाकाल की चेतना शक्ति स्वयं के भीतर भरने की क्रिया की ओर उन्मुख हों, अपने आप पर विजय प्राप्त करें, स्वतंत्र जीवन की ओर अग्रसर होने की क्रिया महाशिवरात्रि के महाचैतन्य अवसर पर महाकाल की नगरी उज्जैन में नारायण भगवती की चेतना शक्तियों के माध्यम से सम्पन्न करनी की इच्छा शक्ति आपमें होनी चाहिये। भगवान सदाशिव महादेव योग व भोग शक्तियों से युक्त हैं, वैसा ही आपका जीवन शिवमय बने, आप सभी का हृदय भाव से आह्नान करता हूं, आईये! इस शिव-गौरी परिणय शक्ति पर्व पर स्वयं से, अपने आप से परिणयमय क्रियायें सम्पन्न कर, स्वयं से मिलते हैं, अपने को जान लेने की ओर एक कदम और बढ़ाते हैं—- इस पावन पवित्र चैतन्य अवसर पर आप महाकाल ज्योतिर्लिंग की रश्मियों को अपने भीतर आत्मसात करने की दृढ़ इच्छा से आपूरित हो सकें————–ऐसा ही शुभकामना देता हूं—–!!!!
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