गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि-
अर्थात् जो व्यक्ति कर्म फल पर आश्रित न रहकर कर्म करता है वही संन्यासी है, वही योगी है। जीवन में पढ़ाई, लिखाई, नौकरी, विवाह इत्यादि जितने भी कर्म हैं वे सब फल के अधीन हैं। फल की आशा को त्याग कर कोई भी व्यक्ति कर्म नहीं करता है और यही उसकी समस्याओं का मूल कारण है। जीवन में निरंतर कर्म करना चाहिए, लेकिन हर समय फल की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए। कर्म और कर्तव्य में बहुत अधिक अन्तर है, जो कर्म कर्तव्य भाव से किया जाता है, उसमें व्यक्ति उसके कर्म के फल से चिपकता नहीं है जबकि बिना कर्तव्य की सकाम, क्रिया ऐसा कर्म बनती है जो उसे निरंतर बंधनों में लपेटती रहती है। जिस कर्म के फल में मनुष्य की बुद्धि लिप्त है और जो कर्म इच्छा से प्रेरित होकर किया जाता है वही कर्म फल, संस्कार तथा जन्म-मरण के कारण बनते हैं। लेकिन जो कर्म कामना रहित फल की आशा से मुक्त होकर किया जाता है तो उसे कर्मयोग कहते हैं।
व्यक्ति संसार रूपी भूमि में जो बीज बोता है उसका फल अवश्य ही प्राप्त होता है। लेकिन यदि बीज को भून करके बोया जाए तो उससे वृक्ष की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। संसार में आकर मनुष्य कामना के आवरण में इस प्रकार लिप्त हो जाता है कि उसे जीवन में उसका फल सुख-दुख, लाभ-हानि, जन्म-मरण, सम्पत्ति-विपत्ति, रोग, जरा अपमान आदि रूप में प्राप्त होता है। लेकिन यदि इसी कर्म को कर्तव्य की अग्नि में तपा दिया जाए तो उस पर किसी प्रकार का प्रभाव नहीं पड़ता।
सद्गुरुदेव निखिल के संन्यास आश्रम प्रवेश दिवस कार्तिक पूर्णिमा की दिव्यतम चेतना में जीवन कर्मफल के इन्हीं सिद्धान्तों की चेतना को आत्मिक रूप से सभी समर्पित शिष्य आत्मसात कर सकेंगे। जो अपने आप में अत्यन्त दुर्लभ दीक्षा है। इस दीक्षा के माध्यम से साधक-शिष्य अपनी आत्म चेतना से सम्पर्क स्थापित कर जीवन के सभी मूल कर्तव्यों का निर्वाह पूर्ण कर्मयोग स्वरूप में करने में सफल होता है। जिससे उनके सांसारिक जीवन में सुख-शांति, प्रसन्नता, आनन्द का वातावरण निर्मित होता है और वे अपने सांसारिक जीवन को श्रेष्ठतम स्वरूप में व्यतीत करते हुए पूर्णता की प्राप्ति करने की ओर अग्रसर होते हैं।
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