जिसको हम जन्म कहते हैं, वह मां से दूर हटने की प्रक्रिया है और फिर जिसको हम जीवन कहते हैं, वह रोज-रोज दूर हटते जाने का नाम है। बच्चे का मां के स्तनों से सम्बन्ध जुड़ा रहता है। फिर वह सम्बन्ध भी टूट जायेगा। फिर भी वह मां के आस-पास घूमता रहेगा। लेकिन जल्द वह सम्बन्ध भी टूट जायेगा। फिर भी मां से एक नाता जुड़ा रहेगा क्योंकि वही स्त्री सर्वाधिक महत्वपूर्ण होगी। फिर वह नाता भी टूट जायेगा, वह किसी प्रेम में पड़ेगा, कोई और स्त्री महत्वपूर्ण हो जायेगी। तब मां की तरफ पूरी पीठ हो जायेगी।
ऐसे वह दूर जा रहा है और जितना दूर जायेगा उतना अहंकार मजबूत होगा। जितना मां के पास था, उतना निरअहंकार भाव था। जब मां के गर्भ में था, एक था, तब कोई अहंकार न था। पश्चिम के मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मां से दूर होने में ही व्यक्तित्व का निर्माण है। व्यक्तित्व का अर्थ है, अहंकार। व्यक्तित्व का अर्थ है कि मैं अलग हूं, पृथक हूं, भिन्न हूं, विशिष्ट हूं, व्यक्ति हूं। यह सब चारों तरफ दिखाई पड़ रहा है, इसके साथ मैं एक नहीं हूं, अलग हूं। अलग होने की भावना अस्मिता है। कटने पर भी डाल थोड़ी देर हरी रहेगी। वह थोड़ी देर चाहे सत्तर साल क्यों न हो! वह थोड़ी ही देर है। सत्तर वर्ष का क्या अर्थ? इस विराट के फैलाव में सत्तर वर्ष क्षण से भी तो ज्यादा नहीं! मनुष्य की दशा कैसी है, यह उसे ही नहीं पता, वह सोचता है कि वह बहुत ही श्रेष्ठ है, परन्तु उसे अपनी न्यूनतायें नहीं दिखती, ईश्वर के समक्ष रोकर, गिड़-गिड़ाकर उनके कृपा का पात्र तो बनना चाहता है। परन्तु स्वयं कर्म से भागता रहता है। सांसारिक मनुष्य की भावना रहती है कि बिना कर्म किये ही केवल भगवान से प्रार्थना कर या मूर्ति पूजा कर सब कुछ प्राप्त हो जाये, मनुष्य हर समय फ्री में प्राप्त हो जाये, ऐसा चिंतन रखता है, भले ही जेब में 500 रूपये हैं, परन्तु राह चलते हुये 1 रूपये का सिक्का भी पड़ा मिलता है तो तुरन्त ही उठाकर जेब में रख लेता है क्योंकि वह सिक्का उसे फ्री में मिला है। यह विचार नहीं करता कि मेरे जेब में 500 रूपये हैं अर्थात् वह सब कुछ बिना कर्म और मेहनत के प्राप्त करना चाहता है। ईश्वर होते तो परम दयालु हैं, लेकिन उनकी दयालुता से तुम कर्महीन बन जाओ, यह तुम्हारे लिए ही अहितकर है।
मनुष्य को अपनी दशा का ज्ञान नहीं कि उसकी जड़े टूटी हुई हैं, उसे यह एहसास ही नहीं कि परमात्मा से वह विलग हो गया है, उस परम स्रोत से उसकी सरिता अलग हो गयी है। जल्दी ही सब सूख जायेगा, लेकिन अभी सूखने में देर है और जब तक वह पूरा ही न सूख जाये, तब तक उसे समझाने का कोई उपाय नहीं है। वृक्ष कट गया है, लेकिन अभी हरा है। उसे पता भी नहीं कि जड़ों से सम्बन्ध टूट गया है। उसे यह मालूम नहीं कि अब जमीन से कोई नाता न रहा और उसे समझाने का कोई उपाय भी तो नहीं और जब वह समझने की स्थिति में आ जायेगा, जब उसकी मनोदशा ऐसी हो जायेगी कि समझाया जाये तब तक वह पूरी तरह सूख जायेगा, फिर समझाने का कोई अर्थ नहीं और जब पूरी तरह सूख ही जाये तो कुछ करने को बचता भी नहीं।
अधिकांश लोग मरने के समय समझ पाते हैं कि जीवन व्यर्थ गया। पहले उन्हें समझाने की कितनी ही कोशिश करो, उनकी समझ में ही नहीं आता कि मौत आने वाली है। उसे कितना भी कहो कि समय बीत जायेगा, तू क्रियाशील रहेगा तो कुछ हो सकेगा, तेरी देह जब जीर्ण-शीर्ण हो जायेगी, जब तू कुछ करने योग्य नहीं बचेगा तो समझ कर भी क्या होगा। मनुष्य यह मानता ही नहीं कि वह अंधकार हो सकता है, वह वृद्ध, प्रौढ़ हो सकता है। अमृत को कोई समझायें भी तो कैसे कि तू भी जहर हो सकता है। तेरा समय बीत जायेगा और फिर समझने का कोई लाभ ना हो सकेगा। ईश्वर से पृथक हो गये हैं, इसका ज्ञान हो भी तो कैसे? टूट गई डाल वृक्ष से, कुछ घड़ी हरी रहेगी, कुछ घड़ी फूल खिले रहेंगे। यह भी हो सकता है कि जो कली खिल रही थी वह अभी और खिलती चली जाये। क्योंकि अभी भी रस दौड़ रहा है। अभी भी वृक्ष भीतर हरा है। स्त्रोत बन्द हुआ, लेकिन पुराना जितना रस दौड़ गया था वह तो अपनी यात्रा पूरी करेगा। पुराना मोमेन्टम कायम है। अभी घड़ी कुछ देर टिक-टिक करेगी, हृदय धड़केगा। लेकिन जो जानते हैं वे कहते हैं, जन्म का दिन ही मृत्यु का दिन है। उसी दिन मौत की स्थिति का निर्माण हो गया, तुम्हें खबर सत्तर साल बाद लगी। कुल्हाड़ी से काट दिया वृक्ष को, उस वृक्ष को पता चलने में घड़ी दो घड़ी, दिन दो दिन लग जायेंगे। लेकिन तब तक उसे समझाने का भी उपाय नहीं।
अगर मैं तुमसे अभी कहूं कि तुम मर गये हो, तुम मेरी मानोगे नहीं, तुम हंसोगे। तुम कहोगे कि अभी हम भलीभांति जिन्दा है, यह क्या पागलपन की बात है! लेकिन तुम मर गये उसी दिन, जिस दिन जन्म हुआ। उसी दिन कट गये। उसी दिन अस्तित्व से तुम्हारा नाता टूट गया। धर्म की सारी खोज इस अनुभव से शुरु होती है कि मैं कट गया हूं, जुड़ कैसे जाऊं? जड़े उखड़ गई है, फिर से मेरी जड़े कैसे फैल जायें? अस्तित्व से अलग हो गया हूं, फिर से एक कैसे हो जाऊं? इस एकता की खोज ही धर्म है, धर्म यानि धारण। और भिन्नता की खोज संसार है। कैसे और अलग हो जाऊं, कैसे और भिन्न हो जाऊं, इसकी तलाश सांसारिक है। संसार में हम करते ही यही हैं। अगर तुम्हारे पास धन कम है, तो तुम बहुत ज्यादा अलग नहीं हो सकते। तुम्हारे पास धन ज्यादा है, तो तुम ज्यादा अलग हो सकते हो। जिसके पास बहुत धन है, उसे समाज में जाने की जरूरत भी नहीं रह जाती। उसे लोगों के सामने झुकने का सवाल ही नहीं रह जाता।
एक व्यक्ति के घर में ही हीरे की अंगूठी खो गई, बहुत तलाश किया नहीं मिली, तो यह बात अपने मित्र को बताई, मित्र घर पर आया, उसने देखा कि घर में बहुत सारे चूंहे हैं, धीरे-धीरे सभी चूहों को एक घेरे में इकठ्ठा किया, एक चूहा उन सभी चूहों से अलग बैठा रहा, घर का मालिक यह सब देख रहा था, मित्र ने कहा कि आपकी हीरे की अंगूठी इस अलग बैठे चूहे के पेट में है, मालिक ने मित्र से पूछा कि तुम्हें कैसे मालूम तो मित्र ने जबाव दिया कि जो धनी हो जाता है, वह अपनों से, समाज से कटा-कटा रहता है क्योंकि उसे धन का अहम् होता है और उसके लिए धन के अलावा परिवार या समाज से कोई सरोकार नहीं रहता। धनी सम्राट एक शिखर पर रहने लगता है, जहां कोई भी पहुंच नहीं सकता, जहां वह अकेला है। वह भिखमंगा अकेला नहीं हो सकता। उसको भीख मांगने दूसरों के पास जाना ही पड़ेगा। उसे निर्भर रहना पड़ेगा दूसरों पर। उसका अहंकार बहुत मजबूत नहीं हो सकता। एक धनी या सम्राट अहंकार से भर सकता है कि मैं बिलकुल पृथक हूं और पूर्ण स्वतंत्र हूं और किसी पर मेरी कोई परतन्त्रता, कोई निर्भरता नहीं है।
बड़े पदों की लोग तलाश करते हैं। क्योंकि बड़ा पद शिखर की भांति है। जैसे पिरामिड होता है- नीचे बहुत चौड़ा और ऊपर संकरा होता चला जाता है। आखिर में राष्ट्रपति, सम्राट, प्रधानमंत्री बचते हैं। नीचे जनता का बड़ा विस्तार है। उस भीड़ में अगर तुम खड़े हो, तुम अकेले नहीं हो! इसलिए हरेक कोशिश कर रहा है कि पिरामिड के शिखर पर कैसे पहुंच जाऊं। जहां वह बिलकुल अकेला होगा, सबके कंधो पर होगा और उसके कंधों पर कोई नहीं। पद की खोज अगर बहुत गहरे में देखों, तो अहंकार की खोज कर रहा है, कैसे मैं अकेला हो जाऊं, कैसे मैं किसी पर निर्भर न रहूं, मुझ पर सब निर्भर हो। मैं किसी पर निर्भर न रहूं, तभी तो मैं कह सकूंगा, मैं हूं अप्रितम, अद्वितीय और सबसे ऊपर और मेरे ऊपर कोई और नहीं। धर्म की तलाश बिलकुल विपरीत है। धर्म की तलाश, अंहकार विसर्जन की तलाश है। कैसे मुझे पता चले कि मैं हूं ही नहीं। कैसे मैं मिटूं, जैसे बूंद सागर में खो जाती है, जैसे बर्फ पिघलता है और पानी होकर सरिता के साथ एक हो जाता है। ऐसे कैसे मेरा अहंकार पिघले और एक हो जाये! अहंकार बर्फ की तरह है, जमा हुआ। जमा है, इसलिए सीमा मालूम होती है। पिघल जाये, सीमा खो जाती है और अगर वाष्पीभूत हो जाये तो आकाश में विस्तार हो जाता है साथ ही सभी सीमायें खो जाती हैं।
भगवान बुद्ध के जीवन में भी ऐसा हुआ, एक समय आया जब वे सीमाहीन हो गए और भगवान बुद्ध के अनुयायी उस वृक्ष की आज भी पूजा, अर्चना करते हैं, जहां उन्हें बुधित्व की प्राप्ति हुई, जिस वृक्ष के नीचे वे सीमाहीन हुए उसे बोध वृक्ष कहा गया। गौतम बुद्ध जब जल, अन्न का त्याग कर वृक्ष के नीचे तप कर रहे थे, असाध्य तप कर रहे थे, जिससे उनका शरीर दुर्बल होता जा रहा था फिर भी वे ध्यान में रत रहे। भूख-प्यास से उनका शरीर पीला पड़ता जा रहा था, उनकी ऐसी स्थिति देख एक दिन सुजाता नाम की स्त्री उनके लिए खीर लेकर आई और गौतम बुद्ध को खीर ग्रहण करने लिए कहा, उस स्त्री ने बुद्ध से विनती की आप खीर खा लें, आप दुर्बल हो रहें, ऐसे तो आप परम लोक चले जायेंगे, पर ज्ञान की प्राप्ति ना हो पायेगी। लेकिन बुद्ध ध्यानरत ही रहे, उसी समय एक बंजारा गीत गाता हुआ वहीं से निकल रहा था। गीत का आशय था- वीणा के तार इतना न कसो कि टूट जाये और इतना ढ़ीला भी न छोड़ो कि स्वर ही न बजे। यह स्वर, यह गीत बुद्ध को चुभ गया।
एक गीत ने सिद्धार्थ गौतम की विचारधारा बदल डाली कि कष्ट साध्य जप, तप से ईश्वर की, ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती, और उन्होंने फिर वह खीर खाई और कहा कि संसार में रहते हुये मध्यम मार्ग से तप करना ही श्रेष्ठ है, नहीं तो जीवन का तार टूट जायेगा और अगर तार टूट गया, तो वीणा रूपी शरीर का कोई अस्तित्व ही ना बचेगा, वीणा का अस्तित्व तब तक है जब तक तार बना हुआ है।
जीवन का सत्य भी यही है कि आपके वीणा का तार सही रूप में कसा हो, ना ज्यादा, ना कम, कम होने पर भी हानि क्योंकि तब कोई ध्वनि ना होगी, कोई स्वर ना आयेगा और अगर ज्यादा कस दिये तो तार टूटने का भय है, इसलिए मध्यम मार्ग को बुद्ध ने सर्वश्रेष्ठ कहा और सांसारिक जीवन में मध्मय मार्ग को सरलता से अपनाया जा सकता है। कोई बड़ी बात नही है इसमें। लेकिन होता क्या है मनुष्य कोल्हू का बैल बना गोल-गोल घूम रहा है, वह वीणा-तार की सुनेगा तब जब गोल-गोल घूमना बंद करे, पर घूमता जा रहा है।
कोल्हू के बैल की आंखो पर पट्टी बांध देते हैं, ताकि उसे दिखाई न पड़े। उसे सिर्फ सामने दिखाई पड़ता है, आजू-बाजू दिखाई पड़े तो उसे पता चल जाये कि मैं गोल-गोल घूम रहा हूं, कहीं पहुंचूगां नहीं। व्यर्थ घूम रहा हूं। आदमी की आंखों पर भी पट्टी है। तुम भी आजू-बाजू नहीं देख पाते। तुम भी सिर्फ सामने देखते हो। न तुम पीछे लौट कर देखते हो, न तुम आजू-बाजू देखते हो। वासना सदा आगे देखती है। वासना सदा देखती है- कल। कल क्या मिलेगा? आंखें वहीं लगी रहती है, कल पर। आगे की तरफ तुम जा रहे हो और तुम कभी नहीं सोचते कि कल भी तुम वही, देख रहे थे। परसों भी तुम वही देख रहे थे। जब से तुम पैदा हुये, जब से तुमने सोचना शुरू किया, तुम इसी रास्ते पर घूम रहे हो। वही काम वासना, वही क्रोध, वही लोभ, रोज-रोज वही है। नया कुछ भी नही है, तुम पहले भी उसी वासना में उतरे हो बहुत बार, अब भी उसमें उतरने की आकांक्षा कर रहे हो। बहुत बार क्रोध किया, वही क्रोध फिर करने की कोशिश कर रहे हो। बहुत लोभ किया, वही लोभ फिर दुहरा रहे हो। आदमी एक पुनरुक्ति है, कोल्हू का बैल है। आगे दिखाई पड़ता है, इसलिए ख्याल में नहीं आता कि वर्तुलाकार घूम रहा हूं। इस वर्तुलाकार घूमने से मंजिल आयेगी नहीं, मौत ही आयेगी। बैल थकेगा, गिरेगा, मरेगा। शायद मरते क्षण में आस-पास देखे, क्योंकि तब आगे देखने को कुछ भी न बचेगा। कल तो है नहीं। जब आदमी मरता है तो कल तो बचता नहीं। कल समाप्त हुआ। आज ही रह जाता है। शायद उस दिन आस-पास देखें, शायद उस दिन पीछे लौट कर देखे और तब पाये कि मैं एक ही गोल वर्तुल में सत्तर वर्ष घूमता रहा।
यह थोड़ा समझने जैसा है कि जीवन की सारी यात्रायें वर्तुलाकार है। चांद वर्तुल में घूम रहा है, पृथ्वी वर्तुल में घूम रही है। तुम्हारा जीवन भी वर्तुल में ही घूम रहा है, क्योंकि यहां सारी यात्रायें वर्तुलाकार हैं। तुम्हारी यात्रा अलग नहीं हो सकती। इस कटी हुई शाखा को समझाना मुश्किल है कि तू मर चुकी है, तेरी जड़े टूट गई हैं, कि तेरा आगे अब कोई जीवन नहीं है। क्योंकि वह शाखा कहेगी, अभी मैं हरी हूं, अभी मैं जवान हूं। अभी फूल खिल रहें हैं, कलियां अभी खिलती जा रही हैं, अभी पत्ते मुरझाये भी नहीं है, पागलपन की बात है। तर्क डाल का कहेगा, नहीं मैं जिन्दा हूं। बुद्धि भी जब समझेगी, तब समय जा चुका होगा। इसलिए बुद्धिमान वह है, जो समय के पहले समझ जाये। तुम उस डाल की भांति व्यवहार मत करना और जब कोई संत तुमसे कहे कि तुम टूट गये हो, तो उसकी बात पर सोचना। और जब कोई बुद्ध तुमसे कहे कि तुम मर ही चुके हो, तब जल्दी मत करना इन्कार करने की, क्योंकि तुम्हारी सांस चल रही है। सांस चलने से जीवन का कोई अनिवार्य सम्बन्ध नहीं है। सांस चलती रह सकती है। मैं एक स्त्री को देखने गया, वह नौ महीने से बेहोश है। सांस चल रही है, कोमा में पड़ी है और डॅाक्टरो ने मुझे कहा कि कोई तीन साल तक यह कोमा में रह सकती है। इंजेक्शन दिए जा रहे हैं, ऑक्सीजन दी जा रही है, सांस चल रही है, हृदय धड़क रहा है, भीतर रक्त प्रवाह हो रहा है। शरीर सब काम कर रहा है, लेकिन वह बेहोश पड़ी है। वह कभी होश में आयेगी नहीं।
तुम्हारी सांस चल रही है, हृदय धड़क रहा है, खून बन रहा है, तुम भी तो कहीं बेहोश नही हो? वह स्त्री तो साफ मालूम पड़ती है कि बेहोश पड़ी है। लेकिन क्या उस स्त्री को पता होगा कि वह बेहोश है? अगर वह एक सपना देख रही होगी तो हो सकता है सपने में वह घर बना रही हो, विवाह कर रही हो, प्रेम कर रही हो, गृहस्थी सजा रही हो और उसे कभी भी पता नहीं चलेगा कि सपना है यह, क्योंकि तीन साल तक उसका सपना चलता रहेगा। तुम्हें पता चल जाता है क्योंकि सुबह तुम जागोगे, रात का सपना टूट जायेगा। लेकिन क्या कभी तुमने सोचा कि सपने में तुम्हें सपना, सपने जैसा मालूम नहीं पड़ता? सपने में तो लगता है यही सत्य है। सुबह जाग कर पता चलता है कि सपना था। लेकिन रात में जब तुम फिर सो जाओगे, तो जिसे तुमने दिन में जागरण समझा था वह भी सपना हो जाता है। सपने की तो सुबह थोड़ी-बहुत याद भी रह जाती है, दिन की तो रात में उतनी भी याद नहीं रह जाती। सब भूल जाते हैं, कि तुम कौन थे। सुना है मैंने, एक सम्राट अपने बेटे के पास बैठा था, जो मरणशय्या पर था। उसका एक ही बेटा था। वही आंखों का तारा था। उस पर ही सब निर्भर था, बड़ा साम्राज्य था। सम्राट बड़ा था, बुढ़ापे में यह बेटा पैदा हुआ, वह भी मरण-शय्या पर था। चिकित्सकों ने कहा, बच न सकेगा। इस जटिल बीमारी का कोई इलाज नहीं है, मृत्यु निश्चित थी। तो सम्राट जग रहा है, बैठा है। कभी भी किसी भी क्षण बेटा मर सकता है। तीन रात जागता रहा, चौथी रात सम्राट को झपकी लग गई। थका मांदा—-झपकी में उसने देखा कि वह और भी बड़ा सम्राट है। सारी पृथ्वी पर उसका राज्य है। चक्रवर्ती है, सभी उसके अन्तर्गत है और उसके बारह जवान बेटे हैं। सुन्दर स्वस्थ, प्रतिभाशाली, एक से एक बेजोड़, एक से एक बढ़ कर। वह बड़ा प्रसन्न था, वह बड़ा आनंदित था। स्वर्ण का महल है, सभी कुछ है।
दुख की कोई खबर नहीं। जरा सा कांटा नहीं है, उसके जीवन-रास्ते पर। तभी बेटा, जो सामने सोया था, मर गया। पत्नी छाती पीट कर रोई, चीखी। सम्राट की आंख खुली। सम्राट जोर से खिल-खिला कर हंसने लगा। पत्नी समझी कि शायद विक्षिप्तता आ गई है बेटे की मौत देख कर। उसने कहा- यह तुम क्या कर रहे हो? सम्राट ने कहा, मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। मैं इस बेटे के लिए रोऊं या उन बारह बेटों के लिए, जिन्हें मैं अभी-अभी सपने में देख रहा था और इस राज्य के लिए रोऊं जिसका मालिक मर गया या उस राज्य के लिए, जो बड़ा विराट था? सारी पृथ्वी उस राज्य के अन्तर्गत थी। इस मिट्टी के पत्थर के महल के लिए सोचूं या स्वर्ण के महल के लिए जिसे मैं अभी-अभी छोड़ कर आ रहा हूं? और मैं बड़े सन्देह में पड़ गया हूं कि क्या सच है! इसलिए हंसता हूं। पागल नहीं हुआ हूं। सम्राट ने कहा, अगर मैं ठीक समझूं तो पहली दफा मेरा पागलपन टूटा है, मैं होश में आ गया हूं। न यह संसार सच है, न वह संसार सच है। दोनों ही सपने मालूम पड़ते हैं। एक दिन का सपना है, एक रात का सपना है। इसलिए हिन्दू कहते हैं, यह जगत माया है, स्वप्न से ज्यादा नहीं। जागती आंख का सपना है और जब तक सोये हुए हो, तुम सपनो के अतिरिक्त कुछ देख भी न सकोगे। चाहे आंख खुली हो और चाहे आंख बन्द हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम भीतर बेहोश हो। तुम्हें इतना भी तो होश नहीं कि मैं कौन हूं। तुम्हारे होश का क्या अर्थ हो सकता है? तुम्हें इतना भी तो होश नहीं है कि किस गहरे स्रोत से मेरा जीवन आता है। तुम भीतर कभी गये ही नहीं हो। तुम्हारा अपने से कोई परिचय नहीं। तुम कैसे कहते हो कि तुम होश में हो?
बुद्ध, महावीर, कृष्ण और क्राइस्ट के होश एक ही अर्थ कहते हैं, जिसे आत्म ज्ञान हुआ है। तुम्हें रास्ते पर एक आदमी मिल जाये और तुम उससे पूछो कि तू कौन है? और वह कहे, क्षमा करें मुझे कुछ पता नहीं। तुम उससे पूछो कि कहां से आ रहा है और वह कहे माफ करें, मुझे कुछ पता नहीं कि मैं कहां जा रहा हूं, तो क्या समझोगे तुम? यह आदमी या तो बेहोश है, या नशे में है या पागल है। लेकिन तुम्हारी भी जीवन के रास्ते पर इससे भिन्न तो कोई दशा नहीं है। और इसी बेहोशी के कारण तुम संसार में रमे हो, दिन-रात हाय राम-हाय राम लगा रखा है, आज ये मिल जाये, कल वो मिल जाये, संसार में पाना चाहते हो, संसार को समेटना चाहते हो, पर संसार में पाने जैसी कोई वस्तु है ही नहीं। संसार तो मात्र दिखावा है, एक छलावा है, जिसमें ना जाने कब से छले जा रहे हों और तुम्हें पता भी नहीं कि इस संसार ने कई बार तुम्हें छला है। यह कोई पहली बार नहीं है कि तुमने जन्म लिया है। एक राजा सैर पर जब महल से निकला, तो द्वार पर मुस्कुराते हुए एक दरबान पर नजर पड़ी। जब सैर करके लौटा, तब भी दरबान मुस्कुरा रहा था। बादशाह सोचने लगा मैं राजा होते हुये भी इतना नहीं मुस्कुराता, राजा ने मंत्री से कहा कि ऐसा उपाय करो कि महल के सभी कर्मचारी हमेशा मुस्कुरायें।
मंत्री बोला- बड़ा मुश्किल है, क्योंकि हम मुस्कुराना नहीं, दुखी करना जानते हैं, तनख्वाह कम कर सकते हैं, डांट सकते हैं, नौकरी से निकाल सकते हैं, पर दुखी व्यक्ति को खुश नहीं कर सकते। राजा बोला- यदि दुखी कर सकते हो, तो उस दरबान को दुखी करके दिखाओ। मंत्री बोला- ठीक है। मंत्री ने राजा से कहा- आप घोषणा कर दीजिए कि इस दरबान को उपहार दिया जाएगा। दरबान को सभा में बुलाया, दरबान को कपडे़ से ढ़की एक परात राजा ने उपहार में दी। मंत्री बोला यह उपहार कल सुबह खोलना। रात भर उपहार तुम्हारे घर के बाहर आठ पहरेदारों की निगरानी में रहेगा। रात भर वह दरबान बिना सोये, सुबह होने के इंतजार में बैठा रहा, सुबह होने पर दरबान ने तोहफा खोला, तो उसमें सोने की अशर्फियां थी, दरबान ने खुशी से अशर्फियां गिनी, तो निन्यानबे थी, बार-बार गिनने पर भी निन्यानबे ही निकली। दरबान सोचने लगा बादशाह ने तो सौ ही दी होंगी, शायद किसी ने एक अशर्फी निकाल ली, हो सकता है रात के पहरेदारों में से किसी ने चुरा ली हो। अब उसे नियान्नबे अशर्फियां मिलने की खुशी नहीं, बल्कि एक अशर्फी के कम होने का दुःख सताने लगा।
दरबान सुबह जब पहरेदारी करने महल आया, तब उसका चेहरा उदास था, चेहरे की हंसी उड़ चुकी थी, अब वो निन्यानबे अशर्फी का मालिक होते हुये भी दुखी हो चुका था। संसारी मनुष्य भी ऐसा ही है, उसके पास जो नहीं उसके लिए दुखी है, बल्कि जो है उससे गुजारा हो सकता है, बेहतर ढंग से और जिसके लिए वह दुःखी है, वह मिल भी जाये, तो कल किसी और वस्तु के लिए दुःखी हो जायेगा। तृष्णा बढ़ती ही रहती हैं, मनुष्य की। अधिक पाकर भी थोड़ा ना होने का मलाल बना है उसके पास। जीवन में जितना मिला है, यदि उसकी खुशी मनाओं तो जीवन सुन्दर बन जायेगा, जितना अधिक जीवन में अंसतोष होगा, उतना ही दुःख का कारण निर्मित होता रहता है। इसलिए परमात्मा ने जो दिया है, उसमें संतोष करना सीखों, तृष्णा तो बढ़ती ही रहेंगी। ये कभी समाप्त होने वाली नहीं हैं, यदि जीवन में वास्तव में सुख का आनन्द लेना है, तो संतोष का भाव निर्मित करना होगा।
परम पूज्य सद्गुरुदेव
कैलाश श्रीमाली जी
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