नन्दी शब्द से तात्पर्य है खुशी, आनन्द, संतुष्टि और ये सभी गुण भगवान शिव के वाहन नन्दी में हैं।
भगवान शिव का वाहन होने के साथ ही नन्दी उनके परम मित्र, परम भक्त, शिव गणों में प्रमुख व उनके हृदय के सबसे समीप भी हैं। कहा जाता है भगवान शिव अर्न्तध्यान होते हैं, इसीलिए भक्तजन अपनी मनोकामना पूर्ति के लिए, अपनी बात नन्दी के कान में बोलते हैं और नन्दी उनकी इच्छा भगवान शिव तक पहुंचा देते हैं। महाकाल व नन्दी भगवान शिव के द्वार पर हमेशा प्रस्तुत रहते हैं।
नन्दी ने माता पार्वती से अगामिक व तांत्रिक विद्याओं का ज्ञान प्राप्त किया है। नन्दी अठारह सिद्ध योगियों, जिनमें पतंजलि व त्रिमुलर भी शामिल हैं, उनके प्रमुख गुरु हैं। कालीदास द्वारा रचित प्रसिद्ध काव्य कुमार संभवम् में भी नन्दी का सुन्दर वर्णन है।
भारतीय ग्रंथों में नन्दी से जुडे़ कई वृत्तान्तों का वर्णन है। भगवान शिव के वाहन नन्दी पुरुषार्थ व परिश्रम के प्रतीक हैं। रावण संहिता के अनुसार कुबेर पर विजय प्राप्त कर जब रावण लौट रहा था, तब वह थोड़ी देर कैलाश पर्वत पर विश्राम करने रूका था। वहां उसने शिव के प्रमुख गण के स्वरूप को देखकर नन्दी का उपहास किया। नन्दी ने क्रोध में आकर रावण को यह श्राप दिया कि जिस पशु स्वरूप को देखकर तू इतना हंस रहा है, तेरा विनाश भी एक पशु स्वरूप जीव के हाथों होगा और ऐसा ही हुआ, रामायण काल में जब रावण भगवान हनुमान को बंदी बना लिया था, तब हनुमान ने अपनी पूंछ से ही पूरी लंका में आग लगा दी थी।
एक और पौराणिक कथा के अनुसार जब एक दिन भगवान शिव व माँ पार्वती पासे का खेल रहे थे, जिसमें नन्दी निर्णायक की भूमिका निभा रहे थे, जिन्हें विजेता की घोषणा करने की जिम्मेदारी दी गयी थी। अब क्योंकि नन्दी को अपने स्वामी भगवान शिव अत्यधिक प्रिय थे, इसीलिए उन्होंने भगवान शिव के पराजित हो जाने पर भी उन्हें खेल का विजेता घोषित कर दिया। ऐसा कहा जाता है नन्दी के इस तरह के व्यवहार से माँ पार्वती उनसे रूष्ट हो गयीं, उन्होंने नन्दी को श्राप दे दिया कि उनकी एक असाध्य रोग से मृत्यु हो जायेगी। नन्दी उनके पैरों में गिर गये और अपने छलपूर्वक व्यवहार के लिए क्षमा मांगने लगे, उन्होंने कहा कि वे अपने स्वामी को कैसे परास्त घोषित कर दे? उनके सम्मान को बनाये रखने के लिए ही मैंने यह झूठ बोला है, इस झूठ का इतना बड़ा दण्ड मुझे मत दीजिए। माँ पार्वती ने नन्दी को क्षमा कर दिया, इस झूठ का प्रायश्चित करने हेतु उन्होंने नन्दी को कहा कि भाद्रपद के महीने में चतुर्दशी के दिन जिस दिन उनके पुत्र गणेश का जन्मदिवस मनाया जाता है, उस दिन तुम वह भेंट करोगे, जो तुम्हें अत्यन्त प्रिय है।
नन्दी को हरी घास अत्यन्त प्रिय थी और उन्होंने गणपति को हरी घास चढ़ाई और इस तरह वे श्राप मुक्त हो गए। इसीलिए आज भी हम पाप मुक्त होने के लिए भगवान गणेश के पूजन के समय उन्हें दुर्वा (हरी घास) अर्पित करते हैं।
शिव महापुराण में भगवान शिव की कथा के साथ ही उनसे जुड़े हर चमत्कार और उनके परम भक्तों का उल्लेख मिलता है। ऐसे ही शिवभक्त हैं नन्दी। यूं तो नन्दी भगवान शिव के वाहन के रूप में और उनके सभी गणों में श्रेष्ठ हैं, पर बहुत कम ही लोग जानते हैं कि वे ब्रह्मचारी ऋषि शिलाद के पुत्र हैं।
पौराणिक कथाओं के अनुसार शिलाद ऋषि ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए अपना जीवन बिता रहे थे, उनके पितरों व पूर्वजों को वंश वृद्धि की चिंता होने लगी और इस बारे में उन्होंने शिलाद ऋषि को बताया, इस हेतु शिलाद ऋषि इन्द्रदेव को प्रसन्न करने के लिए कठोर तप आरम्भ कर दिया। जब इंद्रदेव ने दर्शन दिए तब शिलाद मुनि ने उनसे अमर पुत्र की अभिलाषा जताई। इंद्र देव ऐसा वर न दे सकें, लेकिन उन्होंने मुनि को भगवान शिव को तप कर प्रसन्न करने की सलाह दी।
ऋषि शिलाद ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या की। शिव जी तप से प्रसन्न हुए और उन्होंने ऋषि शिलाद को वर दिया कि वे स्वयं बाल रूप में मुनि शिलाद के घर प्रकट होंगे। कुछ समय पश्चात् भूमि जोतते समय शिलाद ऋषि को भूमि से एक बालक मिला।
भगवान शिव के अवतार में उस बालक का वर्णन शिव पुराण में इस प्रकार है-
अर्थात् शिशु के दिव्य स्वरूप को देख शिलाद ऋषि ने कहा तुमने प्रकट होकर मुझे आनंदित किया है। अतः मैं आनन्दमय जगदीश्वर को प्रणाम करता हूं।
ऋषि शिलाद ने बालक का नाम नन्दी रखा। नन्दी का रूप सबको आनंदित कर देने वाला था। वह बचपन से ही आध्यात्मिक और अपने पिता का आदर करने वाला था। शिलाद अपनी संतान से बहुत प्रसन्न थे। उन्होंने नन्दी को वेदों के साथ-साथ नैतिक शिक्षा का भी अच्छा ज्ञान दिया था। एक बार शिलाद ऋषि के आश्रम में दो संत पधारे, मित्र और वरूण।
शिलाद ने उनकी बहुत अच्छी आवभगत की, उनका ध्यान रखा, नन्दी ने भी उनकी बहुत सेवा की। मित्र व वरूण प्रसन्न हुए। जब वे प्रस्थान कर रहे थे तो नन्दी ने आशीर्वाद लेने के लिए उनके पैर छुए। नन्दी के चरण स्पर्श करने पर दोनों साधु कुछ परेशान से हो गए। साधुओं के चेहरे की परेशानी शिलाद ऋषि ने भांप ली, इसलिये जैसे ही वे दोनों आश्रम से बाहर निकले, तब शिलाद ने उनसे परेशान होने का कारण पूछा, तब उन्होंने बताया कि नन्दी अल्पायु है और उसके पास अधिक समय शेष नहीं रहा है।
यह बात सुनकर शिलाद चिंताग्रस्त हो गए। उनके आश्रम के भीतर लौटते ही नन्दी ने भी अपने पिता के चेहरे का भाव पढ़ लिया। नन्दी ने पिता से उनकी चिंता का कारण जानना चाहा तो पिता ने उन्हें सब कुछ सत्य बता दिया। यह सुन नन्दी बिल्कुल भी विचलित या भयभीत नहीं हुए। नन्दी ने जैसे ही सुना वे अप्लायु हैं, वे हंसने लगे। उन्होंने अपने पिता से कहा कि आपने मुझे भगवान शिव की कृपा से पाया है, भगवान शिव मृत्युंजय के देव हैं, इसलिए मेरी रक्षा वे ही करेंगे। नन्दी का कहना था कि जो लोग भगवान शिव की नन्दी युक्त आराधना करते है, उन्हें कोई शारीरिक पीड़ा, कष्ट व अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता।
इतना कहते ही अपने पिता से आशीर्वाद प्राप्त कर नन्दी भुवन नदी के किनारे तप करने चले गए। नन्दी की आस्था और उनका विश्वास इतना प्रबल था कि भगवान शिव को उनके समक्ष प्रकट होने में अधिक समय नहीं लगा। भगवान शिव ने नन्दी को आंखें खोलने के लिए कहा। भगवान शिव के तेज को देखकर वे भूल गये कि वे अपनी लम्बी उम्र के लिए शिव की आराधना कर रहे थे। नन्दी ने भगवान शिव द्वारा वरदान मांगने पर वरदान के रूप में ताउम्र शिव का सानिध्य मांग लिया। नन्दी ने उनसे प्रार्थना की कि वे हर समय उनके साथ रहना चाहते हैं। नंदी के समर्पण से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने नंदी को अपने गले लगा दिया।
भगवान शिव ने माता सती की सम्मति से वेदों के समक्ष गणों के अधिपति की रूप में नंदी का अभिषेक करवाया। इस तरह नन्दी नंदीश्वर हो गए। उन्हें बैल का चेहरा देकर अपने वाहन, अपने मित्र, अपने गणों में सर्वोत्तम के रूप में स्वीकार कर लिया।
निधि श्रीमाली
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