श्मशान से वापस लौटने के बाद क्या कभी किसी में कोई परिवर्तन आया? संसार का सार जानकर क्या बदलाव हुये, हमने क्या जीवन को बदलने का प्रयास किया? नहीं किया, हमारे भीतर कोई बदलाव नहीं हुआ। अपना अच्छा-बुरा हम बहुत बेहतर ढंग से समझते हैं, लेकिन इसके बाद भी हमारे कर्म में कोई परिवर्तन नहीं आ पाता, इसका मूल कारण है मनुष्य की अपनी आदतें, उसका स्वभाव, जिसे वह छोड़ना नहीं चाहता।
आप अपनी आदतें, अपना स्वभाव तो बदल कर देखें, स्वयं में परिवर्तन तो लायें, आपका जीवन स्वयं ही सुखी बन जायेगा, शांतिपूर्ण हो जायेगा और आप अलौकिक शक्तियों के स्वामी बन जायेंगे। परमात्मा की इस पावन भूमि पर अतीत को सार्थक बनाकर लाभ उठाने का केवल यही उपाय है कि धैर्य के साथ अपनी पूर्व की भूलों का विश्लेषण करें, उनसे सीखें और उन्हें बिल्कुल भुला दें। यह ठीक है कि कुछ समय पूर्व हुई किसी घटना के प्रभाव को किसी सीमा तक हम सही कर लें, किन्तु उसे सर्वथा बदल नहीं सकते।
एक छोटी सी लघु कथा है- एक समय न्यूयार्क का एक व्यापारी बिना किसी कारण तीन हजार डॉलर की रकम स्वाहा कर दिया। बात यह थी कि उसने शिक्षा प्रदान करने के लिये एक विशाल केन्द्र की स्थापना की थी। विभिन्न नगरों में उसने विभिन्न शाखाएं खोलीं और उसके प्रचार एवं देख-रेख के लिए बहुत धन खर्च किया। पढ़ाने में व्यस्त रहने के कारण अर्थ व्यवस्था पर उसने ध्यान नहीं दिया, ना ही उसके पास इतना समय ही था। इस विषय पर वह इतना लापरवाह था कि आय-व्यय का हिसाब रखने के लिए किसी मैनेजर की भी आवश्यकता उसने नहीं समझी। अन्ततः एक वर्ष के पश्चात उसे गम्भीर एवं दिल दहला देने वाले तथ्य का ज्ञान हुआ कि बहुत आय होने पर भी लाभ के नाम पर एक कोड़ी भी उसके पास नही बची है। इस तथ्य का पता चल जाने के बाद वह चिन्ता में गोते खाने लगा गया और कई महीनों तक उलझन में पड़ा रहा। उसका वजन कम हो गया और नींद उड़ गई। इतनी बड़ी भूल से शिक्षा ग्रहण करने के बदले वह फिर उसी प्रकार की लेकिन छोटे पैमाने पर भूल करता रहा। एक दिन उसे अपने मूर्खता पूर्ण कृत्यों के बारे में सोचने पर बड़ा मानसिक क्लेश हुआ। उसके बाद वह समझ गया था कि दूसरों को शिक्षा देना सरल है किन्तु उसी शिक्षा के अनुरुप खुद आचरण करना अत्यन्त कठिन है।
दूसरी एक और घटना घटी वैज्ञानिक जॅार्ज वांशिगटन करावर के साथ बैंक में चालीस हजार डॅालर गंवा देने पर जब उससे पूछा गया कि आपको अपने दिवालिया हो जाने की बात मालूम है? तो उसने बड़े सहज भाव से उत्तर दिया हां सुना तो है, यह कहकर वह फिर से अपने अध्यापन कार्य में व्यस्त हो गया, उसने उस हानि को सदा के लिए मन से निकाल दिया था।
इन दोनों बातों में स्पष्ट तथ्य यह है कि विधाता लेख लिखता है और लिखता ही जाता है। आपकी समस्त बुद्धि आधी पंक्ति मिटाने के लिये भी उसे लालच नहीं दे सकती, विधाता के लिखे शब्दों को आपके आंसू धो नहीं सकते। फिर व्यर्थ में आंसू क्यों बहाते हो, यदि कोई बदल सकता है, तो वह आपका अपना कर्म, केवल यही आपकी सहायता करेगा। यह भी सत्य है कि मनुष्य बहुत सी भूलें तथा मूखर्तायें करता रहता है।
नेपोलियन जैसा व्यक्ति भी अपनी जीती हुई लड़ाईयों में से एक तिहाई हार गया था। सभी को जीवन में केवल सफलता ही सफलता नहीं मिलती, औसतन आपके प्रयत्न भी नेपोलियन के प्रयत्नों से बुरे नहीं हैं, यह निर्विवाद है कि शक्तिशाली व्यक्ति भी एकदम टूटी-फूटी किसी वस्तु को फिर से जोड़ कर एकदम से नया नहीं बना सकता, चाहे वह अपनी पूरी ताकत ही क्यों न लगा दें। कोई ना कोई दाग बना ही रहता है, यह स्मरण रखें कि किसी भी बात को सोच-सोच कर पागल ना हो जायें, साथ ही प्रसन्नता से काम में लीन रहने से आनन्द की प्राप्ति होती है। इसलिये अत्यधिक चिंता ना करें, सुभावों का चिंतन करें, जीवन स्वयं ही बदलाव की ओर बढ़ जायेगा।
चिन्ता, ईर्ष्या, घृणा, प्रतिशोध यह सब भय से उत्पन्न होते हैं, उसी की ये सन्तानें हैं, भय का थोड़ा सा बीज अपने भीतर रोपित कर आप अपने मन में अनेक घातक और विषैले जंगली पौधों को स्थान दे देते हैं। भयग्रस्त लोगों के मस्तिष्क के सेल्ज में निश्चित रूप से ऐसा होने लगता है। भय और चिन्ता हमारे रक्त और नाड़ी संस्थान में विष पहुंचाते हैं। अनेक रासायनिक परिवर्तन होते हैं, हमारा स्वास्थ्य नष्ट हो जाता है। हमारा मस्तिष्क स्वस्थ भाव से क्रिया नहीं कर पाता। इसलिये स्वस्थ मन रखें————स्वस्थ चिंतन करें——- और———–स्वयं भी स्वस्थ रहें—————–!!
विधाता विधि का विधान लिख रहा है और लिखता ही जा रहा है आपके आंसू आपके दुर्भाग्य की कालिमा नहीं समाप्त कर सकते, केवल आपकी क्रियाओं से ही सुस्थितियों का आगमन हो सकता है। अतः प्रत्येक कर्म करते समय अपनी क्रियाओं का निरीक्षण करते रहें।
परम पूज्य सद्गुरुदेव
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