बुद्ध ने उसे एक पत्थर दिया और कहा- जाओ और इस पत्थर का मूल्य पता करके आओ, लेकिन ध्यान रखना इसे बेचना नहीं है।
वह आदमी पत्थर को बाजार में एक संतरे वाले के पास लेकर गया और बोला- इसकी कीमत क्या है? संतरे वाला चमकीले पत्थर को देख कर बोला- 12 संतरे ले जा और इसे मुझे दे दो। आगे एक सब्जी वाले ने उस चमकीले पत्थर को देखा और कहा- एक बोरी आलू ले जा और इस पत्थर को मेरे पास छोड़ जा। वह आदमी आगे एक सोना बेचने वाले के पास गया और उसे पत्थर दिखाया। सुनार उस चमकीले पत्थर को देखकर बोला- मुझे 50 लाख में बेच दो। उसने मना कर दिया, तो सुनार बोला- 2 करोड़ में दे दो या तुम खुद ही बता दो इसकी कीमत क्या है, जो तुम मांगोगे वह दूंगा।
उस आदमी ने कहा- मेरे गुरु ने इसे बेचने से मना किया है। आगे वह आदमी हीरे बेचने वाले एक जौहरी के पास गया और उसे वह पत्थर दिखाया। जौहरी ने जब उस बेशकीमती रूबी को देखा, तो पहले उसने रूबी के पास एक लाल कपड़ा बिछाया, फिर उस बेशकीमती रूपी की परिक्रमा लगाई, माथा टेका। फिर जौहरी बोला- कहां से लाया है ये बेशकीमती रूबी? सारी कायनात, सारी दुनिया को बेचकर भी इसकी कीमत नहीं लगाई जा सकती, ये तो बेशकीमती है। वह आदमी हैरान-परेशान होकर सीधे बुद्ध के पास आया। अपनी आप बीती बताई और बोला- अब बताओ भगवन! जीवन का मूल्य क्या है?
बुद्ध बोले- संतरे वाले को दिखाया उसने इसकी कीमत 12 संतरे की बताई। सब्जी वाले के पास गया उसने इसकी कीमत 1 बोरी आलू बताई। आगे सुनार ने इसकी कीमत 2 करोड़ बताई और जौहरी ने इसे बेशकीमती बताया। यही मूल्य मनुष्य जीवन की भी है, तू बेशक हीरा है—-!! लेकिन, सामने वाला तेरी कीमत अपनी क्षमता, अपनी जानकारी और अपनी हैसियत के अनुसार ही लगायेगा। आपकी भी यही दशा है, निःसंदेह यह जीवन, यह शरीर अमूल्यवान है। लेकिन इसका सही कीमत वही जान सकता है, जो चेतनावान, जिसमें जागृति का भाव है, जो अपनी चेतना को जाग्रत करने की क्रिया में संलग्न है। वह जान सकता है कि मानव देह क्या चीज है और उस मानव देह में चैतन्य गुरु का मिलना कितना बड़ा संयोग है।
सब्जी वाला, फल वाला, सुनार और अन्य अनेक संसार का पूरी तरह भोग करने वाला नास्तिक, ये इसकी सही कीमत नहीं बता सकते, इसकी सही कीमत जौहरी को मालूम है और आप सभी जौहरी बन सकते हैं, केवल आपको इसके लिए सूर्य के पद्चिन्हों का अनुसरण करना है, सूर्यमय बन जाने की क्रिया करनी है। सूर्य के गुणों को ग्रहण करो, अपने केन्द्र से भटको नहीं। मत भूलो इस बात को पहले तुम मनुष्य हो और तुम्हारा मनुष्य होना ही अपने आप में बड़ी उपलब्धि है। ऋग्वेद के दसवें मण्डल में एक मन्त्र आता है-
प्राचीन काल में ब्रह्मचारी गुरु के पास शिक्षा के लिए जाता तो गुरु उसे सूर्य के समक्ष खड़ा करके कहते-
उस सूर्य को देखो, इसके पीछे-पीछे चलो, यह तुम्हारे जीवन का आदर्श है और ब्रह्मचारी यजुर्वेद का मन्त्र उच्चारण करते हुये कहता-
मैं सूर्य के पद् चिन्हों पर सूर्य के पीछे-पीछे चलने का निश्चय करता हूं, इसके पश्चात् वह प्रतिदिन प्रार्थना करता है-
हे भगवन! मैं सूर्य की भांति दैदीप्यमान बनूं और प्रकाशवान हो जाऊं, सूर्य की भांति श्रेष्ठतम बन जाऊं और सूर्य के पीछे चलूं। इसका तात्पर्य है, मैं सूर्य के गुणों को धारण कर लूं और सूर्य का पहला गुण है कि वह निरन्तर क्रियाशील है, लगातार घूमता रहता है, घूमता तो है वो परन्तु अपना केन्द्र नहीं छोड़ता।
चन्द्रमा पृथ्वी के निकट घूमता है, एक माह में पृथ्वी का एक चक्कर पूरा कर लेता है। पृथ्वी सूर्य के निकट घूमती है, वर्ष-भर में एक चक्कर पूरा करती है। सूर्य भी घूमता है परन्तु किसी के निकट नहीं, अपनी आवृत्ति में, केन्द्र-कीली पर घूमता है, घूमता अवश्य है परन्तु अपना स्थान नहीं छोड़ता।
आप भी इसी प्रकार सूर्य के पीछे चलो, उसके आस-पास घूमते रहो, अपना केन्द्र मत छोड़ो और आपका केन्द्र बिन्दु है आपकी चेतना शक्ति, आपका सद्गुरु! उस पथ से डगमगाओं नहीं, उसे छोड़कर इधर-उधर मत भागो। जब से लोग अपने केन्द्र बिन्दु से फिसल-कर इधर-उधर होने लगे, तभी से उनके जीवन में कष्ट और संकट उत्पन्न होने लगा, तभी से आपकी चेतना शक्ति अपने पथ से पृथक होने लगी। दूसरी बात क्या सिखाता है सूर्य? यह कि- ज्योतिष्मतः पथो रक्ष धिया कृतान। उन मार्गों की रक्षा करो जो सद्बुद्धि से युक्त हैं, जिन्हें तुम्हारे दीर्घदर्शी विद्वान पूर्वजों ने अपनाया। उन मार्गों को छोड़ो नहीं, एक महान और सर्वश्रेष्ठ संस्कृति उन्होंने तुम्हें दी।
इसे भूलकर परस्पर एक-दूसरे से घृणा मत करो। मानवता के महत्व को समझो, उसे छोड़ो नहीं। मनुष्य का पतन होता है तो सबसे पहले उसकी मानवता समाप्त होती है। मिस्टर गिब ने रोमन साम्राज्य के नाम से एक पुस्तक लिखी है, जिसमें वे कहते हैं कि 6 माह तक स्कन्दरिया के पुस्तकालय को रोमन आक्रामक जलाते रहे। 6 माह तक उनके हमाम इस पुस्तकालय की पुस्तकों से गर्म होते रहे। शताब्दियों का ज्ञान जलाकर राख कर दिया गया, तब मानवता कहां रहीं? वख्त्यार खिलजी ने नालन्दा पर आक्रमण किया तो नालन्दा विश्वविद्यालय के महान पुस्तकालय को आग लगा दी। कितने ही बौद्धो का कत्ल कर दिया। तब मानवता कहां थी? चित्तौड़ की रानी पप्रिनी अपनी सखियों और सेविकाओं के साथ जीवित जल गयीं, ताकि एक क्रूर से अपना सतीत्व बचा सकें। यह कैसी मनुष्यता है, जिसमें देवियों को अपने सतीत्व की रक्षा के लिए आत्महत्या करनी पड़े? तो मनुष्यता कहां बची, इसीलिए उपनिषदों ने कहा अपने केन्द्र पर, अपनी आवृत्ति पर चलो, भटक मत जाना, तुम्हारी मनुष्यता बची रहे, इसलिए अपनी चेतना के निकट रहना।
तीसरी बात सूर्य सिखाता है कि सबको प्रकाश दो। परन्तु वह प्रकाश कैसे देता है? कहीं से लैम्प नहीं लाया वह। कहीं से मशाल मांगकर नहीं ले आया। वह स्वयं दैदीप्यमान है, इसलिए दूसरों को प्रकाश देता है। सूर्य के पीछे चलना है, तो पहले अपने भीतर का प्रकाश उत्पन्न करो, फिर दूसरों को प्रकाश दो। दान वह कर सकता है, जो स्वयं धनवान हो। पहले धनवान बनो, मन में उदारता लाओ, फिर दानी बनकर दूसरों के कष्ट दूर करो। जिसके अपने अन्दर ज्योति है वही दूसरों को भी प्रकाश दे सकता है। जिसका अपना ही दीपक बुझा पड़ा है, वह दूसरों को प्रकाश क्या देगा और वह ज्योति आपमें विद्यमान है।
ज्योति से जगमगाता हुआ स्वर्ग आपके भीतर है।
वेद कहते हैं-
आठ चक्रो वाली, नौ द्वारो वाली यह देवताओं की नगरी अयोध्या है- मनुष्य का शरीर। इसमें देवता रहते हैं। इसमें स्वर्ण की भांति दैदीप्यमान ज्योति से भरपूर स्वर्ग है। इस ज्योति को जगाओ। इसके द्वार खोलो, अन्दर चलो। इस ज्योति से अपने आपको प्रकाशित करो, तब तुम इस योग्य बन जाओगे कि दूसरों को प्रकाश प्रदान कर सको।
एक ऋषि थे, वेदों को पढ़ने और कितने ही शास्त्रों के अध्ययन के पश्चात् वास्तविकता को जानने में सफल हुये। वास्तविकता को जान लिया यह समझकर हरिद्वार पहुंचे कि लोगो को सच्चाई बतायेंगे। पाखण्ड खण्डिनी पताका हर की पौड़ी पर लगा दी। अपनी सारी योग्यता और पाण्डित्य के अनुसार भाषण देने लगे। लोग आते, सुनते, चले जाते, उन्हें कोई पूछता भी न। जब स्वामी जी ने देखा कि दूसरों के पास भीड़ लगी रहती है और उन्हें कोई पूछता भी नहीं, तब अधिक बल से, अधिक ऊंची आवाज में भाषण देने लगे, परन्तु कई दिन व्यतीत हो जाने पर भी अवस्था बदली नहीं। लोग आते, थोड़ी देर ठहरते, बिना कोई प्रभाव लिये चले जाते। एक दिन बोलते-बोलते स्वामी जी का गला रूक गया। आंखों से अश्रुधारा बहने लगी। बार-बार मन में प्रश्न उत्पन्न हुआ- मैं ठीक बात कहता हूं, लोग उसे सुनते क्यों नहीं? उन पर प्रभाव क्यों नहीं होता? तभी उन्होंने- सर्ववै पूर्ण स्वाहा।
कहकर अपनी सभी पुस्तके, वस्त्र, सब कुछ दान कर दिया। केवल एक कोपीन पहनकर चल पड़े। हरिद्वार से ऋषिकेश पहुंचे। वहां से गंगा के किनारे-किनारे आगे बढ़े- विशाल जंगलो में, हिमाच्छादित चोटियों पर। 6 वर्ष तक इन वनो में, घाटियों और चोटियों के संसार में तप करते रहे। जलती हुई गर्मियां आई, झुलसती हुई दुपहरियां, ठिठुरती हुई रातें, बरसते हुए दिन, कड़कती हुई सर्दियां। आकाश से गिरती हुई बर्फ ने प्रत्येक वस्तु को सफेद कर दी। तूफान गर्ज उठे, बिजलियां कड़क उठीं। हिंसक पशुओं की चिघाड़ से पहाड़ गूंज उठे। परन्तु ऋषि निरन्तर तपस्या करते रहे। गंगा के पत्थर उनका तकिया थे, गंगा के रेत उनका विस्तर। इस घोर तप के पश्चात् जब उन्होंने देखा कि उनके अपने अन्दर वह ज्योति प्रकट हो गई, जिसे वे दूसरों को देना चाहते हैं, तो वे वापस आये। तब लोगों ने उनकी बात सुनी, उन पर प्रभाव हुआ।
संसार तब ही सुनता है, जब अपने भीतर ज्योति प्रकट होती है, अतः सर्वप्रथम स्वः प्रकाशवान होना होता है, तब ही दूसरों को प्रकाश रूपी मार्गदर्शन दिया जा सकता है। हम चाहते हैं कि लोग हमारे पीछे चले। चलेंगे अवश्य परन्तु पहले अपने अन्दर दूसरों को पीछे चलाने की शक्ति उत्पन्न करना होगा, स्वयं तुम्हारे पास प्रकाश है नहीं, दूसरों को देना चाहते हो तो दूसरे लेंगे क्या? और यह ज्योति उत्पन्न होती है साधना से, तप से, त्याग से जिससे तुम भलीभांति परिचित हो।
चौथी बात सूर्य कहता है- जीवन में उतार भी है, चढाव भी। सुख के चमकते हुए दिन भी आते हैं, दुःख और संकटों के काले दिन भी। सूर्य कहता है दुःख से, कष्टों से, काले दिनों से घबरा न जा। वर्षा ऋतु में घनघोर काली घटाएं घिर आती हैं, सूर्य उनके पीछे छिप जाता है। कई-कई दिन तक लोग उसे देख नहीं पाते। ऐसे भी दिन आते हैं, जब दोपहर के समय इतना अंधेरा हो जाता है कि दीपक जलाने पड़ते है, परन्तु इन बादलों के पीछे खड़ा हुआ सूर्य कहता है- हे मानव! दुख से, काले दिनों से घबरा नहीं, ये सदा रहेंगे नहीं, एक न एक दिन ये घटाएं, छिन्न-भिन्न हो जायेंगी, ये बादल बिखर जायेंगे, मैं फिर चमकूंगा। मनुष्य जीवन भी ऐसा ही है, काले दिन आ गये हैं, दुःख की घोर घटाएं घिर आई हैं, तो चिन्ता न कर, निराशावादी न बन, आशवादी बन। अच्छे दिन नहीं रहे, तो ये काले दिन भी नहीं रहेंगे।
परन्तु यह बात वह किस शक्ति के आधार पर कहता है? आत्मविश्वास की शक्ति पर। उसे ज्ञात है कि इन बादलों की शक्ति कोई शक्ति नहीं। मेरे अन्दर वह शक्ति है कि मैं इन्हें समाप्त कर दूंगा। यह आत्मविश्वास, यह विल-पॅावर, यह मानसिक बल अपने अन्दर पैदा करो। विश्वास करो कि संकट आते हैं, तो जाते भी हैं, घबराओं नहीं। अपने संसार के तुम स्वयं स्वामी हो। स्वयं वेद भगवान भी यही कहते हैं-
कितना महान सन्देश है इसमें! भगवान कहते हैं- क्यों रे मानव! क्या बनना चाहता है? क्या तू चाहता है कि राज गद्दी तुझे मिल जाये, प्रधानमन्त्री बन जाये? हो सकता है यह सब कुछ असम्भव नहीं है, परन्तु इसके लिए तुझे स्वयं पुरुषार्थ करना पड़ेगा, स्वयं तप करना होगा, यज्ञ करना होगा और अपने आपको आहुति बनाकर उसमें डाल देना होगा, तब ही वह वस्तु प्राप्त होगी, जिसे तू प्राप्त करना चाहता है, कोई दूसरा तुझे देगा नहीं।
तुम्हें अपनी सहायता स्वयं करनी है, दूसरों का सहारा मत खोजो, स्वयं प्रयत्न और पुरुषार्थ करो, संकट की घनघोर घटाएं दूर हो जायेंगी। यही सूर्य के पीछे चलने का अर्थ है। यह वेदों की ऐसी योजना है, जिसे मनुष्य को प्रकाशवान, चेतनावान बनाने के लिए उसके समक्ष रखा गया। इसके पश्चात् क्या कहता है सूर्य? यह कि देखों, पृथ्वी पर जहां कहीं भी जल है, उसे मैं अपनी किरणों से ऊपर खींचता हूं, वाष्प बना देता हूं, बादल बना देता हूं। परन्तु ऐसा करने के पश्चात् उसे अपने पास नहीं रखता, पृथ्वी को वापस कर देता हूं। तुम भी ऐसा करो। धन कमाओं अवश्य, खूब कमाओ! वेद में धन कमाने के लिए बार-बार प्रार्थना आती है-
हे भगवान! मैं धन-धान्य के भण्डारों का स्वामी बन जाऊं। बनो स्वामी, इसमें कोई दोष नहीं। वेद धन कमाने से नहीं रोकता, उपनिषद नहीं रोकते। वे कहते हैं कि इतना धन कमाओ कि तुम सोने और चांदी के बर्तनों में खाना खाओं। कच्चे नहीं, पक्के मकानों में रहो। खूब धन कमाओं, परन्तु धन में डूब न जाओ, जैसे सूर्य कमाये हुए जल की वृष्टि कर देता है, ऐसे ही तुम भी अपने धन का दान करो, धर्म का प्रचार करो।
स्वामी विवेकानंद के जीवन की एक घटना है, भ्रमण करने एवं भाषणों के बाद स्वामी विवेकानन्द अपने निवास स्थान पर आराम करने के लिए लौटे हुये थे। उन दिनो वे अमेरिका में ठहरे थे और अपने हाथों से ही भोजन बनाते थे। वे भोजन करने की तैयारी कर ही रहे थे कि कुछ बच्चे उनके पास आकर खड़े हो गए।
उनके अच्छे व्यवहार के कारण बहुत बच्चे उनके पास आते थे। वे सभी बच्चे भूखे मालूम पड़ रहे थे। स्वामी विवेकानंद ने अपना सारा भोजन बच्चों में बांट दिया। वहीं पर एक महिला बैठी ये सब देख रही थीं। उसने बड़े आश्चर्य से पूछा- आपने अपनी सारी रोटियां इन बच्चों को दे डाली, अब आप क्या खायेंगे? स्वामी जी मुस्कुराते हुये बोले- माता! रोटी तो मात्र पेट की ज्वाला शांत करने की वस्तु है। यदि इस पेट न सही तो उनके पेट में ही सही। आखिर वे सब भगवान के अंश ही तो हैं, देने का आनंद, पाने के आनंद से बहुत बड़ा है।
ऐसा मनुष्य होना ही सार्थक है, मनुष्य में संवेदना होनी ही चाहिए, उसके कार्य, उसकी क्रियायें दूसरों के हित में संलग्न होनी चाहिए, जो कुछ भी है, वह दूसरों के हित में न्यौछावर करने वाला ही सच्चा मनुष्य है। अपना सबकुछ केवल अपने हित में खर्च करना मनुष्यता नहीं है और ऐसा भी नहीं कि तुम विवेकानन्द बन जाओं, लेकिन उनके जैसा कुछ तो कर सकते ही हो, 2-4 रोटियां दूसरों के पेट की ज्वाला शांत करने में दे सकते हो।
और यदि ऐसा तुम नहीं करते तो तुम्हारी कमाई पाप है, तुम्हारा धन पाप है। कुछ इस बात को समझ नहीं पाते कि धन की सफलता हमको केवल संग्रह करने और अपने लिए खर्च करने में नहीं अपितु दूसरों कार्यो में खर्च करने और भले कामों के लिए खर्च करने में है। यदि मनुष्य बनना है तो सूर्य के पीछे चलना होगा, सूर्य की तरह ही बारिश बनकर बरसना भी होगा। जो अपने लिए कमाता है, अकेला खाता है, उसका कमाना और खाना निष्फल हो जाता है।
यह वेद की वाणी है, कमाकर अकेले न खाओ, जो कमाकर अकेला खाता है, वह पाप खाता है। यह सत्य है, इसमें संदेह नहीं। और फिर सूर्य कहता है- यदि तुम मेरे पीछे चलना चाहते हो, तो मेरी भांति अपवित्रता का नाश करो। जहां कहीं सूर्य की धूप नहीं पहुंचती, वहां रोगो के कीटाणु उत्पन्न हो जाते हैं, भिन्न-भिन्न तरह के रोग उनसे उत्पन्न हो जाते है। यदि तुम भी पवित्र होना चाहते है, तो आवश्यक है अपने भीतर की गंदगी साफ करो। ईर्ष्या, द्वेष, झूठ, छल, कपट आदि को नष्ट कर दो।
लेकिन प्रश्न यह भी है कि क्या आपने कभी सूर्य की किरणों को भी गन्दे होते देखा है। कभी देखा है उनमें मैल आ गई हो? उन्हें कोई रोग लग गया हो? नहीं सूर्य की किरणें अपिवत्रता को दूर करती हैं, परन्तु स्वयं कभी गन्दी नहीं होतीं, रोगों को दूर करती हैं परन्तु स्वयं रोगी नही होतीं।
तुम भी अपने जीवन की गन्दगी, मैल, समस्याओं, दुविधाओं जैसे कीटाणुओं को दूर करो, परन्तु इन कीटाणुओं के शिकार न बन जाओ। अपवित्रता को दूर करो परन्तु स्वयं अपवित्र न हो जाओ। कई लोगों को मैंने देखा है- सुधार प्रारम्भ करते हैं, सुधार होता नहीं तो स्वयं बिगड़ने लगते हैं। ऐसा चलना सूर्य के पीछे चलना नहीं हुआ, सूर्य के पीछे चलना है, तो अपने निश्चय पर दृढ़ रहो, अडिग रहो। जो नियम बनाएं हैं, इन्हें तोड़ो नहीं, इन पर अटल रहो।
यह नहीं कि कभी रात को तीन बजे जाग उठो और कभी दिन के आठ बजे तक सोये ही रहो। लोग बन्धन में रहना पसन्द नहीं करते। परन्तु नियम का बन्धन ऐसा है जिसे मानना ही उचित है। ऐसे बन्धन को तोड़ना नहीं चाहिए। जो बन्धन दुःखदायी हैं, जिनसे इस संसार-सागर को तरने में रूकावट आती हो, उन्हें तोड़ देना चाहिए। एक बार काशी में रहने वाले कुछ लोगों ने सोचा कि काशी में तो रहते ही हैं, चलो कल पूर्णमासी-पर्व प्रयाग में चलकर मनाएं। रात्रि के समय नौका में बैठेंगे, प्रातः होने से बहुत पूर्व वहां पंहुच जायेंगे। सन्ध्या हुई तो काशी के घाट पर एकत्र हुए। सब के सब भंग पीने वाले थे। सबने पहले तो थोड़ी-थोड़ी पी, बाद में नशा होने पर और अधिक भंग पिया। कुछ भंग साथ भी रख ली कि यात्रा में काम आयेगी। रात हुई तो सब भोजन आदि करके नौका में बैठे, सबने चप्पू पकड़ लिये। सब चप्पू चलाने लगे कि प्रयाग तक जल्दी पहुंच जायें। कई घण्टे वे चप्पू चलाते रहे। रात्रि के दस बजे, बारह बजे, दो बज गए, तीन बज गए। एक आदमी ने कहा- अरे भाई! चप्पू चलाते-चलाते तो भुजाएं थक गई, कोई उठकर देखो तो सही प्रयाग आया या नहीं। एक और व्यक्ति ने कहा- ठहरो मैं देखता हूं।
वह नौका में खड़ा हुआ। चांदनी रात थी। किनारे की ओर उसने देखा तो चकित होकर बोला- अरे भाईयों! यह क्या है? मुझे तो सामने काशी जी का घाट दिखाई दे रहा है। पहले ने कहा- तेरा दिमाग खराब हो गया है, बहुत भंग पी गया है तू। रात भर हम चलाते रहे हैं और तुझे अभी तक काशी घाट दिखाई देता है? उठो भाई! कोई और आदमी उठकर देखे, तब एक और व्यक्ति ने उठकर देखा, ध्यान से देखने के पश्चात बोला, भाइयों! भगवान करे झूठ हो, परन्तु सामने घाट तो काशी जी का ही दिखाई देता है। सबने कहा तुमने भी भंग पी रखी है, बैठ नीचे किसी और को देखने दे। परन्तु तीसरे ने देखा तो उसने भी कहा- यह तो सचमुच काशी जी का घाट है। तब जो सबसे समझदार था वह उठा और किनारे की ओर देखते हुए बोला- अरे! अनर्थ हो गया, यह तो सच ही काशी जी का घाट है और वही घाट है, जिससे हम रात्रि में चले थे। अब सब लोग घबराए, सबने देखा तो पता चला कि नौका की रस्सी जिस कील के साथ बंधी थी, अब भी उसी के साथ बंधी हुई है, भंग के नशे में किसी को ध्यान ही नहीं आया कि इस रस्सी को खोलना भी चाहिए। रात-भर वे चप्पू चलाते रहे और रात भर नौका की रस्सी उसकी कील के साथ बंधी रही।
मनुष्य जीवन भी कुछ इसी तरह से है, सभी नशे में हैं, भौतिकता के। सांसारिक जीवन का ऐसा भांग पी रखा है कि कुछ सूझता ही नहीं, चप्पू चलाएं जा रहें हैं, यात्रा हुई या नहीं इसका भान नहीं है। आगे जाना है तो मोह, ममता, लोभ, काम, क्रोध और अंहकार की ये रस्सियां तोड़नी पड़ेंगी। इन्हें तोड़े बिना नौका चलाओगे तो चलाते रहो, एक जन्म नहीं दस जन्म तक चलाते रहो, नौका कहीं जायेगी नहीं उसी घाट पर खड़ी रहेगी। कुछ बन्धन ऐसे होते हैं, जिन्हें तोड़ना ही अच्छा होता है, परन्तु कुछ बन्धन ऐसे हैं, जिन्हें रखने में ही भलाई है।
और वह बंधन है अपनी चेतना का बंधन, अपने ज्ञान का बंधन, आपके अपने इष्ट, आपके ईश्वर सद्गुरुदेव से जो आपका बंधन है, वह बंधन ही जीवन को सभी तरह से आलोकित कर आपके जीवन में एक नये प्रकाश का संचार करेगा। इस पौषीय अमावस्या युक्त सूर्य ग्रहण की तेजिस्वता आपके जीवन को जाज्वल्यमान चेतना से दैदीप्यमान कर सके और आप सद्गुरुदेव नारायण से और अधिक एकात्म भाव स्थापित कर सकें, ऐसा ही सभी के लिए मंगल कामना करता हूं——-!!
परम पूज्य सद्गुरुदेव
कैलाश चन्द्र श्रीमाली जी
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