नर्मदा नदी भारतीय प्रायद्वीप की पांचवी बड़ी नदी मानी जाती है। विन्ध्य की पहाडि़यों में स्थित अमरकंटक वन प्रदेश है। अमरकंटक को ही नर्मदा का उद्गम स्थल माना गया है। यह समुद्र तल से 3500 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। यहां नर्मदा एक गौमुख से निकलती है, कहा जाता है प्राचीन समय में मेकल, व्यास, भृगु और कपिल आदि ऋषियों ने यहां तप किया था। साधनात्मक दृष्टि से यह स्थान तेजमय और ओजस्वी है। भारत में चार नदियों को चार वेदों के रूप में जाना जाता है। गंगा को ऋग्वेद, यमुना को यजुर्वेद, सरस्वती को अथर्ववेद और नर्मदा को सामवेद। नर्मदा को मध्य प्रदेश की जीवन रेखा भी कहा जाता है। पर्वतराज मैखल की पुत्री नर्मदा रेवा नाम से भी जानी जाती है।
भारत की सात प्रमुख नदियों में नर्मदा एक है, गंगा नदी के बाद नर्मदा नदी का महत्व ही सर्वाधिक है। स्कन्द पुराण का रेवा खण्ड माँ नर्मदा पर ही समर्पित है। नर्मदा नदी को चिरकुमारी कहा जाता है, इसी कारण इस नदी को परम पवित्र माना गया है, संसार में नर्मदा ही एकमात्र नदी है, जिसकी परिक्रमा की जाती है। यह परिक्रमा भिक्षा मांगते हुये नंगे पैर करना होता, जिसमें नियमों के अनुसार 3 वर्ष 3 माह 13 दिन लगते हैं।
एक समय की बात है सभी देवता भगवान विष्णु और ब्रह्मा के साथ भगवान शिव के पास गये। भगवान शिव उस समय अंधकासुर नामक दैत्य का संहार कर मैकल पर्वत पर समाधिस्थ थे। देवताओं के अनेक प्रकार से स्तुति करने पर भगवान शिव ने आंखे खोली। तब देवताओं ने उनसे कहा- हे प्रभु! हम देवता भोगों में रत रहते है और सुरक्षा के कारणों से राक्षसों का वध करते रहते हैं, जिसके कारण हमें अनेक प्रकार से पाप का भागीदार बनना पड़ता है। हे दीन दयाल! हमारे पापों की निवृत्ति कैसे होगी?
उसी समय शिव जी की भृकुटि से एक तेजोमय पसीने की बूंद धरा पर गिरी, जिससे एक दिव्य 12 वर्षीय कन्या का आविर्भाव हुआ, उस कन्या के दिव्य स्वरूप को देखकर देवताओं ने उसका नाम नर्मदा रखा और उसे आशीर्वाद् दिया।
इस कन्या ने काशी के पंचकोशी क्षेत्र में 10 हजार वर्षो तक भगवान शिव के निमित्त तप करके उनसे निम्न वरदान प्राप्त किये, जो सम्पूर्ण तीर्थों और नदियों में सर्वोत्तम है।
अर्थात् तुम सभी पापों का हरण करने वाली होगी तथा तुम्हारे जल के पत्थर शिव तुल्य पूजे जायेंगे। इसी श्लोक के अनुरुप माँ नर्मदे के तट पर पाये जाने वाले कंकर-कंकर को शंकर कहा जाता है। नर्मदा नदी सर्वत्र पुण्यमयी है तथा इसके उद्भव से संगम तक दस करोड़ तीर्थ विद्यमान है। इसी कारण नर्मदा नदी अपने आप में सर्वाधिक महत्वपूर्ण और अक्षुण्ण पुण्यदायी मानी जाती है। इनकी उपासना, आराधना से शिवत्व की प्राप्ति और अभीष्ट की पूर्ति होती है।
ऐतिहासिक दृष्टि से भी नर्मदा के तट बहुत ही प्राचीन माने जाते हैं। पुरातत्व विभाग मानता है कि नर्मदा के तट पर प्राचीन सभ्यताओं के अवशेष पायें गए हैं। ये सभ्यतायें सिंधु घाटी की सभ्यता के समान दिखती है। साथ ही इनकी प्राचीनता सिंधु घाटी सभ्यता से भी पूर्व की मानी जाती है। देश की सभी नदियों की अपेक्षा नर्मदा विपरीत दिशा में बहती है। यह एक पहाड़ी नदी होने के कारण कई स्थानों पर इसकी धारा बहुत ऊंचाई से गिरती है। अनेक स्थानों पर यह बड़ी-बड़ी चट्टानों के बीच से सिंहनाद करती हुई आगे बढ़ती है।
नर्मदा अपने उद्गम स्थल अमरकंटक से निकलकर लगभग 8 किमी दूरी पर दुग्धधारा जलप्रपात तथा 10 किमी दूरी पर कपिलधारा जलप्रपात बनाती हैं। मंडला से आगे बढ़ते हुए जबलपुर के पास बेशकीमती संगरमरमर की गुफाएं निर्मित करती हुई नर्मदा जल से धुआंधार जलप्रपात बनाती है। यहां जलप्रपात की ऊंचाई लगभग 50 फुट है। यहां संगमरमर की चमकती संकरी घाटियों में नर्मदा का अनुपम सौन्दर्य दृश्यमान होता है। माँ नर्मदा अमरकंटक की पहाडि़यों से निकल कर मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात की 1310 किमी का प्रवाह पथ की यात्रा कर खंभात की खाड़ी में विराट रूप धारण कर लेती हैं।
नर्मदा तट पर सबसे बड़ा तीर्थ ऊँकारेश्वर ज्योतिर्लिंग है, जो द्वाद्वश ज्योतिर्लिंगों में एक है। यहां भगवान शिव अभीष्ट मनोकामना पूर्ति देव के रूप में विद्यमान हैं। माना जाता है इस स्थान पर इच्छित मनोकामना अवश्य ही पूरी होती है। कहा जाता है कि वराह कल्प में जब पूरी पृथ्वी जल मग्न हो गई थी तो उस वक्त भी मार्कण्डेय ऋषि का आश्रम जल मग्न नहीं हुआ था। ऋषि मार्कण्डेय का आश्रम आज भी ऊँकारेश्वर में स्थित है।
वास्तव में माँ नर्मदा सकल जीवनदायिनी रूप में धरा पर स्थित हैं, जो माँ स्वरूप में आदिकाल से शिशु स्वरूप सभी मनुष्यों के कंठ को अपने अमृत धारा से निरन्तर सिंचित कर रही हैं।
आपकी माँ
शोभा श्रीमाली
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