छठी इंद्री सकारात्मक मानसिक मनोभाव विकसित कर उसमें निरन्तरता बनाये रखती है। जिससे व्यक्ति उन धारणाओं, विचारों व व्यवहारों का त्याग करने में समर्थ हो जाता है, जो उसे अवउन्नित प्रदान करती है और उसके उद्देश्य में रूकावट उत्पन्न करती हों। इसके द्वारा व्यक्ति नकारात्मक विचार, धारणा और भाषा अपने चित्त से दूर कर लेता है और ऐसे दिव्य सिद्धांत, विचार को अपनाता है, जो उसे देवमय सौभाग्य शक्ति युक्त बनाने में सहायक होते हैं।
सफलता के मार्ग में तनाव सबसे बड़ी बाधा है, जो मस्तिष्क को छिन्न-भिन्न कर देती है और सोचने-समझने की क्षमता व्यक्ति खो देता है। छठी इंद्री जाग्रत व्यक्ति तनाव व मुश्किलों में भी प्रभावित नहीं होता, वह अशांत से अशांत स्थान पर भी शांत चित्त से अपने कार्य को क्रियान्वित करने में समर्थ होता है। वह भावनात्मक, शारीरिक, मनोवैज्ञानिक और अध्यात्म की दृष्टि से सुदृढ़ व चेतनावान बना रहता है।
छठी इंद्री सक्रिय होने पर व्यक्ति अपने अंदर छिपी अपार शक्ति से साक्षात्कार कर लेता है और उसका उपयोग करने के ज्ञान से आपूरित हो जाता है। जिसके पश्चात् व्यक्ति आन्तिरक और बाहरी ऊर्जा में सामंजस्य स्थापित कर अपने जीवन में सर्वोच्च श्रेष्ठता प्राप्त करने की क्रिया सम्पन्न करता है और उसमें सूक्ष्मता को परखने की शक्ति विद्यमान हो जाती है।
यह स्वयं को पहचानने की यात्रा में सहायक है और आन्तरिक शक्ति को जाग्रत करता है, रचनात्मक शक्ति का विकास होता है और मस्तिष्क में जहां असीमित बुद्धिमता विकास करती है, उसे सक्रिय बनाता है। साथ ही अपने आपमें सही निर्णय लेने की क्षमता बढ़ाता है। यह सफल और उद्देश्यपूर्ण जीवन का सबसे श्रेष्ठ मार्गदर्शक है। संकट पूर्ण समस्याओं का समाधान ढूंढने में सहायक होता है, साथ ही साधक इसके द्वारा अवचेतन मस्तिष्क के अपार संसाधनों का उपयोग कर सकते हैं।
इस धारा पर एक मात्र ऐसा धाम जो त्रिलोक तारिणी की चेतना से आप्लावित है सहस्त्र जन्मों का सर्व पुण्य उदय होने पर गंगोत्री धाम की यात्रा दिव्य सिद्धियों से युक्त महापुरुष के सानिधय में करने का अवसर प्राप्त होता है।
आदिगुरु शंकराचार्य जी द्वारा उद्बोधित भागीरथी गंगा स्तुति में कहा गया है- हे देवि गंगे ! तुम देवगण की ईश्वरी हो, तुम त्रिभुवन को तारने वाली, विमल तरल तरंगमयी तथा शिव के मस्तक पर विहार करने वाली हो। हे मातः ! तुम्हारे चरण कमलों में मेरी मति लगी रहे। हे भागीरथी तुम सभी प्राणियों को सुख देती हो, हे दयामयी तुम मेरे पापों का भार दूर कर दो और कृपा करके मुझे भवसागर के पार उतारो।
हे मातः ! गंगोत्री! जो तुम्हारे तट पर पूजन करता है, उसको यमराज नहीं देख सकता है अर्थात् तुम्हारी भक्ति करने वाला यमपुरी में ना जाकर वैकुंठ में जाता है। शंकराचार्य उद्बोधित यह स्तुति मात्र ही नहीं है, अपितु गंगोत्री धाम की महानता को भावपूर्ण श्लोकों के माध्यम से व्यक्त किया गया है, उपरोक्त वर्णन उसी श्लोक का हिन्दी रूपान्तरण है। वास्तव में सभी सर्वश्रेष्ठ महानतम ऋषि-मुनियों ने गंगोत्री धाम की महत्ता सर्वोपरि रूप में एक स्वर से स्वीकार किया है। गंगोत्री धाम की यात्रा मात्र पाप-ताप संहारिणी ही नही अपितु सांसारिक सुखों को भोगते हुये भवसागर से पार होने की क्रिया है। इन्हीं श्लोकों में आगे कहा गया है- हे माता ! तुम इस धरा पर कल्प वृक्ष के समान प्रदान करने वाली हो अर्थात् गंगोत्री धाम के दर्शन, स्नान, पूजन से कभी ना क्षय होने वाले पुण्य की प्राप्ति होती है।
आगे कहा गया है- माँ गंगोत्री आपकी स्तुति करने वाला इस मृत्यु लोक में भी कभी शोक में नहीं रहता अर्थात् उसके जीवन से समस्याओं, बाधाओं, अड़चनों का हरण हो जाता है और वास्तव में जीवन की अधिकांश समस्या किसी ना किसी कारण उत्पन्न होने वाली अड़चने ही होती हैं, जिसके कारण व्यक्ति को असफल होना पड़ता है।
गंगोत्री धाम पृथ्वी लोक पर ऐसा पावन पुनीत धाम है, जिसकी चेतना साधनात्मक रूप से आत्मसात कर साधक जीवन में निर्मलता की प्राप्ति करते हैं और यह ही एकमात्र ऐसा धाम है, जहां जीवन को प्रवाहमान बनायें रखने की चेतना ग्रहण करने का अवसर प्राप्त होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि माँ भागीरथी गंगा अपनी अनवरत प्रवाहित धारा की भांति ही साधक जीवन को निरन्तरता प्रदान करती हैं और वही जीवन सागरमय बन पाता है अर्थात् सभी सांसारिक सुखों से युक्त हो पाता है, जिस जीवन में निरन्तर क्रियाशील रूपी प्रवाह प्रचण्ड वेग के साथ शाश्वत गतिशील रहता है।
सांसारिक जीवन में भी इसी तत्व की सर्वाधिक आवश्यकता है, इसलिये पावनतम गंगोत्री धाम की यात्रा प्रथम बार सद्गुरुदेव जी के दिव्य सानिध्य में शिष्य-साधकों के कल्याणर्थ सम्पन्न हो रही है। गंगा सप्तमी दिवस जिस दिन भगवान शिव की जटा से मां गंगा का अवतरण गंगोत्री धाम में हुआ था, ऐसे ही गंगा सप्तमीमय चैतन्य दिवस पर परम पूज्य सद्गुरु के सानिध्य में सिद्धाश्रम संस्पर्शित आलौकिक शक्तियों युक्त साधनात्मक क्रिया सम्पन्न होगी, जिसे आत्मसात कर साधक दैदीप्यमान सर्व सौभाग्य शिव-गौरी गंगा शक्तिमय चेतना से आप्लावित हो सकेंगे।
ईश्वर अनादि है, उनके नाम, रूप, धाम भी अनादि है और नारायण की लीला भी अनादि काल से चली आ रही है। इसी तरह बद्रीधाम में भगवान शालिग्राम की जो विग्रह है, जिसका हम दर्शन, पूजन आदि क्रियायें करते हैं, वह भी अनादि है, बद्रीनाथ धाम भी अनादि है। यह विषय अलग है कि पूजा पद्धति, अर्चन, उपासना, व्यवहार समय-समय पर परिवर्तित होते रहे हैं। इन परिवर्तनों का वर्णन पुराणों में भी किया गया है। ये समस्त क्रियायें युग-युग में भगवान विष्णु की लीलाओं के ही कारण सम्पन्न हुई। पुराणों के अनुसार बद्रीधाम में भगवान विष्णु साक्षात स्वरूप में ध्यानस्थ थे। उन्हें ध्यान में निरत देखकर नारद जी ने उनसे पूछा- भगवन् आप तो त्रिलोकी के नाथ जगत्पति ईश्वर है, आप किसका ध्यान करते हैं।
भगवान ने हंसकर कहा- नारद इस जगत में आत्मा ही परम तत्व है। हम अपने आत्म स्वरूप का ही ध्यान करते हैं। सभी जीव भक्ति, भोजन, सुख की प्राप्ति करते रहें, उनका कल्याण होता रहे, इसलिये हम निरन्तर तप करते हैं। यह सुनकर नारद जी प्रसन्न हुये और भगवान विष्णु की पूजा-अर्चना करने लगे। तभी से महर्षि नारद वहां के प्रधान आचार्य हैं, स्थूल रूप से कोई भी आचार्य बद्रीधाम में पूजन आदि क्रियायें सम्पन्न करता हो, परन्तु बद्रीधाम के मूल प्रधान अर्चक महर्षि नारद ही हैं, इसीलिये इस क्षेत्र को नारदीय क्षेत्र भी कहा जाता है।
सत्य युग में भगवान मूर्तिमान स्वरूप में विद्यमान थे, त्रेता युग में केवल योगाभ्यासी ऋषि ही भगवान का दर्शन कर पाते थे, द्वापर आने पर ज्ञाननिष्ठ मुनियों को भी भगवान के दर्शन दुर्लभ हो गये और भगवान नारयण द्वापर में जब श्रीकृष्ण का अवतार ग्रहण करने जाने लगे तब ऋषियों ने कहा प्रभो! आप ही तो हमारे अवलम्ब हैं। आप इस क्षेत्र को त्याग कर न जायें, एक स्वरूप में आप यहां निवास करें। तब भगवान विष्णु बोले- नारद शिला के नीचे अलकनन्दा में मेरी एक दिव्य मूर्ति है, उसे निकालकर स्थापित करो, उस दिव्य चैतन्य मूर्ति का जो भी दर्शन करेगा, उसे मेरे साक्षात् दर्शन का फल प्राप्त होगा।
ब्रह्मादि देवताओं ने नारदकुण्ड से वह मूर्ति निकाली, मूर्ति शालिग्राम शिला युक्त ध्यान मग्न चतुर्भुज स्वरूप में बहुत ही भव्य दिव्य अलौकिक थी। फिर देवताओं ने विश्वकर्मा से मन्दिर बनवाया और नारद जी उसके प्रधान अर्चक नियुक्त हुये। शास्त्रों में कहा गया है- जिस प्रकार दीपक को देखने से अन्धकार की बाधा नहीं रहती, वैसे ही बद्रीनाथ धाम का दर्शन करने से मनुष्य को जन्म-मृत्यु का भय नही रह सकता। बद्रीधाम में भगवान विष्णु अपनी समस्त कलाओं के साथ साक्षात् स्वरूप में विद्यमान है। बद्रीनाथ धाम ज्ञान और योग साधना का मूल स्रोत कहा जाता है, यहां भगवान विष्णु के दर्शन से मनुष्य धर्म अनुयायी बनता है और अधर्म पर विजय प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है। कहा जाता है कि जिन्हें कलयुग में पूर्ण पुरुषोत्तम शक्तिमय चेतना से आप्लावित होना हो, उन्हें बद्रीनाथ धाम में अवश्य ही जाना चाहिये।
स्कन्द पुराण में लिखा है- कण्वाश्रम से लेकर नन्दगिरी तक जितना क्षेत्र है, वह परम चैतन्य और भुक्ति मुक्ति प्रदायक है। भयंकर कलियुग में वे मनुष्य धन्य हैं, जो बद्रीधाम पहुंच जाते हैं। यहां पर भगवान विष्णु को लगाया भोग प्रसाद रूप में ग्रहण करने से अन्तः करण की शुद्धि होती है, माना जाता है कि भगवान बद्रीनाथ का प्रसाद ग्रहण करने के लिये देवता भी बद्रिका क्षेत्र में आते हैं और प्रसाद लेकर लौट जाते हैं। जिन पापों के शमन के लिये प्राणों का अन्त कर देना ही पुराणों में प्रायश्चित बतलाया गया है, ऐसा पाप जो बचपन, जवानी और बुढ़ापें में जान-बूझकर किया गया हो, वह भी भगवान बद्रीनाथ के दर्शन, पूजन, साधना, दीक्षा से क्षय हो जाते हैं। यहां ब्रह्मा, रूद्र,देवता, गन्धर्व, अप्सरा, किन्नर, यक्ष सभी भगवान विष्णु में चित्त लगाकर वास करते हैं।
स्कन्द पुराण में वर्णन है कि- जब तक देह शिथिलता को प्राप्त नहीं कर लेता तब तक बद्रीनाथ धाम की यात्रा करते रहना चाहिये। चरण वही उपयोगी है, नेत्र वही सफल है जो नेत्र भगवान बद्रीनाथ के दर्शन करने में सफल होते हैं। पूजा, दान, उपवास, जप, साधना, यात्रा और जीवन उसी का सफल है, जो बद्रीनाथ धाम का दर्शन कर लेते हैं।
कहा जाता है, जो साधक भगवान नारायण स्वरूप दिव्य चैतन्य अलौकिक बद्रीनाथ शालिग्राम की भूमि पर साधना, मंत्र जाप, हवन, पूजन, दीक्षा कर लेता है। वह समुद्र, वन तथा द्वीप समेत पृथ्वी दान का फल पा जाता है और उसके पितर विष्णु लोक में परम पद प्राप्त करते हैं।
जहां विष्णु लोक प्रदान करने में सहायक नारद शिला है, जहां उत्तम मुनियों द्वारा की गयी वेद ध्वनियां सुनायी पड़ती हैं। वहां जो भी साधनात्मक कर्म किया जाता है, वह सहस्र गुना अधिक फल प्रदायी होता है। वहां की मिट्टी कुंकुम के वर्ण की आभावाली होती है, यहां लक्ष्मी तथा विभु लक्ष्मी तत्व का पूर्णता वास है, जो सम्पूर्ण जीवनको सुख-समृद्धि-सम्पन्ना प्रदान करती है। ऐसा दिव्यतम धाम बद्रीनाथ तीनों लोकों में दुर्लभ पर पुरुषोत्तम तीर्थ है, इसके बारे में कहा गया है- बदरी सदृशं तीर्थं न भूतं न भविष्यति अर्थात् भूत-भविष्य में भी ऐसा कोई परम पुण्य पुण्यदायी-कल्याणमयी तीर्थ स्थल नहीं हो सकता।
ब्रह्म कपाल मोचन तीर्थ वह चैतन्य भूमि है, जहां भगवान शिव को ब्रह्म हत्या के शाप से मुक्ति मिली थी। इस तीर्थ स्थल को ब्रह्मकपाली के नाम से भी जाना जाता है। ऋषियों ने कहा है कि- कपाल मोचन तीर्थ पर पितर अपने वंशज की प्रतीक्षा करते रहते हैं।
ज्ञान या अज्ञान से किसी भी तरह जो व्यक्ति यहां पिण्ड चढ़ाते हैं और जल से तर्पण करते है, उनके पापी और दुर्गति प्राप्त पितर भी तर जाते है। ब्रह्म कपाल में किया गया साधनात्मक कर्म कोटि- कोटि गुणा फलीभूत होता है। गया में श्राद्ध करने का सबसे श्रेष्ठ फल बताया गया है और ब्रह्म कपाल मोचन तीर्थ पर गया से अष्ट गुणा अधिक फल प्राप्त होता है। सभी साधक को अपने जीवन में समर्थवान चैतन्य गुरु के सानिध्य में कपाल मोचन तीर्थ पर पिण्ड दान, साधना, पूजा, दीक्षा आदि क्रियायें अवश्य ही सम्पन्न करनी चाहिये। कपाल मोचन तीर्थ पर माता कुल, पिता कुल, सगे- सम्बन्धी, मित्र किसी के भी निमित्त पिण्डदान करने से वे पितर परम स्थान की प्राप्ति करते हैं और जीवन में यश, सुख, सौभाग्य, वंश वृद्धि, सुसंस्कारवान संतान, पारिवारिक आनन्दमय वातावरण की प्राप्ति होती है।
तप्त कुण्ड महात्म्य के बारे में लिखा है, कि जैसे सुवर्ण में कितना मैल क्यों न भरा हो, जिस तरह सोना अग्नि में पड़ने से सर्वोच्च शुद्धतम स्वरूप प्राप्त कर लेता है, इसी प्रकार मनुष्य भी इस तप्त कुण्ड में स्नान कर स्वर्ण की भांति दैदीप्यमान हो जाता है। तप्त कुण्ड के बारे पुराणों में कहा गया है- लाखों, करोड़ों व्रत, उपवास से जिस फल की प्राप्ति होती है, वह फल तप्त कुण्ड में केवल स्नान करने से मिल जाता है।
इस स्थान पर अग्निदेव को भगवान विष्णु से तीर्थ यात्रियों के सर्व दोष दूर करने का वरदान प्राप्त है अर्थात् इस स्थान पर स्नान करने से सभी तरह के दोषों से मुक्ति मिल जाती है और व्यक्ति निष्पापमय बन जाता है।
यह स्थान अलकनन्दा नदी और सरस्वती नदी का वृहद संगम स्थल है। केदार खण्ड में इसको केशव प्रयाग कहा गया है। स्कन्द पुराण में सरस्वती नदी के बारे में लिखा है- यह द्रव स्वरूपा साक्षात् वाणी की अधिष्ठात्री देवी आद्या शक्ति सरस्वती हैं। इस दिव्य चैतन्य स्थान पर मंत्र जाप, साधना, हवन, दीक्षा का सहस्र गुणा फल प्राप्त होता है, ऋषि वेद व्यास यहीं पर अधिकांश साधनारत रहते थे और माँ सरस्वती की कृपा से ज्ञान, प्रज्ञा, वेद, विद्या, ग्रंथ और पुराणों के मर्मज्ञ हुये।
जो केशव प्रयाग का दर्शन, स्पर्श, पूजा, स्तुति, वन्दना करते हैं, उनके कुल से कभी भी सरस्वती का विच्छेद नहीं होता है, उनके वंश के सभी लोग बुद्धिमान होते हैं। गन्धमादन पर्वत कैलाश पर्वतीय श्रृंखला का एक भाग है, मार्कण्डेय और स्कन्द पुराण के अनुसार जिस पर्वत से होकर अलकनन्दा बहती है, वही गन्धमादन पर्वत है। महाभारत आदि ग्रन्थों में गन्धमादन पर्वत को स्वर्गभूमि कहा गया है। भारतीय पुराणो, मध्यकालीन और आधुनिक समस्त विद्वानों ने बद्रिका क्षेत्र गन्धमादन को कुबेर का निवास स्थान बताया है। वेदों में अलकनन्दा को देवनदी कहा गया है।
महाकवि कालिदास के ग्रन्थ मेघदूत में लिखा है कि कैलाश में स्थित अलकापुरी से निकलती हुई भगवती अलकनन्दा जो गंगा नदी की मूल धारा भी कही जाती हैं, ये बद्रीधाम में भगवान नारायण के चरणों का अनवरत अभिषेक करती हुई निरन्तर प्रवाहमान हैं, इसीलिये गंगा को विष्णुपदी कहा गया है।
चैतन्य सिद्ध समर्थवान महापुरुष के सानिधय में तीर्थ दर्शन, पूजन, साधना, मंत्र जाप, दीक्षा का सहस्त्र गुणा अक्षुण्ण लाभ निश्चित रूप से प्राप्त होता है।
बद्रीनाथ धाम से तीन किमी दूर भारत का आखिरी गांव माणा है, जिसे शास्त्रों में मणीभद्र पुर कहा जाता है। यहां पर गणेश गुफा है, जो सर्व विघ्नहर्ता मंगलमूर्ति रिद्धि-सिद्धि शुभ-लाभ चेतनामय स्थल है। यह स्थान सांसारिक जीवन के सभी तत्व क्रिया, बुद्धि, विवेक, ज्ञान, सद्चेतना, धन-धान्य प्रदायक भूमि भी है। इस गुफा में ऋषि वेद व्यास जी ने जब महाभारत की रचना आरम्भ की तो उन्होंने सर्व प्रथम गणेश जी का आवाहन कर, उन्हें प्रसन्न करके स्वयं गणेश जी के हाथों से महाभारत लिखने की सहमति प्राप्त कर ली।
तब गणेश जी ने कहा कि- मैं महाभारत लिख तो दूंगा लेकिन आपको कथा अनवरत् कहना होगा, यदि एक बार भी मेरी लेखनी रूकी तो पुनः उस काव्य पर नहीं चलेगी। तब वेद व्यास जी ने उनसे विनय पूर्वक कहा कि भगवन्! ऐसा ही होगा लेकिन आप बिना सोचे समझे और बिना मेरे सलाह के कुछ भी नहीं लिखोगे। इस प्रकार भगवान गणेश के द्वारा महाभारत महाकाव्य की रचना गणेश गुफा में पूर्ण हुई। आज भी इस गुफा के पत्थरों पर आध्यात्मिक भाषा में अनेक संदेश लिखे हुये दिखते हैं। यह गुफा पूर्ववत की भांति आज भी भगवान गणेश की सभी कला युक्त चैतन्य रश्मियों से आप्लावित हैं, जहां साधक आज भी रिद्धि-सिद्धि, शुभ-लाभ सर्व मंगलमय चेतना की प्राप्ति साधनाओं द्वारा करते हैं।
गणेश गफ़ुा
त्रिवेणी संगम युक्त देव नदियां भागीरथी गंगा, अलकनन्दा व सरस्वती नदी का अमृतमय जल ग्रहण कर रोम-प्रतिरोम को आप्लावित कर भू-बैकुण्ठ रूप में विद्यमान भगवान बद्री विशाल, ब्रह्म कपाल मोचन, केशव प्रयाग, गणेश गुफा आदि चैतन्य स्थलो पर पूजन, साधना, हवन, अंकन, अभिषेक, तर्पण, पिण्ड दान, मंत्र जाप, दीक्षा स्वरूप अलौकिक चेतना से आप्लावित इन देवमय धामों की सर्वशक्तिमय स्थितियां सद्गुरुदेव के सानिध्य में अक्षुण्ण रूप से पूर्ण चैतन्य भाव में पंजीकृत साधक आत्मसात कर सकेंगे।
सांसारिक व्यक्ति जीवन में सामान्य स्वरूप में तीर्थ यात्रा अवश्य करता है, परन्तु अनेक यात्रायें करने के बाद भी तीर्थ का क्षणिक लाभ भी प्राप्त नहीं हो पाता, क्योंकि वह श्रेष्ठ समय, काल, मुहुर्त, श्रेष्ठ मार्गदर्शक का सानिध्य प्राप्त नही कर पाता है।
वैशाखी अक्षय मास में आपको सद्गुरु परिवार का सानिध्य व हर तरह की सुविधा, सुख और चैतन्य साधनात्मक सामग्री प्रदान की जा रही है। आपके समान सम्पूर्ण सृष्टि में कोई नहीं है, अतः अपने आपको सर्वश्रेष्ठ बनाने का यह सुअवसर है। किसी से भी सलाह या आज्ञा लेने की आवश्यकता नहीं है, ना ही विचार करने का समय है, केवल और केवल अपने मन और बुद्धि से ही सोचकर सद्गुरु सानिध्य में उनका अनुगामी बनना है। सद्गुरु सानिध्यमय तीर्थ यात्रा हेतु शीघ्र ही पंजीकरण करायें। केवल सात दिवस गुरुदेव के साथ सप्तपुरी की यात्रा के द्वारा निश्चिन्त रूप से पूर्व के सभी संतापो व दोषों से मुक्त हो सकेंगे और जीवन उच्चतम श्रेष्ठताओं से अभिभूत हो सकेगा।
गंगोत्री-बद्रीनाथ धाम में सम्पन्न होने वाली दिव्य ओजस्वी साधनात्मक क्रियायें-
गंगोत्री धाम में भागीरथी नदी में स्नान के पश्चात् भागीरथी शिला पर काल भैरव चैतन्य शक्ति साधना व पूर्व जन्मकृत पापाकुंशा भगीरथ शक्ति दीक्षा, धर्म, अर्थ, काम की पूर्णता प्राप्ति हेतु अग्निदेव को साक्षी भूत स्वरूप जाग्रत कर हवन, यज्ञ सम्पन्न होगा।
बद्री धाम में ब्रह्म कपाल महातीर्थ पर सर्व दुःख भंजन साधना सम्पन्न होगी।
केशव प्रयाग में त्रिपुरान्तकारी शिवमय मृत्युज्यं शक्ति युक्त रूद्राभिषेक व छठी इंद्रिय जागरण शक्तिपात दीक्षा प्रदान की जायेगी।
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