गुरु नानक देव जी एक दिन रावी नदी के किनारे गये। उन्होंने अपने भक्त लहिणा के सामने पांच पैसे एवं एक नारियल रखा और चरणों को छूकर नमस्कार किया। चूंकि लहिणा गुरु भक्त शिष्य था, इसलिये उसे उन्होंने गुरु बना दिया और उसका नाम हो गया गुरु अंगददेव, ये ही गुरु अंगददेव द्वितीय नानक के नाम से प्रसिद्ध हुये। गुरु नानक देव ने लहिणा का नाम परिवर्तित कर अपनी ज्योति उसमें प्रविष्ट कर दी। उस समय अंगददेव ने गुरु नानक देव जी से प्रार्थना की कि जो भक्त परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हो सके, उन्हें क्षमा कर दिया जाये। गुरु नानक देव ने कहा- आपके कारण मैं उन्हें क्षमा करता हूं। इसके बाद गुरु अंगद देव नानक देव के चरणों में नतमस्तक हो गये, गुरु जी ने गुरु अंगददेव को खण्डूर साहिब (पंजाब) में वापस जाकर रहने और ज्ञानमय सिख धर्म का प्रचार करने का आदेश दिया।
अचानक एक दिन गुरु नानक देव ने अपने अनुयायियों को आज्ञा दी कि चिता के लिये चंदन की लकड़ी मंगा लें। एक स्थान पर उन्होंने अपनी सहज समाधि स्थान को धो-संवारकर उसके पास एक कनात लगा दी गयी। उसके निकट ही उन्होंने अपना गुरु सिंहासन सजाकर रखवा लिया। जब उनके पुत्र श्रीचंद एवं श्रीलक्ष्मी चंद को ज्ञात हुआ कि गुरु साहिब ने परमधाम प्रस्थान करने की तैयारी कर ली है तो वे चरणों में आ गिरे और कहने लगे आप गुरुपद अंगददेव को दिये जा रहें हैं, हमारी क्या स्थिति होगी, हमारा निर्वाह कैसे होगा? दया करो, कृपा करो। नानक देव ने कहा- पुत्र! किसी को भी कमी नहीं होगी, भोजन, वस्त्र तो साधारण बात है, यदि गुरु-गुरु भजोगे तो जन्म संवरेगा।
यह समाचार सर्वत्र फैल गया कि गुरु नानक देव महाप्रयाण की तैयारी कर रहें हैं। शिष्य दर्शनार्थ आने लगे, हिन्दू, मुसलमान सब आने लगे। गुरु नानक एक सिरस के पेड़ के नीचे बैठ गये। शुष्क वृक्ष पल्लवित और पुष्पित हो उठा। गुरु अंगददेव ने आदर से उनके चरणों का स्पर्श किया गुरु जी की पत्नी शोक से विह्वल होकर रोने लगीं। अन्य सम्बन्धी पारिवारिक जन तथा शिष्य भी विलाप करने लगे।
सभी को सांत्वना देते हुये गुरुजी बोले- जगत सृष्टा सच्चा राज धन्य है, जिसने पूरे संसार को धन्धों में लगाया है। इस लोक में रहने के लिए प्राणी को परमात्मा की ओर से जितनी काल अवधि दी गयी है, जब वह पूर्ण हो जाती है और भगवान का आदेश पत्र आ जाता है, तब जीव शरीर को छोड़कर चल देता है। जब सभी भाई-बन्धु रोने लगे तो उन्होंने कहा- मेरे बन्धुओ! भगवान का स्मरण करो, सबका इसी प्रकार यहां से जाना होगा। संसार के समस्त व्यवहार चार दिन के मिथ्या व्यापार है। आगे की यात्रा सिर पर है। गर्व किस हेतु किया जाये, यह संसार तो एक साधन मात्र है, जो कोई यहां आया है, वह जायेगा। अहंकार मिथ्या है, जो प्रिय परमात्मा से प्रीति लगा कर रोये, उसी का रोना यथार्थ है।
इसके बाद शिष्य-मंडली शबद गाने लगी। गुरु नानक देव ने दरबारी छंद में एक शबद गया, वह शबद गुरु ग्रन्थ साहिब में सुरक्षित है। उसका शीर्षक है- बारहमाहा। इसमें जीवात्मा की परमात्मा के साथ मिलने की तीव्र उत्कंठा वर्णित है। शबद समाप्त करके गुरु नानन देव जी ने अपने शबदों का ग्रंथ श्रीगुरु अंगददेव के हाथों में दिया।
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