यही कारण था कि उन्होंने महान उद्देश्य और ध्येय की पूर्ति के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन लगा दिया। यह अलग विषय है कि समाज केवल उन्हें एक मठ, तीर्थ स्थापित करने वाले व्यक्ति के रूप में ही जान सका। परन्तु वे इस युग के सर्वश्रेष्ठ और अद्वितीय ज्ञानी महापुरुष हैं।
जिन्हें साधनाओं के गूढ़तम रहस्यों का ज्ञान था और इसी ज्ञान शक्ति के माध्यम से वे अपने विशाल उद्देश्य की पूर्ति में सफल हो सके। भगवद्पाद् शंकराचार्य जी लक्ष्मी साधना की गूढ़ता व महत्ता पूर्ण रूप से समझते थे, यही कारण है कि पालन-पोषण शक्ति प्राप्ति की चेतना युक्त धामों की स्थापना उन्होंने की। बद्रीनाथ तीर्थ स्थल में पूजा-अर्चना के विधान को सुव्यस्थित करने के पीछे उनका यही मंतव्य था कि सांसारिक व्यक्ति अपने जीवन के अभावों से निजात पा सके और विष्णु नारायण लक्ष्मी स्वरूप में बद्री विशाल के साधना, पूजा कर अपने जीर्ण-शीर्ण जीवन से मुक्त हो और उसके जीवन में अक्षय लक्ष्मी की प्राप्ति हो।
भगवान शंकराचार्य द्वारा रचित इन्हीं विशिष्ट साधनाओं को प्रस्तुत किया जा रहा है। जिसे सम्पन्न कर साधक अपने जीवन के ध्येय व उद्देश्य की प्राप्ति करने में सफल होता है। इसके साथ ही वह अपने जीवन में लक्ष्मी के सभी तत्वों को समाहित कर पाता है। जिससे उसके कर्म शक्ति में प्रखरता आती है। यह सर्व विदित है कि कर्म से ही भाग्य उदय की स्थितियां निर्मित होती हैं।
इस विशिष्ट साधना को सम्पन्न करना जीवन का सौभाग्य है। जिसके माध्यम से विशाल से विशाल लक्ष्य की प्राप्ति होती है और वास्तव में लक्ष्मी का तात्पर्य ही लक्ष्य की प्राप्ति करना है। बिना लक्ष्मी के लक्ष्य की प्राप्ति संभव नहीं। प्रत्येक साधक को अक्षय तृतीया के सिद्ध चैतन्य मुहुर्त में प्रस्तुत इस साधना की चेतना आत्मसात करने की क्रिया सम्पन्न करनी ही चाहिये। जीवन का तात्पर्य तो तभी सिद्ध होता है, जब साधाक अपने लक्ष्य की पूर्णता से प्राप्ति कर सके और चिरस्थिर रूप से लक्ष्मी की चेतना अपने रोम-रोम में आत्मसात करे। शंकराचार्य द्वारा रचित लक्ष्म्योत्त्मा साधना से स्थायी रूप से लक्ष्मी को अपने जीवन में आबद्व किया जा सकता है।
शंकराचार्य द्वारा स्तुति करने पर स्वयं लक्ष्मी ने ब्राह्मणी के घर में धन की अनवरत् वर्षा की थी, यह तो सर्वविदित है और यह आश्चर्यजनक भी है, कि स्तुति के माध्यम से किस प्रकार शंकराचार्य ने लक्ष्मी को आबद्ध कर दिया था, कि वह धन वर्षा करे ही। इसके पृष्ठ में तो सिर्फ स्तुति ही सम्भव नहीं है, क्योंकि व्यक्ति तो उम्र भर स्तुति करता है, परन्तु उसके घर में धन की वर्षा नहीं होती। शंकराचार्य ने ऐसी कौन सी विधि अपनायी जिससे वे समर्थ हो सके लक्ष्मी को आबद्ध करने और अपनी इच्छानुसार धन की वर्षा कराने में?
इसके मूल में अनेक रहस्य उद्घाटित होते हैं, सम्भवतः उन सबका विवेचन करना सम्भव नहीं है, परन्तु मूल विषय है, कि क्या स्तुति के माध्यम से धन वर्षा सम्भव है या शंकराचार्य ने किस मार्ग को अपनाया, कि वह लक्ष्मी को आबद्ध कर इच्छित स्थान पर धन वर्षा कराने में सक्षम हो सके? इस प्रश्न का उत्तर यही है, कि मात्र स्तुति के माध्यम से लक्ष्मी आबद्ध करना सम्भव नहीं है, यदि स्तुति के माध्यम से ही लक्ष्मी आबद्ध की जा सकती, तो प्रत्येक गृहस्थ व्यक्ति के घर तथा वह व्यक्ति जो नित्य अपने व्यवसाय स्थल पर जाकर लक्ष्मी की स्तुति करता है, इनके जीवन में लक्ष्मी की भरपूर मात्रा में उपलब्धि होनी चाहिये थी।
परन्तु ऐसा प्रायः सम्भव नहीं होता, कोई भी व्यक्ति जो स्तुति करता है, उसके घर धन की वर्षा नहीं होती, उनके घरों में धन का ढ़ेर नहीं लगता, वे अपने पूरे जीवन में लक्ष्मी की स्तुति तो करते हैं, फिर भी कर्जदार ही बने रहते हैं। धन का उन्हें कोई अनवरत् स्रोत नहीं मिलता, अतः स्पष्टतः शंकराचार्य ने अवश्य ही कोई ऐसी साधना सम्पन्न की होगी, जिसके माध्यम से वे लक्ष्मी को आबद्ध कर सकने में समर्थ हुये। तंत्र एकमात्र ऐसा माध्यम है, जिसमें अनेक ऐसी विधायें हैं। जिनका ज्ञान यदि व्यक्ति प्राप्त कर लेता है तो उसके माध्यम से वह किसी भी देवी-देवता को आबद्ध करने में समर्थ हो सकता है।
शंकराचार्य तो तंत्र के उच्चकोटि के ज्ञाता थे, उन्होंने ही बौद्ध धर्म को सम्पूर्ण भारतवर्ष से विस्थापित कर पुनः हिन्दुत्व की स्थापना की। तंत्र ही वह सबल माध्यम था, जिसके द्वारा शंकराचार्य कम उम्र में ही अपने लक्ष्य की पूर्णता प्राप्त कर सके। वास्तव में देखा जाय, तो शंकराचार्य का जीवन अनेक रहस्यों से ओत-प्रोत है, जिसकी विवेचना करना अनेक गोपनीय रहस्यों को उजागर करना ही होगा।
शंकराचार्य के जीवन का गोपनीय तथ्य ही है, कि संन्यास धर्म का पालन करते हुए भी किसी के समक्ष उन्होंने याचना नहीं की, वरन स्वयं तो समर्थ हुए ही, साथ ही सब कुछ प्रदान करने में सक्षम भी। जब शंकराचार्य ने देखा, कि समाज की व्यवस्था में असन्तुलन आ जाने के कारण उच्चकोटि की आध्यात्मिक विभूतियों भी भिक्षा मांग कर जीवन यापन करने पर विश्वास हैं एवं साधनाओं का महत्व न्यूनतर होता जा रहा है, बड़े-बड़े ऋषि-मुनि कर्म क्षेत्र एवं साधना पक्ष को छोड़ कर भिक्षा वृत्ति में विश्वास करने लगे हैं, तब शंकराचार्य को इन सभी परिस्थितियों से बहुत ग्लानि हुई। वे चाहते थे, कि भारतवर्ष का कोई भी व्यक्ति भूखा, गरीब, लाचार, बीमार तथा ज्ञान के अभाव में न जिये, जिये तो पौरुषता का जीवन जिये, श्रेष्ठता का जीवन जिये।
और तब उन्होंने अथक परिश्रम एवं खोजबीन के पश्चात् अत्यन्त दुर्लभ एवं गोपनीय साधनाओं का अन्वेषण किया। इन साधनाओं को स्वयं सिद्ध कर दिखा दिया, कि एक संन्यासी भी सभी दृष्टियों से पूर्णता युक्त जीवन जी सकता है, एक गरीब से गरीब व्यक्ति भी साधना के माध्यम से आर्थिक सम्पन्नता प्राप्त कर सकता है—–और यह सिद्ध किया एक ब्राह्मणी के घर में इस साधना के माध्यम से धन वर्षा करवा कर—जिससे उस समय के लोग तो अचम्भित हुये ही और निश्चित रूप से आज भी इस साधना को सम्पन्न कर लोग आचम्भित हुये बिना नहीं रह सकेंगे।
व्यक्ति के जीवन में इतनी अधिक विषमताएं उत्पन्न हो चुकी हैं, कि उसे समाज में प्रतिष्ठित व सम्मानित होने के लिए धन की आवश्यकता पड़ती है, बिना धन के तो वह समाज में अपनी प्रतिष्ठा व सम्मान स्थापित भी नहीं कर सकता। आज छोटी-छोटी वस्तु की भी यदि आवश्यकता होती है, तो बिना धन के हम उसे खरीद नहीं सकते, ललचायी नजरों से दूसरों की ओर देखेंगे या किसी अन्य माध्यम से उसे प्राप्त करने का प्रयास करेंगे, क्योंकि वस्तु की आवश्यकता हमें यह सब करने पर मजबूर करेगी, परन्तु यह नैतिकता की ओर समाज के नियमों के विपरीत है।
ऐसी दशा में यह आवश्यक हो गया है, कि हम साधना के माध्यम से लक्ष्मी को आबद्ध कर सकें, उसे चिरस्थिर रूप से अपने जीवन में स्थापित कर लें, जो संभव है भगवद्पाद् शंकराचार्य द्वारा रचित इस साधना द्वारा। शंकराचार्य कृत विविध साधनाओं में लक्ष्म्योत्तमा साधना भी है, जो अनेक माध्यमों से धन प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करती है, वास्तव में यह साधना धन वर्षा होने के समान है। यह अपने आपमें अद्वितीय साधना है। यह साधना अत्यन्त सरल, सटीक तथा शीघ्र प्रभाव देने वाली कही गई है, यदि यह साधना पूर्ण श्रद्धा, निष्ठा, विश्वास एवं मंत्र सिद्ध सामग्री तथा विधि-विधान के साथ की जाये, तो अवश्य ही निश्चित सफलता प्राप्त होती है।
भगवती का ध्यान करें-
अरूण कमल संस्था तद्रजः पुंजवर्णा
करकमल धृतेष्टा मिति-माम्बुजाता।
मणि मुकुट विचित्र लंकृता कल्पजालै,
सकल भुवन माता सततं श्रीं श्रियै नमः।
अब लक्ष्म्योत्त्मा माला से 11 माला निम्न मंत्र का जप करें-
साधना समाप्त होने पर अगले दिन यंत्र व माला को बाजोट पर बिछे लाल रंग के कपड़े में बांध कर नदी में प्रवाहित कर दें।
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