हड़बड़ी भाग-दौड़ और केवल तीर्थ का स्पर्श कर लौट जाना किसी भी रूप में धार्मिक यात्रा नहीं कही जा सकती है और इस तरह भाग-दौड़ से युक्त यात्रा में न ही हम उन दिव्य सर्व शक्तिमय देवताओ की चेतना को आत्मसात कर पाते हैं साथ ही जीवन में कुछ भी सफ़ुल स्थितियां निर्मित नहीं हो पाती हैं।
सामान्य-सामान्य रूप में भी किसी भी हिल स्टेशन अथवा पर्यटन स्थल पर परिवार सहित भ्रमण हेतु जाने पर वहां भी तीन-चार दिन उस पर्यटन स्थल का आनन्द लेते हैं। अतः जो साधक पूर्ण मनोभाव के साथ जीवन में परिवर्तन व सर्वश्रेष्ठमय स्थितियों की प्राप्ति हेतु गंभीर व चिंतनशील हैं, वे ही पंजीकरण करायें और सद्गुरु सानिधय में सप्त पुरी धामों को देवमय शक्ति युक्त सिद्धाश्रम तपोपुंज चेतना आत्मसात कर अपने जीवन को सिद्धाश्रम शक्तियों से चैतन्य बनायें । सांसारिक जीवन में अधिकांश-अधिकांश व्यक्ति जप, तप, उपवास, पूजन, साधना करने का मंतव्य यही है कि जीवन को सर्व सुख, आनन्द, भोग-योग, यशमय बनाया जा सके।
परन्तु अथक प्रयास, परिश्रम के पश्चात् भी जीवन में विषमताओं का बना रहना व्यक्ति के पुरुषार्थ के लिए चुनौती है। क्योंकि जीवन में सुस्थितियां दीन-हीन, जर्जर बने रहने से नहीं प्राप्त होती हैं। बल्कि साधक, शिष्य सुस्थितियों की प्राप्ति स्वयं के पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त करते हैं। एक साधक, शिष्य और सामान्य पुरुष में यही भिन्नता होती है, कि साधक, शिष्य अपने पुरुषार्थ अर्थात् दिव्य शक्तिमय तीर्थ स्थलों पर जप, तप, पूजन, हवन, साधना, दीक्षा द्वारा जीवन में परिवर्तन की समर्थतता से परिपूर्ण होता है। सामान्य रूप से केवल और केवल परम्पराओं, रीति -रिवाजों का पालन करने अथवा पर्यटक के भांति तीर्थ दर्शन, यात्रा करने से श्रेष्ठता की प्राप्ति नहीं होती है।
इस हेतु यह आवश्यक है कि साधक में श्रेष्ठता प्राप्ति का दृढ़ भाव-चिंतन हो। जो दृढ़ है, जो संकल्पित है, जिनमें जूझने की, संघर्ष करने की और विशिष्ट क्रियाओं को सम्पन्न करने का जज्बा है वे ही पौरूषमय श्रेष्ठ स्थितियों से युक्त होते हैं। आप चाहे जितनी परम्पराओं का पालन, रीति -रिवाजों का अनुसरण, चाहे कितने भी आंसू बहा लें, आप दिन-रात भूखे रह कर व्रत, उपवास भी कर लें, इन क्रियाओं से आप कृपा योग्य तो बन जायेंगे, परन्तु आप शक्तिमय नहीं बन पायेंगे। चेतनावान, ऊर्जामय, शक्ति सम्पन्न हेतु पुरुषार्थ करना ही पड़ता है। यह अकाट्य सत्य है, पुरुषार्थ से ही जीवन में सुखमय स्थितियां आती हैं।
और पुरुषार्थ तब ही संभव हो पाता है, जब आपमें दृढ़ता व संकल्पित भाव के साथ अपने लक्ष्य के प्रति एकाग्रचित्त हों। भौतिक व आध्यात्मिक पक्ष की पूर्णता बिना पुरुषार्थ के संभव नहीं है। भाग्य भी उसी का साथ देता है, जो पुरुषार्थी होते हैं। एक बार की घटना है- एक गांव में पंचायत लगी थी, वहीं थोड़ी दूरी पर एक संत ने अपना बसेरा किया हुआ था, जब पंचायत किसी निर्णय पर नहीं पहुंच सकी, तो गांव के एक वरिष्ठ व्यक्ति ने कहा कि क्यों न हम महात्मा जी के पास अपनी समस्या लेकर चलें। अतः सभी संत के पास पहुंचे, जब संत ने गांव के लोगों को देखा तो पूछा कि कैसे आना हुआ, तो लोगों ने कहा महात्मा जी पूरे गांव में एक ही कुआं है और कुएं का पानी हम नहीं पी सकते बदबू आ रही है। मन भी नहीं होता पानी पीने का।
संत ने पूछा हुआ क्या? पानी क्यों नहीं पी सकते? लोग बोले- तीन कुत्ते लड़ते-लड़ते उसमें गिर गये थे, बाहर नहीं निकल पाये और मर गये उसी में। अब जिसमें कुत्ते मर गए हों, उसका पानी कौन पिये ? संत ने कहा- एक काम करो उसमें गंगाजल डालो। तो कुएं में गंगाजल आठ-दस बाल्टी छोड़ दिया गया। फिर भी समस्या जस की तस। लोग फिर संत के पास पहुंचे अब संत ने कहा- भगवान कि पूजा कराओ। लोगों ने कहा ठीक है, भगवान की पूजा कराई। फिर भी समस्या वही की वही। अब संत ने कहा उसमें सुगंधित द्रव्य डालो, सुगंधित द्रव्य डाला गया, लेकिन नतीजा फिर वही ढ़ाक के तीन पात।
कुछ लोग फिर संत के पास गए और सारी बात बतायी, अबकी बार संत खुद चलकर आये। तब गांव वालों ने कहा— महाराज! वही हालत है, हमने सब करके देख लिया। गंगाजल भी डलवाया, पूजा भी करवायी, प्रसाद भी बांटा और उसमें सुगन्धित पुष्प और बहुत सी वस्तुएं डालीं, लेकिन महाराज! हालत वही की वही है। संत को आश्चर्य हुआ कि अभी भी इनका कार्य ठीक क्यों नहीं हो रहा। तब वे संत स्वयं कुएं में झांक कर देखें और बोलें तुमने सब तो किया, पर वे तीन कुत्ते जो मरे पड़े थे, उन्हें क्यों नहीं निकाला?
तब लोग बोले—–वे तो वहीं के वहीं पड़े हैं। संत बोले—-जब तक उन्हें नहीं निकालोगे, इन उपायों का कोई प्रभाव नहीं होगा। यही कहानी मनुष्य की भी है, इस शरीर रूपी अंतः करण के कुएं में काम, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, द्वेष, छल, कपट, झूठ आदि नाम के कुत्ते लड़ते-झगड़ते गिर गये हैं, इन्हीं की दुर्गन्ध से जीवन में विषम स्थितियों का निर्माण होता रहता है और व्यक्ति दुर्गन्धमय जीवन जीने के लिए विवश होता रहता है। आप पूजा, जप-तप, साधना, दीक्षा सम्पन्न तो करते हैं, लेकिन जब तक भीतर की गंदगी साफ नहीं करेंगे, अन्तःकरण को स्वच्छ करने का प्रयास नहीं करेंगे, तो फिर चेतना रूपी गंगाजल भी आपके भीतर जाकर दूषित हो जायेगी और फिर आप कहेंगे कि मेरी साधना सफल नहीं हुयी।
साधना तो सफल हुयी, दीक्षा की चेतना भी प्राप्त हुयी, परन्तु भीतर की गंदगी ने सब दूषित कर दिया। तीर्थ यात्रा दर्शन, पूजन, जप, तप, साधना, दीक्षा का यही तात्पर्य है कि आप मानसिक-वैचारिक और शारीरिक रूप से स्वयं को शुद्धतम स्वरूप देने के लिए दृढ़ हों, संकल्पमय बनें। आपने देखा होगा नवरात्रि में अनेक लोग घुटने के बल चल कर आद्या शक्ति के दर्शन करने जाते हैं, कोई-कोई नंगे पैर जाता है, आदि-आदि क्रियायें करते हैं लोग, जिससे उन्हें सुख-समृद्धि, सम्पन्नता की प्राप्ति हो सके। जरा आप सोचें क्या कोई मां ऐसा चाहती है कि उसका पुत्र भूखा, प्यासा रहे। संसार की कोई भी मां ऐसा नहीं चाहती कि उसका पुत्र भूखा-प्यासा रहे, तो वह आद्या शक्ति क्यों चाहेगी, कि उसका पुत्र अभाव ग्रस्त हो, लेकिन पुत्र पुरुषार्थ ही ना करना चाहता हो, कर्मशील ही ना बनें, श्रेष्ठतम क्रियाओं का अनुसरण ना करे, तो वह मां उसे कैसे सम्पन्नता प्रदान करें, यह सही है कि आपकी श्रद्धा, आपका विश्वास, आपका समर्पण, आपकी भक्ति युक्त क्रियायें उच्च-कोटि की हैं, वंदनीय-प्रशंसनीय हैं। लेकिन जब तक आपकी क्रियायें पुरुषार्थमय साधनात्मक युक्त नहीं होंगी। तब तक आप शक्ति से, ऊर्जा से युक्त नही होंगे, आपमें समर्थतता नहीं आयेगी, भीतर में स्वच्छता होने पर ही जीवन सुगम, सरल व श्रेष्ठताओं से कैसे युक्त हो सकेगा।
सबसे पहले तो यह विचार करें, कि तीर्थ धाम यात्रा के पीछे आपका भाव-चिंतन क्या है। इस यात्रा की आपके जीवन में क्या महत्ता है। फिर आप अपनी समस्याओं पर नजर डालें, कि आपके पास समय नहीं है, नौकरी, व्यापार के कारण समय नहीं निकाल पा रहें है अथवा आर्थिक समस्या है आदि-आदि। इसके बाद आप तुलना करें, कि यह दुर्लभ यात्रा जिसे आपको आत्मसात करने का अवसर मिल रहा है और ऐसे देवमय तपोपुंज स्थल पर साधनात्मक शक्तिपात युक्त दीक्षायें दिव्य महापुरुष के सानिध्य में प्राप्त हो रही हैं। क्या यह अवसर, यह सौभाग्य आपकी किसी पीढ़ी को मिला था, आपके मित्र, सगे-सम्बन्धी ऐसी किसी यात्रा के साक्षी हैं क्या? आपको अधिकांश यही मिलेगा कि ऐसा सुअवसर किसी जानने वाले सम्बन्धी को प्राप्त नहीं हुआ और उनके भी जीवन में ऐसी ही समस्यायें थीं, किसी के पास समय नहीं था, कोई आर्थिक तंगी से जूझ रहा था और आने वाली पीढि़यों के लिए भी यही समस्या रहेगी, यह कभी समाप्त होने वाला नहीं है।
लेकिन यह अवसर, यह संयोग और आपका अहोभाग्य बार-बार आपके दरवाजे पर दस्तक नहीं देगा। जीवन में नित्य आने वाली समस्यायें इस दिव्यतम अवसर के सामने बहुत ही बौनी हैं, छोटी हैं। आवश्यकता तो केवल इसकी गंभीरता को समझने की है। आप एक बार पूरे मनोभाव से, शांत चित्त से चिंतन तो करें, आप अनुभव कर पायेंगे कि यह यात्रा आपके जीवन को अमृतमय आनन्द से सरोबार कर सकेगी। अमृत प्राप्ति के लिए ही देव-दानवों में संग्राम होता है। आपके जीवन में व्याप्त अभाव-बाधा रूपी सभी दानव कभी नहीं चाहेंगे कि आपको अमृत की प्राप्ति हो। जिस दिन आप समर्थवान बन जायेंगे, दानव रूपी बाधाओं, अभावों, रोगों का शमन होना निश्चित है।
जो साधक चिंतनशील हैं, गंभीर और चेतनावान हैं। उन्होंने अपना सम्पूर्ण मानस इस यात्रा को सम्पन्न करने के लिए निर्मित किया है। लेकिन जिनमें गंभीरता की कमी है, जो जाग्रत नहीं हैं, वे अभी भी डांवाडोल हैं। निम्न बिन्दुओं पर चिंतन कर आप स्वयं विचार करें- क्यों आदि गुरु शंकराचार्य जी ने इन्हीं दिव्य स्थलो पर दिव्यतम ज्योतिर्लिंग की स्थापना की
इस महोत्सव में विशिष्ट क्रियाओं के साथ अद्वितीय विधिा से पूज्य सद्गुरुदेव दुर्लभ शक्तिपात दीक्षायें प्रदान करेंगे।
देवमय तपोपुंज स्थल पर गंगा सप्तमी, बगलामुखी जयन्ती, सीता नवमी, महावीर स्वामी ज्ञान सिद्धि दिवस, मोहनी एकादशी, नृसिंह- छिन्नमस्ता जयन्ती युक्त दिव्य चैतन्य दिवसों पर सर्वश्रेष्ठ मुहुर्त में पूर्ण शास्त्रीय विधान युक्त दुर्लभ साधना, दीक्षा की चेतना पूज्य सद्गुरुदेव प्रदान करेंगे।
उक्त सभी उच्चकोटि की क्रियायें केवल और केवल परम पूज्य सद्गुरुदेव कैलाश श्रीमाली जी के सानिधय में ही संभव है। क्योंकि अधिकांश साधना महोत्सवों, तीर्थ यात्राओं व अन्य विशिष्ट दिवसों पर पूज्य कैलाश गुरुदेव ही सद्गुरुदेव नारायण जी के साथ होते थे।
इसीलिये केवल कैलाश गुरुदेव ही विशिष्ट साधनात्मक-आधयात्मिक गूढ़ता युक्त चेतना प्रदान करतें हैं। धर्म नगरी हरिद्वार जिसे शास्त्रों और पुराणों में कुशावर्त, हरद्वार, कपिला और गंगाद्वार के नाम से जाना गया है। किन्तु हरिद्वार या हरद्वार कहने के पीछे यही भाव है कि इस पवित्र स्थान से विभिन्न शैव और वैष्णव तीर्थों की यात्रा प्रारम्भ होती है। शिव को हर और विष्णु को हरि कहा जाता है। इसी कारण से इस स्थान को शैव व वैष्णव तीर्थ यात्राओं का प्रवेश द्वार होने से इसे हरद्वार या हरिद्वार के नाम से सम्बोधित किया गया है। इस स्थान को परम ब्रह्म ईश्वर को प्राप्त करने का प्रवेश द्वार भी कहा जाता है।
समुद्र मंथन के समय अमृत की कुछ बूंदे हरिद्वार, उज्जैन, नासिक और प्रयाग में गिरी थी, इसी कारण हर तीन वर्ष में महाकुम्भ का आयोजन होता है। हरिद्वार में जहां अमृत की बूंदे गिरी थीं, वह स्थान हर की पौड़ी में ब्रह्मकुण्ड नाम से जाना जाता है। इसके साथ ही पौराणिक कथा है कि एक बार श्वेतकेतु नाम के राजा की घोर तपस्या से भगवान ब्रह्मा प्रसन्न हुए। उन्होंने राजा से वर मांगने को कहा। तब राजा श्वेतकुत ने वर मांगा कि ब्रह्मा, विष्णु और शिव के साथ इस स्थान पर सभी तीर्थो का वास हो। साथ ही यह स्थान ब्रह्मकुण्ड के नाम से प्रचलित हो। भगवान ब्रह्मा ने राजा श्वेतकेतु की मनोकामना पूरी होने का आशीर्वाद् दिया, तभी से हरि की पौड़ी में स्थित कुण्ड को ब्रह्मकुण्ड के नाम जाता है।
उत्तराखण्ड को देवभूमि भी कहते हैं, पौराणिक महत्व की दृष्टि से हरिद्वार ब्रह्मा, विष्णु और शिव की नगरी है, त्रिदेव से सम्बन्धित यहां अनेक देवस्थान हैं। शिव पुराण के अनुसार सती के वैराग्य में घूमते हुए सती देह के अंग हृदय और नाभि भी इस स्थान पर गिरे। इसलिए हरिद्वार में मायादेवी शक्तिपीठ भी है। भगवदपाद् शंकराचार्य ने हिन्दू धर्म के पुर्नजागरण की शुरुआत भी इसी स्थान से की।
यह स्थान सप्त मोक्षदायिनी पुरियों में श्रेष्ठतम है। माना जाता है कि हरिद्वार में साढ़े तीन करोड़ तीर्थो का वास है। हरिद्वार में सम्पूर्ण विश्व के श्रद्धालु लाखों की संख्या में पहुंचकर अपनी श्रद्धा, आस्था व्यक्त करते हैं। हरिद्वार की पवित्रता और प्रवाह जीवन के प्रति नई ऊर्जा और उत्साह का संचार करता है, साथ ही श्रद्धालु इस भूमि पर मानसिक रूप से सम्बल और विश्वास से आपूरित होते हैं। हिन्दू धर्म में पावन पुनीत हरिद्वार आध्यात्मिक आकर्षण का प्रमुख स्थान भी माना जाता है। सभी देवमय यात्रायें और आध्यात्मिक भाव-भूमि की चेतना आत्मसात करने का यह प्रारम्भिक पड़ाव है।
सप्तपुरी मोक्षदायिनी भूमि हरिद्वार में पूज्य सद्गुरु के दिव्य आशीवर्चन् से तीर्थमय आध्यात्मिक भाव-भूमि की प्राप्ति के पश्चात् देव शक्तिमय तीर्थ की यात्रा प्रारम्भ करना पूर्णता प्राप्ति के भावों का संचार है। हरि के द्वार से ही पूज्य सद्गुरुदेव की सानिध्यता निश्चित रूप से इस दिव्यतम यात्रा को पूर्णरूपेण सुखद व सफल बनाने की क्रिया के साथ ही सप्तपुरी तीर्थ की ऊर्जा से आप्लावित होना है।
साधक, शिष्य सद्गुरु के सानिध्य में ब्रह्म, विष्णु, शिव अमृतमय इस भूमि को स्पर्श करते ही देवपुंजो की चेतनाओं से सम्पर्क स्थापित करने की ओर अग्रसर हो सकेंगे। ऐसी दिव्यतम यात्रा में महापुरुष रूपी व्यक्तित्व का सानिध्य इसी हेतु आवश्यक होता है कि सामान्य शिष्य-साधक उस देवमय स्थान का कोटि-कोटि लाभ प्राप्त कर सकें। इसी हेतु पूज्य सद्गुरुदेव हरिद्वार में ही शिष्यों-साधकों को आर्शीवचन् से आपूरित करेंगे, जिससे सप्तपुरी पूर्णता प्रदायक भूमि से ही साधक मानसिक- शारीरिक सम्बलता ग्रहण करते हुये अपनी इच्छा, भावना व मनोकामना की पूर्ति हेतु दृढ़, चैतन्य व जाग्रत बने रहें।
पूर्ण प्राकृतिक व चैतन्य वातावरण में सिद्धाश्रममय हिमालय के पर्वतीय क्षेत्र की यह यात्रा जीवन की मूलभूत पूंजी होगी, जिससे सम्पूर्ण जीवन जाज्वल्यमान बन सकेगा। क्योंकि यह कोई सामान्य यात्रा अथवा भ्रमण की क्रिया नहीं है। वास्तविक रूप से गंगोत्री-बद्रीनाथ धाम यात्रा पूर्णता प्राप्ति का भाव है। इसीलिये वे ही साधक इस यात्रा के भागीदार बन सकेंगे, जिनमें जीवट शक्ति का संचार होगा, जो देवमय जीवन प्राप्ति की अभिलाषा के साथ ही सद्गुरु नारायण की तपस्यांश चेतना शक्ति को अपने रोम-रोम में स्थापित करने का भाव रखते हैं और उनसे एकात्मकता स्थापित करना चाहते हैं।
सप्तपुरी-चार धाम की ओजस्वी शक्ति से ओत-प्रोत शिव-गौरी और नारायण लक्ष्मी शक्तिमय भूमि गंगोत्री- बद्रीनाथ धाम में सद्गुरुदेव निखिलेश्वरानन्द व माँ भगवती के चैतन्य आशीर्वाद की प्राप्ति से जीवन के सभी पक्षों को सर्व सौभाग्यता, शांति, संतुष्टि और आनन्द भाव युक्त तारणमय चेतना की प्राप्ति हो सकेगी।
क्योंकि तीर्थ का तात्पर्य ही तारना है, पापक्षयनी गंगा उद्गम स्थल गंगोत्री धाम जीवन में भौतिक, दैविक और आध्यात्मिक पूर्णता प्रदान करती है। देवमय गंगा मन्दिर, सूर्य, विष्णु व ब्रह्म कुण्ड और पांडव गुफा तथा भागीरथी शिला त्रिलोक-तारिणी पतितपावनी है।
साथ ही देवभूमि बद्रीनाथ धाम में अलकनन्दा, तप्त कुण्ड, ब्रह्म कपाल, सरस्वती उद्गम स्थल, त्रिवेणी संगम केशव प्रयाग, गणेश गुफा स्वरूप प्राचीन चेतनामय देव स्थान पर सर्व दुःख भंजन त्रिपुरान्तकारी तंत्र दोष निवारण पराम्बा लक्ष्मी तत्व प्राप्ति साधना सम्पन्न करना जीवन का अहोभाग्य है।
त्रिवेणी संगम युक्त देव नदियां भागीरथी गंगा, अलकनन्दा व सरस्वती के तट पर वैशाख माह के चैतन्य दिवसों में पापक्षयिनी गंगोत्री धाम व भू-बैकुण्ठ रूप में विद्यमान भगवान बद्री विशाल धाम में जप-तप, दर्शन, पूजन, स्नान, साधना, हवन, अंकन, अभिषेक, तर्पण, पिण्ड दान, मंत्र जाप, दीक्षा स्वरूप अलौकिक चेतना से अपने रोम-प्रतिरोम में देवत्व सर्वशक्तिमय स्थितियां सद्गुरुदेव के सानिध्य में अक्षुण्ण रूप से पूर्ण चैतन्य भाव में आत्मसात कर सकेंगे। सिद्धाश्रम संस्पर्शित चेतनामय इन साधनात्मक क्रियाओं से पूर्ण शुद्ध, निर्मल, पारसमय जीवन समर्थ, चैतन्य, समृद्ध, शिव-गौरी व नारायण लक्ष्मीमय शक्तियों से युक्त बन सकेगा और जीवन की सभी अभिलाषाओं को पूर्ण करते हुये योग-भोगमय जीवन की प्राप्ति हो सकेगी।
कैलाश सिद्धाश्रम साधक परिवार आप सभी साधक, शिष्यों का हृदय भाव से स्वागत-अभिनंदन करता है। इस दिव्य यात्रा में परिवार सहित भाग लेकर कुल-वंशज व आने वाले वंश को सफल, सम्पन्न, समृद्धि योग-भोगमय जीवन प्रदान करने में सहायक बनें तथा इस दिव्यतम के माध्यम से अपने जीवन को सफल श्रेष्ठतम अलौकिक शक्तियों से युक्त कर सकेंगे। जिससे मनुष्य जीवन का मूल उद्देश्य सिद्ध हो सकेगा।
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