प्रद्युम्न के रूप में कामदेव और रूक्मावती के रूप में रति का पुनर्जन्म हुआ और उनके विवाह से अनिरूद्ध का जन्म हुआ था। कहा जाता है कि अनिरूद्ध और उनके दादा भगवान कृष्ण में बहुत सी समानतायें थी, उन्हें भगवान विष्णु का अंश भी माना जाता है। महाभारत के 65 वें अध्याय के 69-70 छंद में अनिरूद्ध की तुलना ब्रह्मा, विष्णु से की गई है। अनिरूद्ध ने अर्जुन से धनुर्विद्या सीखी। इन्हें ऊषापति व झशंक नाम से भी जाना जाता है। अनिरूद्ध के पुत्र का नाम वज्र था जो आगे चलकर इंद्रप्रस्थ के राजा बनें।
हरिवंश पुराण के अनुसार इंद्रलोक में उस समय बाणासुर नामक राजा हुआ करता था, जो बहुत शक्तिशाली था, उसके हजारों भुजाएं थी। शिव जी व माता पार्वती की घोर तपस्या कर उसने उन्हें प्रसन्न किया था साथ ही वरदान के रूप में उसे उनके पुत्र के रूप में स्वीकार करने का आशीर्वाद मांगा था। भगवान शिव ने उसे कार्तिकेय से छोटे पुत्र के रूप में स्वीकार किया व शोणितपुर का शासक बना दिया। बाणासुर ने अपने बड़े भाई कार्तिकेय को भी अपनी सेवा से अत्यन्त प्रसन्न कर दिया। फलस्वरूप भगवान कार्तिकेय ने प्रसन्न होकर उसे एक अत्यन्त तेजस्वी ध्वजा और वाहन के लिए अत्यन्त तेजस्वी मोर दिया। भगवान शंकर का कृपा पात्र होने के कारण कोई भी देवता, गंधर्व, यक्ष, किन्नर उसे कुछ न बोलते थे। दिनों-दिन उसके अहंकार में वृद्धि होती जा रही थी। वह सदा युद्ध के लिए देवताओं से छेड़छाड़ करता रहता था।
भगवान शिव के परम भक्त व बलि के पुत्र बाणासुर ने एक बार फिर भगवान शिव को प्रसन्न करने हेतु घोर तपस्या की, उसकी तपस्या इतनी अडिग थी कि उसका शरीर सूख कर कृषकाय सा हो गया, शिव जी प्रसन्न हुये व वाणासुर के समक्ष प्रकट हुये, बाणासुर ने अपनी दो इच्छायें बतायी पहली यह कि भगवान शिव स्वयं उसके राज्य की सुरक्षा की जिम्मेदारी लें और दूसरी यह कि वह एक ऐसे राजा से युद्ध करना चाहता है, जो उससे भी अधिक पराक्रमी हो, भगवान को थोड़ा अजीब लगा परन्तु उन्होंने अपने भक्त को वरदान दे दिया। शिव ने राजा बाणासुर को कहा कि तुम कुछ दिन धैर्य रखों तुम्हें युद्ध का अवसर अवश्य मिलेगा, परन्तु याद रहें जिससे तुम्हारा युद्ध होगा वह बहुत शक्तिशाली भी होगा। जिस दिन तुम्हारी यह ध्वजा अपने आप गिर जायेगी, उस दिन तुम्हें बैठे-बैठे इसी स्थान पर युद्ध का अवसर मिल जायेगा। यह सुनकर बाणासुर अत्यन्त प्रसन्न हो गया।
राजा बाणासुर की एक पुत्री थी ऊषा जो बहुत सुंदर व योग्य थी। उसे माता पार्वती का आशीर्वाद प्राप्त था कि वैशाख द्वादशी की रात्रि में जो पुरुष ऊषा के स्वप्न में आयेगा वही उसका पति होगा। जब निश्चित रात्रि आ गई तब ऊषा को उसके स्वप्न में एक सुन्दर, तेजस्वी राजकुमार दिखा और उसकी नींद खुल गई। राजकुमारी ने अगले दिन अपनी परम सखी चित्रलेखा को अपने स्वप्न के बारे में बताया। चित्रलेखा माया विद्या व चित्रकला में अत्यन्त प्रवीण थी।
राजकुमारी इसी सोच में डूबी थी कि कैसे पता लगाया जाये कि स्वप्न में आया वह राजकुमार कौन है और कहां रहता है? यह देख चित्रलेखा बोली एक उपाय है, प्रायः सभी वीरो और अविवाहित, योग्य युवकों से मैं परिचित हूं। उन सब के चित्र बनाकर आपको दिखलाती हूं, जिस किसी का चित्र स्वप्न में आये राजकुमार जैसा हो आप मुझे बता देना। इस प्रकार चित्रलेखा ने एक पत्र में नाना प्रकार के राजकुमारो, वीरों के चित्र बनायें, फिर उनको बारी-बारी से दैत्य सुन्दरी ऊषा को दिखलाया। वह एक के बाद एक चित्र देखती रही। जब अनिरूद्ध का चित्र ऊषा के सामने आया तो वह बोल उठी, यही है वह राजकुमार, कौन है ये? तब चित्रलेखा बोली यह तो महाबली प्रद्युम्न के पुत्र, भगवान श्री कृष्ण के पौत्र अनिरूद्ध हैं। ऊषा प्रसन्न थी, परन्तु उसी समय दैत्य सुन्दरी को अपने पिता बाणासुर का स्मरण आया। वह बोली यदुवंशियों को मेरे महा पराक्रमी पिता अपना परम शत्रु मानते हैं। यह विवाह कैसे होगा? इस पर चित्रलेखा बोली यह विवाह होकर रहेगा। माँ भगवती का वचन मिथ्या नहीं हो सकता है। तुम्हारे स्वप्न में आने वाला पुरुष ही तुम्हारा पति होगा। तुम चिन्ता न करो मैं अनिरूद्ध को तुम्हारे पास ले आऊंगी।
तब चित्रलेखा आकाश मार्ग से द्वारिकापुरी रवाना हो गई। द्वारिकापुरी पहुंच वहां की शोभा देखकर वह चकित रह गई। अब क्योंकि त्रिचलेखा माया विद्या जानती थी, इसलिये वह श्रीकृष्ण के भव्य भवन से युक्ति वश अदृश्य होकर अनिरूद्ध का हरण कर आकाश मार्ग से शोणितपुर ले आई। चित्रलेखा के साथ आये अनिरूद्ध को देखकर दैत्यराज बाणासुर की सुन्दर कन्या उन पर मोहित हो गई। पुराण में वर्णित है कि राजकुमार अनिरूद्ध को भी वही स्वप्न आया था और वे भी उस सुन्दर कन्या से मिलने को व्याकुल थे। अनिरूद्ध व ऊषा ने चित्रलेखा के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की। उन दोनों ने गंधर्व विवाह कर लिया और वहीं शोणितपुर सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगे। एक दिवस पर बाणासुर के किसी एक रक्षक ने अनिरूद्ध और ऊषा को देखा तो तुरन्त इसकी सूचना अपने राजा को दी। तत्काल राजा बाणासुर ने उस दुस्साहसी युवक का वध करने का आदेश दे दिया।
हजारों-सैकड़ों की संख्या में भयानक दैत्य सैनिकों ने अनिरूद्ध को ढूंढ कर उन पर धावा बोल दिया। अनिरूद्ध भी उन पर टूट पड़े। पहले द्वार की अर्गला से वार किया, फिर दो-तीन सैनिकों के शस्त्र छीन कर वे उन पर उन्हीं से आक्रमण करने लगे। अनिरूद्ध ने भ्रान्त, उद्भ्रान्त, अवद्ध, आलुप्त, विलुप्त, लुप्त आदि 32 प्रकार के पैतरों का प्रयोग किया। इस कारण दानव सैनिकों को लगा, हजारों अनिरूद्ध उन पर वार कर रहे हैं।
कई सैनिक वहां से भाग निकले और दैत्यराज बाणासुर को इसकी सूचना दी। वह आग-बबूला हो गया और वह भी अपने सारथी कुम्भाण्ड के साथ चल पड़ा। अपने पिता को आया देखकर ऊषा घबरा गई, उसे पूर्ण विश्वास हो गया कि अनिरूद्ध की प्राणरक्षा अब न हो सकेगी। अपनी सहस्त्र भुजाओं में पटिट्श, तलवार, गदा, शूल, परिध आदि को धारण किये बाणासुर अनिरूद्ध के सामने आ खड़ा हुआ। तब हाथी को देखकर सिंह के खड़े होने के समान अनिरूद्ध भी बाणासुर को आया देख उसके सामने आ खड़े हुये। यह देखकर बाणासुर ने उन पर बाणों की वर्षा कर दी और तलवार ग्रहण कर अपनी ओर वेग से आते हुये बाणासुर को अनिरूद्ध ने बींधना आरम्भ कर दिया। इसके कारण अनिरूद्ध रक्त से नहा गये और बाणासुर को मार देने की इच्छा से उसकी ओर वेग से झपटे। यह देखकर उसने मूलस, शूल, पिटिट्स और तोमर आदि से उन पर प्रहार किया, परन्तु अनिरूद्ध उससे भी विचलित न हुए फिर उन्होंने सहसा क्रोधपूर्वक उछलकर अपनी तलवार से उसके रथ की डोर काटकर घोड़ों को भी मार गिराया। तब यह देखकर सारथी कुम्भाण्ड बोला हे दैत्यराज! यह कोई अलौकिक वीर है, आप इस पर विजय प्राप्त न कर सकेंगे, यह जानना आवश्यक है कि यह युवक है कौन और आया कहां से हैं?
हे राजन! मैंने इस युवक को भीषण युद्ध करते देखकर इसे अत्यन्त बली, पराक्रमी, साहसी और युद्ध कौशल में चतुर पाया है। इस पर विजय प्राप्त करने के लिये माया युद्ध करिये। कुम्भाण्ड के यह वचन सुनकर बाणासुर ने माया का आश्रय लिया, वह अदृश्य हो गया, अनिरूद्ध उसे देख न सके, तब दैत्यराज ने अपनी मायापाश से अनिरूद्ध को बांध लिया। मायापाश में विवश होकर अनिरूद्ध पर्वत के समान अडिग निश्चय भाव से खड़े थे, उन्हें बंदी बना लिया गया। उधर द्वारिका में अनिरूद्ध को ढूंढ़ा जा रहा था, अंत में नारद मुनि द्वारा भगवान श्रीकृष्ण को सूचना मिली कि बाणासुर और अनिरूद्ध में घनघोर संग्राम चल रहा है और मायामय युद्ध के द्वारा उनके पौत्र को नागपाश में बांधकर बंदी बनाकर रखा गया है।
नारद की बात सुनकर भगवान कृष्ण ने तुरन्त युद्ध की घोषणा कर दी। बलराम और प्रद्युम्न को साथ लेकर वे गरूड़ वाहन पर बैठकर चल पड़े। चूंकि बाणासुर को भगवान शिव का आश्वासन था कि वे स्वयं उसके राज्य की रक्षा करेंगे, इसी कारण भगवान शिव व भगवान कृष्ण में युद्ध हुआ और बाणासुर को शिव ने यह आशीर्वाद भी दिया था कि उसका युद्ध उससे भी अधिक पराक्रमी योद्धा से होगा, उसकी यह इच्छा भी पूरी होने वाली थी।
कई दिनो तक भीषण युद्ध चला और अन्त में श्रीकृष्ण ने बाणासुर को पूरी तरह परास्त कर दिया। भगवान कृष्ण ने बाणासुर की सहस्त्र भुजाएं जिन पर उसे अत्यन्त घमण्ड था, उन्हें अपने चक्र से काट दिया और केवल दो भुजाएं ही शेष छोड़ी। भगवान शिव द्वारा विनती करने के कारण कृष्ण ने बाणासुर का वध नहीं किया। भगवान शंकर की कृपा उस पर बनी रही, कृष्ण मान गये बाणासुर ने भगवान कृष्ण से क्षमा याचना की, अनिरूद्ध को भी मुक्त कर दिया। बाणासुर भगवान कृष्ण के आगे नतमस्तक हो गया और अपनी पुत्री का विवाह अनिरूद्ध से करा दिया, सभी सहर्ष द्वारिका आ गये।
निधि श्रीमाली
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