सूर्य नित्य ही इस धरा की यात्रा में गतिशील बना रहता है। सूर्य किसी अर्घ्य प्राप्ति की आशा में इस धरा पर नहीं आता वरन् व्यक्ति उन्हें अर्घ्य देकर स्वयं अपने ही जीवन को उदात्त व पवित्र बनाने की चेष्टा करता है।
यही कार्य सद्गुरु का भी होता है। उनका आगमन और प्रस्थान सदैव इसी भांति होता रहा है। वे इस धरा पर उदित होते हैं और फिर प्रकाश करने के लिए बढ़ जाते हैं उस ओर, जो अंधकार में डूबा हो, क्योंकि विराट होता है उनका पथ और विराट होते हैं उनके लक्ष्य! सूर्य तो वस्तुतः कभी अस्त होता ही नहीं और इसी प्रकार से गुरु भी कभी विरत नहीं होते, केवल उनके क्रिया-कलाप और अधिक विस्तारित हो जाते हैं।
यदि हम सूर्य का वैज्ञानिक विश्लेषण करे, तो ज्ञात होता है, कि उस ग्रह मात्र में निरन्तर विस्फोट होते रहते हैं, जिससे अपरिमित ऊर्जा व ताप उत्पन्न होता रहता है। इसी वैज्ञानिक तथ्य को यदि भावमय ढंग से कहें, तो सूर्य की ऊर्जा का रहस्य मानों उसके अन्दर निरन्तर रहने वाले किसी आलोड़न-विलोड़न में छिपा होता है और स्वयं में प्रतिपल विखंडित होता हुआ, उस विखंडन के उद्वेगों को सहन करता हुआ ताप से भरा होने के उपरान्त भी वह निरन्तर प्रकाश को देने की क्रिया में संलग्न रहता है।
सद्गुरु के अन्तर्मन में भी इसी प्रकार प्रतिक्षण अनेकों-अनेक ज्वालामुखी फटते रहते हैं, और वे निरन्तर अपनी ऊष्मा संचारित करते रहते हैं, अपने शिष्यों का जीवन जाज्वल्यमान प्रकाशमान बनाये रखने के लिये।
गुरु अपने आप में समस्त ऐश्वर्य के अधिपति होते है। उनके विभिन्न अंगों में समस्त देवी देवता स्थापित होते हैं। सभी देवों के वे समन्वित रूप होते हैं, सर्व देवमय होने के कारण प्रथम आराध्य एवं पूजनीय हैं। वे परमेश्वर के साक्षात मूर्तरूप हैं, मानव रूप में वे समस्त साधनाओं के सूत्रधार कहे जाते हैं। साधनाओं में सफलता के लिए अन्य साधनाओं से पूर्व गुरु साधना अपेक्षित होती है।
गुरु के प्रति अन्तरंगता एवं तादात्म्य बनायें रखना, इस सांसारिक जीवन में सर्वाधिक आवश्यक है क्योंकि भौतिक और आध्यात्मिक सफलता के एकमात्र सद्गुरु ही सूत्रधार होते हैं। बिना उनकी अनुकम्पा के जीवन में अनुकूलता संभव नहीं है, इसलिये शिष्य को निरन्तर सद्गुरु की कृपा, उनका सानिध्य प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिये।
जिस दिन शिष्य यह मन- विचार से स्वीकार कर लेता है कि उसके जीवन के सूर्य गुरु हैं, जो वाचक रूप में ना होकर अन्तः करण से उठे तो उस दिन से ही उसके जीवन में एक नवीन ऊष्मा प्रवाहित होने लगती है और सद्गुरु उसे प्रकाश, ऊर्जा, शक्ति विकास की गति प्रदान करते रहते हैं और जीवन नित्य नूतन स्वरूप में वृद्धि करता रहता है।
21 अप्रैल वह दिव्य दिवस है जब सद्गुरुदेव जी ने इस धरा पर अपनी पहली प्रकाश किरण संचारित कर हम सभी शिष्यों को जीवन में जीवन्तता और चैतन्यता प्रदान की, इसलिए अवतरण दिवस की महा-महिमा है। यह दिवस शिष्य के लिये रामनवमी है, कृष्ण जन्माष्टमी है, महाशिवरात्रि है और इससे भी बढ़कर शिष्य के स्वयं के जीवन-उदय का क्षण है, जब उसने पहली बार जाना की सूर्य कैसा होता है और उसके प्रकाश से जीवन कितना आनन्दमय बन जाता है।
सद्गुरु का कार्य ठीक एक माली की ही तरह है। शिष्य को जितनी चिंता अपने विकास की होती है, गुरुदेव को उससे कहीं अधिक होती हैं उन्हें प्रतिपल यह बात उद्वेलित रखती है, कि जो बीज मेरे शिष्य के अंदर पड़े हैं- ज्ञान के, चेतना के, सुसंस्कारों के- वे व्यर्थ न चले जाएं और वे ही इसके अंकुरण के प्रयास भी करते हैं केवल अंकुरण ही नहीं, पूर्ण सघन वृक्ष बनाने की सीमा तक वे चेष्टारत रहते हैं।
वास्तविक रूप से यदि आपसे कहूं तो यह सद्गुरुदेव का अवतरण दिवस ना होकर शिष्य जीवन में एक जीवन्तता प्रदान करने की क्रिया है और इस दिवस के माध्यम से उनसे आत्मभाव जुड़ाव बनायें रखने में निरन्तरता का भाव है। सद्-गुरुदेव अवतरण दिवस जीवन के मूलभूत तत्व से एकात्म भाव स्थापित करने का दिवस है। इसलिये इसे अवतरण दिवस ना समझकर स्वयं की चेतना का दिवस जाने और अपनी चेतना से जितना अधिक स्नेह, प्रेम होगा जीवन में उतनी ही सर्वमंगलता बनेगी।
शिष्य का अहोभाग्य है कि वह अपने जीवन में बार-बार ऐसे दिव्यतम महोत्सव से अभिभूत होकर सिद्धाश्रम शक्ति युक्त सद्गुरु चेतना से आप्लावित होने की क्रिया में निरन्तर संलग्न हैं। इस अमृत महोत्सव में आने से आपके जीवन में निश्चित रूप से सिद्धाश्रम शक्तिमय मंगलमय स्थितियां निर्मित होंगी। निखिल पर्व पर दशहरा मैदान हुडको भिलाई दुर्ग छ-ग- में सद्गुरुदेव कैलाश श्रीमाली जी व वन्दनीय माता जी के दिव्य सानिध्य में 19-20-21 अप्रैल को नारायण भगवती अमृत महोत्सव में प्रवचन, योगा, प्राणायाम, साधना, दीक्षा, हवन, अंकन युक्त सिद्धाश्रम संस्पर्शित नारायण भगवती महामाया सहस्त्र लक्ष्मी, मातंगी चण्डिका व अक्षय सौभाग्य शक्ति दीक्षायें व साधनायें सम्पन्न करने से साधकों का जीवन धन लक्ष्मी गणपति कार्तिकेय रिद्धि सिद्धि शुभ-लाभ शिव महामाया चेतना युक्त हो सकेगा। जिससे अक्षय धन लक्ष्मी, कार्य व्यापार वृद्धि, दीर्घायु सौभाग्य, सुसंस्कार संतान वृद्धि व शत्रु विहीन जीवन निर्मित हो सकेगा।
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