वह गुरु ही होता है, जो करुणावश एक सामान्य व्यक्ति के रूप में शिष्यों के बीच आ कर उन्हें आत्मोत्थान के पथ पर अग्रसर करता है। वह एक सामान्य जीवन जी कर उनको एहसास कराता है, कि व्यक्ति एक सामान्य गृहस्थ जीवन जीते हुए भी ब्रह्मत्व को प्राप्त कर सकता है और खुद को सामान्य मानव की श्रेणी से उठा कर देवत्व की श्रेणी तक ले जा सकता है।
प्रकृति के नियमानुसार माया प्रत्येक मानव को जन्म के उपरान्त अपने में लिप्त कर लेती है। शिष्य भी इसके अपवाद नहीं रह पाते, वे भी माया-मोह जन्य बन्धनों के जाल में फस जाते हैं। ऐसा होने पर गुरु कितनी मुश्किल से शिष्य को अपने पास खींचता है, इसकी कल्पना करना सामान्यतः सम्भव नहीं है। वह अनेक परिस्थितियों का निर्माण कर शिष्य को अपने पास बुलाता है, उसे दीक्षा प्रदान कर पूर्णत्व के दिव्य पथ पर अग्रसर करने का प्रयास करता है।
सभी निखिल अनुयायी के लिए 21 अप्रैल वर्ष का सर्वश्रेष्ठ दिवस है, इस दिवस में सद्गुरुदेव पूर्ण रूप से आनन्दातिरेक होते हैं, इस दिन वे औघड़दानी शिव से भी बढ़कर सब कुछ लुटा देने को व्यग्र होते हैं और कोई भी शिष्य उनके पास से निराश नहीं लौटता।
आखिर क्या कारण है, कि इस उत्सव को इतना उच्च स्वीकारा गया? इसके विषय में एक प्रसंग है- एक बार शिव पार्वती के साथ कैलाश पर विचरण कर रहे थे। पार्वती कुछ अनमनी सी थीं। पूछने पर उन्होंने कहा – प्रभो! सतयुग के बाद त्रेता और अब द्वापर भी जाने वाला है। शीघ्र ही भयंकर दाढ़ो वाले किसी मकर की भांति कलिकाल आने वाला है। निश्चय ही इस युग में मानवता का ह्रास होगा और विश्व पूर्णरूपेण एक नरक की भांति हो जायेगा। ऐसे समय में तो व्यक्ति चाह कर भी परम तत्व को प्राप्त नहीं कर सकेगा। क्या कलिकाल में मानव की परिणति मात्र पशु बन कर रह जाने की है? क्या इच्छित व्यक्ति भी अध्यात्म पथ पर नहीं बढ़ पायेंगे?
शिव मुस्कुराये और बोले-निश्चय ही कलिकाल में काफी पतन होगा, परन्तु फिर भी जो व्यक्ति सद्गुरु से दीक्षित हो, उन्हें मुझसे अभिन्न मानता हुआ, उनके बताये मार्ग का अवलम्बन करेगा, वह सदैव मेरा प्रिय हो कर परम तत्व में लीन होगा।
फिर उन्होंने एक अत्यन्त गूढ़ रहस्य उद्घटित करते हुए कहा – शिवे! कलिकाल की एक विशेषता यह है, कि जो परम स्थिति सतयुग में कई सहस्र वर्षों के बाद ही प्राप्त होती थी, वह कलिकाल में सहज ही प्राप्त हो जायेगी, परन्तु चूंकि माया का प्रभाव भी कलिकाल में कई गुणा बढ़ जायेगा, अधिकांश मानव इसमें उलझ कर उस परम तत्व से वंचित ही रहेंगे।
लेकिन जो व्यक्ति सद्गुरु के मार्गदर्शन में रह कर गतिशील होंगे, वे निश्चय ही आत्मोत्थान की ओर अग्रसर होंगे और कलिकाल उनका कुछ भी बिगाड़ नहीं पायेगा। जो शिष्य गुरु जन्मोत्सव पर गुरु चरणों में पहुंचेगा, उसको सहज ही समस्त पर्वों पर की गई साधनाओं का फल और पुण्य स्वतः प्राप्त होगा और वह स्वयं ब्रह्मा, विष्णु और मुझ द्वारा भी पूजनीय होगा। सद्गुरुदेव नारायण प्राचीन ऋषियों की कड़ी के ही एक दिव्य विभूति हैं। उनके बारे में जितना भी लिखने की चेष्टा की जाये, लेखनी अपने आपको उतना ही असमर्थ अनुभव करने लगती है। वे तो एक एहसास है, जिसे आत्मीय सद्गुरुदेव को आत्मसात् करके ही अनुभव किया जा सकता है।
यह दिवस है अन्यतम साधनाओं का, जो कि शिष्य के आत्मिक उत्थान में तीव्रता प्रदान करती है, साथ ही साथ उन दिव्य और गुप्त दीक्षाओं का, जो कि गुरु द्वारा हर इच्छित व्यक्ति को प्रदान की जाती है। इस दिवस पर पूज्य गुरूदेव वे दीक्षाएं भी प्रदान करते है, जिनके बारे में शास्त्रों में गोपनीयं गोपनीयं गोपनीयं प्रयत्नतः कहा गया है। वे दीक्षाएं जिन्हें प्राप्त करने के लिए शिष्यों को पूर्ण श्रद्धा पूर्वक अपने गुरु की वर्षों सेवा करनी पड़ती थी, उन्हें पूज्य गुरुदेव इतनी आसानी से प्रदान कर रहें है और यह सब वे इसलिए कर रहे हैं, ताकि वे शिष्यों को आत्मवत् बना सकें। वे प्रत्येक शिष्य को पूर्णता तक पहुंचा सकें।
पूज्य गुरुदेव हमेशा ही शिष्यों का आवाहन करते हैं और सद्गुरुदेव के जन्म दिवस पर तो वे विशेष रूप से अपने आत्मजों की राह देखते हैं, क्योंकि यह दिवस स्वयंमेव परालौकिक दिव्यता से युक्त होता है और जो शिष्य इस दिन गुरु के चरणों में पहुंचने में सफल हो जाता है, उस पर स्वतः ही अनन्त अनुकम्पा की वर्षा होती है। इस पर्व को भारतीय संस्कृति में गुरु जन्मोत्सव कहा गया है, वह दिन जब गुरु करुणावश इस पृथ्वी पर शिष्यों एवं भक्तों के उद्धार एवं कल्याण हेतु जन्म लेते हैं। भगवान नारायण ने अपने जन्म तथा गुरु गरिमा से दिनांक 21 अप्रैल को गौरवमय बना दिया, जिसके साथ अनन्त साधकों और शिष्यों की धड़कनें जुड़ी हैं।
पर यह बहुत ही निराशाजनक बात है, कि उस आर्यावर्त में, जहां कभी इस पर्व को ‘पूर्णमदः पूर्णमिदं’ का द्योतक माना जाता था, जहां इसे सर्वश्रेष्ठ पर्व के रूप में स्वीकार किया जाता था, वहीं वर्तमान में लोग इसकी उच्चता, दिव्यता एवं सर्वश्रेष्ठता से अनभिज्ञ हैं। भिखारियों के आंचल में हीरे नहीं पाये जाते, कुछ कंकर हो सकते हैं, कुछ पत्थर हो सकते हैं, पर जन्म-जन्म की दरिद्रता को दूर करने वाली पारसमणि नहीं, यह तो मात्र कुछ गिने-चुने पारखियों के ही भाग्य में होती है। ऐसे ही पारखी थे हमारे ऋषि, जिन्होंने गुरु जन्मोत्सव की प्रचण्ड दिव्यता का एहसास कर उसे सर्वश्रेष्ठ सिद्धि प्रदायक कहा है।
निखिल पर्व पर दशहरा मैदान हुडको भिलाई दुर्ग छ-ग- में सद्गुरुदेव कैलाश श्रीमाली जी व वन्दनीय माता जी के दिव्य सानिध्य में 19-20-21 अप्रैल को नारायण भगवती अमृत महोत्सव में प्रवचन, योगा, प्राणायाम, साधना, दीक्षा, हवन, अंकन युक्त सिद्धाश्रम संस्पर्शित नारायण भगवती महामाया सहस्त्र लक्ष्मी मातंगी चण्डिका व अक्षय सौभाग्य शक्ति दीक्षायें व साधनायें सम्पन्न करने से साधकों का जीवन धन लक्ष्मी गणपति कार्तिकेय रिद्धि सिद्धि शुभ- लाभ शिव महामाया चेतना युक्त हो सकेगा।
तुमने अपनी नाव जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे समुद्र में डाल दी है, परन्तु समुद्र की लहरें विकराल और निरन्तर ऊंची उठने वाली और नाव को एक थपेड़े में उलट देने के लिए प्रयत्नशील हैं। तुम्हारे गृहस्थ रूपी समुद्र में खारे पानी के अलावा कुछ नहीं है। तुम्हारे इस गृहस्थ रूपी सागर में मगरमच्छ, केकड़े और विकराल जलचर भरे पड़े हैं, जिनका एक ही प्रयत्न है कि कब अवसर मिले और कब इस नाव को उलट दिया जाये। परन्तु फि़र भी तुम्हारी नाव निरन्तर झटके, थपेड़े और हिचकोले खाती हुयी अपनी लक्ष्य की ओर गतिशील है——क्योंकि मैं तुम्हारे साथ हूं——-मैं तुम्हारे बाजुओं की शक्ति हूं—–तुम्हारे प्राणों का ऊर्जा हूं——!!!
सद्गुरुदेव नारायण दत्त श्रीमाली जी
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