जिस प्रकार सूर्य ग्रहण के क्षण तांत्रोक्त साधनाओं के विलक्षण काल होते हैं, ठीक उसी प्रकार होली की रात्रि साबर मंत्र साधना के लिये जाना जाता है। इस दिवस का प्रत्येक तंत्र साधना का इच्छुक साधक प्रतीक्षा करता है। दीपावली की रात्रि और होली की रात्रि में केवल इतना ही अन्तर है कि दीपावली की मध्य रात्रि में सिंह लग्न में साधना सम्पन्न की जाती है, जबकि होली की रात्रि में होलिका दहन, दर्शन करने के तुरन्त बाद साधना प्रारम्भ किया जाता है। होलिका दहन की रात्रि की जाने वाली प्रत्येक माला सौ माला के बराबर होती है और यदि ऐसा दुर्लभ सौभाग्य बने कि गुरु के निज निवास पर होली की रात्रि साधना सम्पन्न की जाये तो एक माला मंत्र जप एक हजार माला के बराबर होता है। होली पर्व ऐसा अवसर है, जब साधक कम परिश्रम से बहुत कुछ प्राप्त कर सकते हैं।
होलिका दहन की रात्रि साधक अपनी इच्छा अनुसार कोई भी साधना सम्पन्न कर सकते हैं, परन्तु इस रात्रि में महाविद्या तंत्र साधना, पाप-ताप-सहारक साधना, सम्मोहन, आकर्षण, वशीकरण आदि साधनाएं विशेष रूप से सम्पन्न की जाती हैं। जीवन में असुरक्षा के भाव की समाप्ति हेतु होली दिवस पर साधना सम्पन्न करना अत्यन्त आवश्यक है। वैसे तो होली दहन की सम्पूर्ण रात्रि साधनात्मक दृष्टि से चैतन्य व जाज्वल्यमान है, परन्तु मध्यरात्रि के पूर्व का समय अधिक अनुकूल होता है।
आज समाज में आवश्यकता से अधिक द्वेष, ईर्ष्या, छल, कपट, हिंसा, और शत्रुता का भाव विद्यमान है। फलस्वरूप व्यक्ति शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत नहीं कर पाता और निरन्तर दुःख, विषाद, बाधा, अड़चनों से घिरा रहता है। जीवन के अधिकांश दुःख शत्रुओं के द्वारा ही प्राप्त होते हैं और ये शत्रु किसी भी रूप में हो सकते हैं। वास्तव में कहा जाये तो शत्रु का कोई रूप नहीं होता वह अरूप है अर्थात् वह किसी भी रूप में हमारे सामने आ सकता है। जीवन में इसी असुरक्षा की भावना को समाप्त करने की क्रिया होली की महारात्रि सम्पन्न की जाती है। कहा जाता है पूर्ण भक्ति-भाव, समर्पण तथा विधि-विधान से साधना करने पर इस रात्रि को इष्ट देव, सद्गुरु के दर्शन भी प्राप्त किये जा सकते हैं।
तंत्र की दृष्टि से तंत्र के आदि गुरु भगवान शिव हैं, तंत्र शास्त्र का आधार यही है कि व्यक्ति ब्रह्म से साक्षात्कार कर सके और उसका कुण्डलिनी जाग्रत हो तथा वह तृतीय नेत्र रूपी आज्ञा चक्र की चैतन्यता से जीवन को सभी रसों से पूर्ण बना सके। भगवान शिव ने प्रथम बार अपना तीसरा नेत्र फाल्गुन पूर्णिमा होली दिवस पर ही खोला था और कामदेव को भस्म किया था। इसलिये यह दिवस तृतीय नेत्र जागरण दिवस है भी कहा जाता है, कामदेव भस्म का तात्पर्य यहां यह है कि जीवन की कुवासनाओं को भस्मीभूत किया जा सके। तंत्र साधनाओं के साधक इस दिन विशेष साधना सम्पन्न करते हैं जिससे वे भगवान शिव के तीसरे नेत्र की चेतना अपने रोम-रोम में आत्मसात कर सके और उनकी अग्नि ऊर्जा को ग्रहण कर अपने भीतर छाये हुए राग, द्वेष, काम, क्रोध, मोह-माया के बीज पर पूर्ण विजय प्राप्त कर जीवन की मलिनताओं को समाप्त कर सकें।
तांत्रोक्त साधनाएं वास्तव में सफलता से अधिक संबंध रखती हैं क्योंकि इसके पीछे व्यक्ति की जूझने की प्रवृत्ति होती है, जिससे सफलता मिलने की सम्भवानाएं प्रबल हो जाती हैं। अपने समस्त विरोधाभासों के बाद भी तंत्र की सर्वोच्चता निर्विवाद रूप से सत्य ही है।
वर्ष के कुछ विशिष्ट दिवसों की महत्ता यदि साधक गंभीरता से समझे तो उसे अनुभूति होगी कि वास्तव में ऐसे विशिष्टि दिवस की चैतन्यता क्या होती है और इन दिवसों पर साधना सम्पन्न करने का दूरगामी प्रभाव कितना अधिक प्रबल होता है। ये विशिष्ट दिवस ऐसे होते हैं, जब प्रकृति भी एक संतुलन बनाकर रहस्यमयी रूप में सहायक होती है, इस समय अणु-अणु चैतन्य होने के साथ इस प्रकार का वातावरण होता है जो साधक को उसके परिश्रम का कोटि गुना अधिक प्रभाव दे जाता है।
तांत्रोक्त साधनाओं का समाज में जो भ्रम है, वास्तव में ये भ्रम इस पावन पवित्र क्रिया को एक प्रकार से दूषित करती है। तंत्र की क्रियायें जितनी अधिक प्रभावशाली और अचूक होती हैं, उससे कहीं अधिक ये पावन भाव-भूमि पर भी स्थित हैं। इन साधनाओं के माध्यम से जीवन की अनेक दूषिताओं को समाप्त किया जाता है, ना कि लिप्त होने की क्रियायें की जाती हैं। तंत्र साधनायें अपने प्रवाह में झटके से विशाल वृक्ष के रूप में स्थित दुख-विषाद को भी उखाड़ कर गिरा देने की क्षमता से युक्त होती हैं। तंत्र साधनाओं की यह उग्रता और प्रचण्डता जीवन के प्रत्येक पक्ष में तालमेल स्थापित कर जीवन को निर्विघ्न स्वरूप प्रदान करती हैं।
होलिका-दहन की रात्रि प्रकृति सामान्य स्थिति में नहीं होती। इस दिवस पर प्रकृति का कण-कण पूरी क्षमता से कम्पनमय रहता है। इस दिवस की उपयोगिता तब ही पूरी तरह सिद्ध हो सकती है, जब साधक सद्गुरु सानिध्य में जीवन को सही दिशा व दशा देने की साधनात्मक क्रियाओं का अवलम्बन ग्रहण करता है।
होलिका के सिद्ध चैतन्य दिवस 19 – 20 मार्च को सर्व दुःख बाधा संहारिणी साधना महोत्सव जोधपुर कैलाश सिद्धाश्रम में जीवन की मलिनता, दुःख, विषाद, रूग्णता, कुंठा आदि विकारों, न्यूनताओं, अभावों के निवारण की साधनात्मक क्रिया विशिष्ट साधनात्मक क्रिया व दीक्षा के माध्यम से सम्पन्न होगा, जिससे साधक सपरिवार सुख -समृद्धि, सम्पन्नता, कार्य-व्यापार वृद्धि, संतान सुख, दीर्घायु जीवन, सम्मोहन, आकर्षण से युक्त हो सकेंगे।
होलिका दहन की रात्रि तंत्र की रात्रि कही गयी है और तंत्र का तात्पर्य होता है सृजन अर्थात् निर्माण की रात्रि जो दुःख, बाधा, कष्ट, रोग, धन हीनता, क्लेश को अग्नि में भस्मीभूत कर नूतन स्वरूप प्रदान करता है जीवन में सृजन की नई परिभाषा संयोजित करने में सहायक होता है साथ ही साधनामय होलिका दहन के माध्यम से साधक का जीवन अग्नि के ताप से स्वर्णमय दैदीप्यमान बनता है।
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