परिणाम स्वरूप शरीर के हर अंग को क्रियाशीलता के लिए एनर्जी प्राप्त होती है। साथ ही रक्त दूषित व बेकार पदार्थो को शरीर के बाहर निकालता है। ऐसा वह शरीर के किसी अंगों को उत्तेजित करके करता है। जिससे रक्त के इस महत्वपूर्ण कार्य में कोई रूकावट पैदा न हो। इसीलिए शरीर में रक्त की ज्यादा कमी होने पर बाहर से रक्त शरीर में पहुंचाना आवश्यक होता है।
रक्त आधान (ब्लड ट्रान्सफ्रयूजन) या रक्त स्थानान्तरण का इतिहास चार सदी पुराना है। शुरू-शुरू में रक्त स्थानान्तरण का परिणाम कभी सफल होता था तो कभी असफल। यानी कभी-कभी उस व्यक्ति की अचानक ही मृत्यु हो जाती थी, जिसे रक्त दिया जाता था। इस तरह से रक्त देने वाला रक्त लेने वाले के लिए मृत्युकारक सिद्ध होता था। इस तरह की आकस्मिक मृत्यु एक लम्बे अरसे तक चिकित्सा वैज्ञानिकों के लिए एक पहेली बनी रही। 1901 में आस्ट्रेलियाई चिकित्सक वैज्ञानिक कार्ल लैण्डस्टीनर ने मनुष्य के रक्त वर्गो की खोज की। उनकी इस खोज ने जीवन रक्षक उपाय के रूप में रक्त स्थानान्तरण को शत-प्रतिशत सफल बना दिया। इस बेहद कल्याणकारी खेज के लिए उन्हें 1930 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
कार्ल लैण्डस्टीनर ने प्रमाणित कर दिया कि एक समान दिखने वाला मनुष्यों का रक्त, हकीकत में एक समान नहीं होता। उन्होंने पाया कि शरीर के बाहर भी जब दो मनुष्यों का रक्त आपस में मिलाया गया तो कुछ प्रयोगों में तो तो रक्त आसानी से मिल गया, पर कुछ में रक्त कोशिकाएं आपस में चिपक गयीं। तभी से किसी मरीज को रक्त चढ़ाने के पहले उसके तथा उसे चढ़ायें जाने वाले के रक्त की जांच की जाने लगी। क्योंकि ग्रुप मिलने पर ही रक्त मरीज को दिया जा सकता है, नही जो रक्त आश्लेषण के कारण मरीज की मृत्यु हो जाती है।
रक्त चढ़ाते समय होने वाली अचानक मृत्यु के कार्ल लैण्डस्टीनर दो कारण बताते हैं। पहला तो यह कि चढ़ाये रक्त में मौजूद लाल रक्त कणिकाये, रक्त में पहले से मौजूद लाल रक्त कणिकाओ से चिपक जाती हैं। इस तरह इनका आकार काफी बड़ा हो जाता है और चिपकी हुई लाल रक्त कणिकायें महीन-महीन रक्त नलिकाओं में फंसकर रक्त का प्रवाह रोकर मृत्यु का कारण बनती हैं। दूसरा कारण यह कि कभी-कभी चिपकी हुई लाल रक्त कणिकाएं अलग भी हो जाती हैं। नतीजतन लाल रक्त कोशिकाओं की झिल्ली फट जाती है, जिससे उनमें मौजूद हीमोग्लोबिन लाल कण मुक्त होकर रक्त के प्रवाह में आ जाते हैं। इन मुक्त हीमोग्लोबिन कणों को गुर्दा शरीर से उत्सर्जित करना चाहते है। लेकिन ये मुक्त हीमोग्लोबिन के कण गुर्दे की बेहद महीन-महीन नलिकाओं में फंस जाते हैं, जिससे गुर्दा फेल हो जाता है और व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है।
लैण्डस्टीनर ने मनुष्य में तीन प्रकार के रक्त वर्गो या रक्त समूह की खोज की जो रक्त के स्थानान्तरण में एक-दूसरे के विरोधी होते हैं। डीकेस्टेलों और स्टीर्ली ने 1902 में चौथे रक्त वर्ग की खोज की। ये चारों रक्त वर्ग ए, बी, एबी और ओ के नाम से जाने जाते हैं।
मनुष्य जीवन में किया गया कोई भी दान अति पुण्यदायी माना गया है। परन्तु वर्तमान समय में जहां रक्त दान करने की बात हो, तो इसे मानवीय संवदेना और जीवन रक्षा कारणों से महादान की संज्ञा दी जा सकती है। वास्तव में रक्त दान करना मानवीय मूल्यों के आधार पर अत्यन्त पुण्यकारी है।
मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए रक्तदान करना संसार की सर्वश्रेष्ठ क्रिया है। किसी भी जरूरतमंद को रक्त दान करना महा पुण्यकारी माना जाता है और संसार में ऐसी ही श्रेष्ठतम क्रियायें मानवीय संवेदना को जीवित-जाग्रत बनाने में सहायक सिद्ध होती हैं। वास्तव में स्थूल रूप से मनुष्य ही मनुष्य के लिए सर्वप्रथम सहायक और रक्षाकारक है। इसलिये सभी को अपने मानवीय मूल्यों के कर्तव्य के निर्वाह हेतु आवश्यक होने पर रक्तदान अवश्य ही करना चाहिये, इन सुक्रियाओं से व्यक्ति सामाजिक, पारिवारिक व ईश्वर का प्रिय बनता है।
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