संस्कार शब्द में सम् उपसर्ग कृ धातु और घञ प्रत्यय है, जिसका अर्थ शुद्धता से है। मीमांसा में संस्कार का अर्थ विधिवत् शुद्धि से है। संस्कारों की संख्या सोलह मानी गयी है, जिसमें सर्वप्रथम गर्भाधान के महत्त्व को स्वीकार किया गया है अर्थात् यदि आदर्श जीवन की नींव सोलह संस्कार हैं तो संस्कार युक्त श्रेष्ठता प्राप्ति का आधार गर्भाधान संस्कार है।
अनेक बार ऐसा देखा जाता है कि उच्च कुल में सुशिक्षित माता-पिता, संस्कारमय वातावरण एवं उत्तम शिक्षा- दीक्षा उपरान्त भी उनके सन्तान प्रदत्त संस्कारों के विपरीत आचरण करते हैं, तब माता-पिता यह सोचते हैं कि यह हमारे कौन से पापों का प्रतिफल है अथवा हमारे पालन-पोषण में कहां कमी रह गयी? वास्तव में जन्म उपरान्त दिया गया प्रशिक्षण तो मिट्टी की कच्ची दीवार पर किये गये प्लास्टर पेंट की भांति होता है, जो चन्द दिनों में ही झड़ने लगता है तथा दीवार की वास्तविकता सामने आने लगती है। कहने का तात्पर्य है कि सन्तान के व्यक्तित्व का निर्धारण जन्म के उपरान्त नहीं, बल्कि गर्भावस्था में ही हो जाता है।
इतना ही नहीं धृतराष्ट्र का नेत्रहीन, पाण्डु का रोगग्रस्त तथा विदुर का पूर्णरूपेण स्वस्थ तथा नीति कुशल होना, इस सम्पूर्ण तथ्य को स्पष्ट करता है कि सन्तान के जीवन तथा व्यक्तित्व का निर्धारण तो गर्भाधान के समय ही हो जाता है। गर्भावस्था में ही शिशु के व्यक्तित्व सम्बन्धी समस्त निर्माण कार्य हो जाते हैं और जब शिशु का जन्म होता है तब वह पूर्ण परिपक्व घट की भांति होता है, जिसके आकार-प्रकार में परिवर्तन मनुष्य की सामर्थ्य से परे है।
तभी तो हिरण्यकश्यप द्वारा बालक प्रहलाद को प्रदत्त समस्त राक्षसी प्रशिक्षण व्यर्थ ही गये, क्योंकि प्रहलाद गर्भावस्था में ही भक्तिरस रूपी अमृत का आस्वादन कर चुका था, जिसके प्रभाव को समाप्त करना हिरण्यकश्यप के वश की बात नहीं थी। इसी प्रकार महाराज उग्रसेन बड़े ही धर्मात्मा व्यक्ति थे, फिर भी उन्हें कंस जैसा दुराचारी पुत्र प्राप्त हुआ।
भारतीय संस्कृति में संस्कारवादी तथ्यों को पाश्चात्य विचार धारा से प्रभावित व्यक्ति मात्र अन्धविश्वास का नाम देकर नजर अंदाज कर देता है, जिसके प्रभाव से उनके संतान में भी वही संस्कार विकसित होते हैं। वास्तव में गर्भावस्था काल में ही माता के आचरण, चरित्र तथा संगति के अनुसार ही सन्तान की नियति का निर्धारण होता है। महर्षि विश्रवा जितने ज्ञानी थे, उनकी पत्नी कैकसी उतनी ही कुटिला, अतः रावण गर्भाअवस्था में आश्रम के प्रभाव से विद्वान तो हुआ, लेकिन माता की कुटिल प्रवृत्तियों के कारण वह संसार में बुराई का प्रतीक बन गया।
इसी प्रकार अभिमन्यु द्वारा चक्रव्यूह भेदन की विद्या सीखना गर्भकाल में सन्तान के व्यक्तित्व निर्धारण का एक सर्वविदित उदाहरण है। साथ ही यह कहना भी अनुचित नहीं होगा कि सन्तान का स्वभाव तथा शारीरिक विकार माता-पिता द्वारा रजोदर्शन के समय किये गये आचरण से भी प्रभावित होते हैं।
इसे भगवान धन्वन्तरि ने आयुर्वेद में प्रमाणित भी किया है- यदि रजस्वला स्त्री दिन के समय सोये और कदाचित् उसे उस ऋतुकाल में गर्भ रह जाये तो भावी शिशु बहुत सोने वाला उत्पन्न होगा। काजल लगाने से अन्धा, रोने से विकृत-दृष्टि, स्नान और अनुलेपन से शारीरिक पीड़ा युक्त, तेल मलने से कोढ़ी, नाखून काटने से बुरे नाखून वाला, दौड़ने से चंचल, हंसने से काले ओष्ठ, विकृत जिह्ना तथा तालु वाला, बहुत बोलने से बकवादी, भयंकर शब्द सुनने से बहरा, कंघी करने से गंजा, अधिक वायु-सेवन से पागल बालक उत्पन्न होता है। इसलिये रजस्वला स्त्री को ऐसे कार्य नहीं करने चाहिये।
यह बात स्वयं सिद्ध है कि शिशु का निर्माण माता – पिता के शरीर, आत्मा और मन से होता है। इन तीनों में मन की प्रधानता है। मन बड़ा ही चंचल है और मन-बुद्धि के समागम में कुछ न कुछ मनन चलता रहता है। यदि उसे उचित विषय न मिले तो उसका विपथगामी होना स्वाभाविक क्रिया हो जाती है। अन्य समय में मन की इस चंचल वृत्ति को सहन किया जा सकता है, परन्तु गर्भाधान जैसे पवित्र और महत्वपूर्ण काल में जब व्यक्ति अपने वंश, जाति और परम्पराओं के उत्तराधिकारी का निर्माण करने का प्रयास कर रहें हैं, तब इस प्रकार की आश्रयहीन मनोवृत्ति अयोग्य, कुल कलंकी और सर्वदा सन्ताप की आग में जलने वाले शिशु के जन्म का कारण बन सकती है।
इस प्रकार की असावधानी से इन सबका दुष्परिणाम माता के साथ-साथ सन्तान पर भी आजीवन पड़ता है। अतः रजस्वला स्त्री को चौथे दिन सुन्दर वस्त्र अलंकार धारण कर मंगल आचरण और शुद्ध भाव, विचार, चिंतन के साथ अपने पति या दिव्य व्यक्तित्व से युक्त गुरु, ईश्वर का अनुग्रह प्राप्त करना चाहिये। क्योंकि रजस्वला स्नान उपरान्त स्त्री जैसे पुरुष का प्रथम दर्शन करती है, उसे उसी प्रकार की सन्तान की प्राप्ति होती है।
इसलिये मनोनुकूल सुसंस्कारवान सन्तान की प्राप्ति के लिये रजोदर्शन उपरान्त ऋतु स्नान से शुद्ध होकर अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमा, संक्रान्ति आदि चैतन्य काल में या ज्योतिष शास्त्र अनुसार शुभ समय में गर्भाधान करें। इसी प्रकार गर्भाधान के उपयुक्त समय का भी वैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषण किया गया है। इस सम्बन्ध में तत्वद्रष्टा मनु लिखते हैं- स्त्रियों का स्वाभाविक ऋतुकाल रजोदर्शन के दिन से 16 रात्रियों का माना गया है, जिसमें प्रथम चार रात्रियां अतीव निन्दित हैं, शेष दस रात्रियां प्रशस्त हैं। पुत्र की अभिलाषा युक्त दम्पत्ति को छठी, आठवीं, दसवीं, बारहवीं, चौदहवीं और सोलहवीं रात्रि में गर्भ धारण करना चाहिये। इसी प्रकार कन्या के लिये पांचवी, सातवीं, नवीं तथा पन्द्रहवीं रात्रि में गर्भाधान करें। ग्यारहवीं तथा तेरहवीं रात्रियां भी निन्दित मानी गयी हैं।
इसके साथ ही सद्गुरुदेव निखिल ने भी गर्भधारण शिशु में विशिष्ट संस्कारो और चेतना की अलख जनमानस में जगायी है, जिसके माध्यम से तेजस्वी, सुसंस्कारवान संतान की प्राप्ति की अभिलाषा निश्चित रूप से पूर्ण होती है। सद्गुरुदेव निखिल के अनेक तथ्य आज वैज्ञानिक दृष्टि प्रमाणित हो चुके हैं। आज भी हजारों-हजारों शिष्य- शिष्यायें ऐसे हैं, जिन्होंने गर्भाधान काल में गर्भावस्थ शिशु चेतना दीक्षा की प्रमाणिकता को सहर्ष स्वीकर किया है।
आपकी माँ
शोभा श्रीमाली
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