गुरु शब्द का तात्पर्य यही है कि जो बन्धन के मुख्य कारण अज्ञान, दोष, हृदय ग्रन्थी भेदने में समर्थ हो, वास्तविक रूप से वही गुरु है।
अर्थात् जो जीवन का सम्पूर्ण धर्म बताये, ज्ञान रूपी ज्योति से अज्ञान का अन्धकार दूर करे, जिसकी देवता, गन्धर्व इत्यादि स्तुति करें, वही देव गुरु है। गुरु शिष्य की समस्त बाहरी वृत्तियां जो उसे विनाश की ओर ले जाती हैं, उन वृत्तियों का शमन कर भीतर की सद् वृत्तियों को जाग्रत कराते हैं, जिससे वह शिष्य अमृतमय हो कर पूर्ण पुरुष बन सके।
दुखी से दुखी व्यक्ति को भी गुरु के पास आकर शान्ति प्राप्त होती है और दुःखी, निर्बल, धनहीन जीव भी जब गुरु का सानिध्य प्राप्त कर लेता है, तो उस शिष्य को भी परम प्रसन्न, जीवन के पूर्ण आनन्द का अनुभव होने लगता है। यही गुरु की प्रतिग्रह शक्ति की महिमा है। शिष्य के मन में जब भाव आ जाता है कि ईष्ट की वाणी और गुरु की वाणी से एक ही अनुभूति है। उनका दिव्य शरीर, इष्ट रूप में ही कल्याण निहित बना है तब वह सफलता की उच्चतम स्थिति की आशा से युक्त हो जाता है। गुरु अपने ब्राहृा शरीर में होते हुए भी आन्तरिक रूप से पूरे ब्रह्माण्ड में समाये रहते हैं और इसका आधार केवल गुरु चरण ही है, इसलिये लिखा है कि-
अर्थात् संसार के सभी तीर्थ और पुण्य क्षेत्र गुरु के चरणो में साकार रूप से उपस्थित होते हैं, इसीलिए गुरु के चरणों का जल जिसको चरणामृत कहा गया है, स्वीकार किया जाता है। अध्यात्म जगत में अनेक सम्प्रदाय हैं और सभी सम्प्रदायों में गुरु की साधना, आराधना करने का विधान बताया गया है, सभी सम्प्रदाय ने स्वीकार किया है कि गुरु की साधना, पूजा से जीवन के दोनों पक्ष अध्यात्म और भौतिक में पूर्णता प्राप्त होती ही है।
गुरु ही जगत की उत्पत्ति के मूल कारण हैं, वही संसार सागर को पार कराने वाले सेतुरुप हैं व सभी विद्याओं की उत्पत्ति का एकमात्र हेतु श्री गुरु ही हैं, ऐसे शिव स्वरूप कल्याणकारी श्री गुरु के चरण-कमलो में नमन है।
भगवान शिव ने जिस प्रकार सृष्टि की रक्षा करने के लिये हलाहल को अपने कंठ में धारण कर देवताओं को अमृत वे का पान कराया, ठीक वही क्रिया गुरु को भी करनी पड़ती है, शिष्य के अन्तर निहित अज्ञान, अहंकार, पाप, छल आदि दोष रूपी हलाहल को अपने अन्दर धारण कर उसे ज्ञान रूपी अमृत का पान कराते हैं।
गुरु अपने आप में समस्त ऐश्वर्य के अधिपति होते है। उनके विभिन्न अंगों में समस्त देवी देवता स्थापित होते हैं। सभी देवों के वे समन्वित रूप होते हैं, सर्व देवमय होने के कारण प्रथम आराध्य एवं पूजनीय हैं। वे परमेश्वर के साक्षात मूर्तरूप हैं, मानव रूप में वे समस्त साधनाओं के सूत्रधार कहे जाते हैं। साधनाओं में सफलता के लिए अन्य साधनाओं से पूर्व गुरु साधना अपेक्षित होती है। कई बार साधकों को अनेक प्रयासों के बाद भी सफलता नहीं मिल पाती, कोई अनुभूति भी नहीं होती, इस स्थिति में भी गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा एवं समर्पण की भावना तथा दृढ़ निष्ठा होनी चाहिए।
गुरु के प्रति अन्तरंगता एवं तादात्म्य न होने से कभी भी सफलता सम्भव ही नहीं होगी। साधनाओं में सफलता के लिए निरन्तर गुरु चिन्तन, गुरु मंत्र का जप करते रहना चाहिए, यही सफलता का मूल मंत्र है। साधना में शीघ्र सफलता के लिए गुरु कृपा प्राप्त करने का सतत् प्रयास करना चाहिए। मन वचन और कर्म से जो भी पाप दोष हुये हैं या होते हैं, उनके शमन का उपाय करते रहना चाहिए।
निखिल जयंती के पावन व चैतन्य अवसर पर सभी सद्गुरुदेव निखिल से एकात्मक भाव से जुड़े साधक को निखिल तत्वाभिषेक साधना पूर्ण विधि-विधान से सम्पन्न करना ही चाहिये। जिससे वे अपने रोम-रोम, आत्म व हृदय में निखिल तत्व को समाहित कर सकें, क्योंकि निखिल तत्व ही जीवन की पूर्णता का द्योतक इसी तत्व के माध्यम से ही भौतिक, आध्यात्मिक जीवन प्रगतिशील व लक्ष्य प्राप्ति में सहायक है। तत्वाभिषेक का तात्पर्य यही है कि साधक के सम्पूर्ण देह का अभिषेक निखिल तत्व से सम्पन्न हो अर्थात् जीवन के प्रत्येक क्षण में सद्गुरु विराजमान हों, उनका सानिध्य व उनकी कृपा के साथ उनकी तपस्यांश शक्ति से जीवन उन्नति-प्रगतिशील बना रहे और गुरु से कभी भी जटिल परिस्थितियों में अथवा ग्रह योगों, पाप-ताप, दोषों या सांसारिक मोह-माया के कारण भी कभी विच्छेद ना हो।
यह साधना प्रत्येक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, क्योंकि गुरु ही एकमात्र जीवन की नाव को किनारा देने समर्थ होते हैं, अन्य देवी-देवता कामनाओं की पूर्ति तो करते ही हैं, परन्तु जीवात्मा के कल्याण मार्ग गुरु चरणों से ही होकर जाता है। सद्गुरु ही एकमात्र ऐसे देव हैं जो कामनाओं के साथ अपने शिष्य के कल्याण का मार्ग भी प्रशस्त करते हैं।
साधक प्रातः स्नान कर शुद्ध वस्त्र धारण करके पूर्व दिशा की ओर मुख करके पीला आसन बिछाकर उस पर मंत्र सिद्ध चैतन्य सद्गुरु चित्र स्थापित करें। दीप और अगरबती जला लें, अब पूजन प्रारम्भ करें-
पवित्रीकरण- बाएं हाथ में जल लेकर दाहिने हाथ से तीन बार अपने ऊपर जल छिड़कते हुए पवित्रीकरण करें-
ऊँ अपवित्रः पवित्रे वा सर्वावस्था गतो{पि वा यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं सः बाह्याभ्यन्तरः शुचिः।
संकल्प- दाहिने हाथ में जल लेकर निम्न संकल्प करें-
ऊँ अद्य एतस्य ब्रह्मणो द्वितीय परार्द्धे श्वेतवाराह कल्पे
जम्बूद्वीपे भरतखण्डे पुण्यक्षेत्रे अमुक गोत्रोत्पन्नोऽहं (अपना
गोत्र बोलें) अमुक शर्माहं (अपना नाम बोलें) सर्वारिष्ट
निवृत्ति पूर्वकं सकल मनोकामना सिद्धि निमित्तं श्री गुरुदेव
प्रीत्यर्थं सर्व साधना सफलता निमित्तं च विशिष्ट गुरु पूजनम्
अहम् करिष्ये।
ऐसा बोलकर जल को भूमि पर छोड़ दे।
रक्षा विधान- बाएं हाथ में जल लेकर दाएं हाथ से अपने चारों ओर निम्न मंत्र पढ़ते हुए जल छिड़कें।
ऊँ गुरुर्वै महाशान्तिकं।। ऊँ आशां बध्नामि।।
ऊँ गुरुर्वै दिशां बध्नामि।। ऊँ गुरुर्वै बंधं बध्नामि।।
ऊँ गुरुर्वै मायां बध्नामि।। ऊँ गुरुर्वै सर्व मायां
बध्नामि।। ऊँ गुरुर्वै जनान् बध्नामि।। ऊँ गुरुर्वै बन्धं
बध्नामि कुरु कुरु नमः।।
गणपति पूजन- समस्त विघ्नों के नाश के लिए भगवान गणपति का पूजन करें-
ऊँ गं गणपतये नमः।। गणपतिं आवाहयामि स्थापयामि
पूजयामि नमः।। स्नानं, धूपं, दीपं, पुष्पं, नैवेद्यं च
निवेदयामि ऊँ गणाधिपतये नमः।।
दोनों हाथ जोडें-
गजाननं भूत गणाधिसेवितं
कपित्थ जम्बू फल चारू भक्षणं
उमा सूतं शोक विनाश कारकं
नमामि विघ्नेश्वर पाद पंकजं।।
कलश स्थापन-
साधक अपनी बायीं ओर कुंकुंम से स्वस्तिक बनाकर जल से भर कर कलश स्थापित करें। उसमें कुंकुंम अक्षत, सुपारी और पुष्प डाल दें। उसके बाद कलश के चारों ओर कुंकुंम से निम्न संदर्भ पढ़ते हुए चार बिंदी लगायें-
ऊँ पूर्वे ऋग्वेदाय नमः।।
ऊँ उत्तरे यजुर्वेदाय नमः।।
ऊँ पश्चिमे अथर्ववेदाय नमः।।
ऊँ दक्षिणे सामवेदाय नमः।।
इस प्रकार कलश पर चारों वेदों की स्थापना करके अक्षत, पुष्प, धूप, दीप से पूजन करें।
गुरु पूजन- इसके बाद सामने स्थापित गुरु चित्र का पंचोपचार (स्नान, धूप, दीप, पुष्प और नैवेद्य) से पूजन करें-
स्नानं समर्पयामि श्री गुरु चरणेभ्यो नमः।।
चरणों में एक आचमन जल अर्पित कर साफ वस्त्र से पौंछे
धूपं, दीपं, पुष्पं, नैवेद्यं निवेदयामि श्री गुरु चरण कमलेभ्यो नमः।।
गुरु प्रार्थना करें-
सिद्धाश्रम चैतन्य यंत्र और सद्गुरु तत्वाभिषेक माला को सामने किसी प्लेट पर स्थापित करें और उसके चारों दिशाओं में मंगल हेतु चार सुपारी रखें।
विनियोग- दाहिने हाथ में जल लेकर निम्न मंत्र को पढ़ें-
ऊँ अस्य श्री गुरु मंत्रस्य दक्षिणामूर्ति ऋषिः, गायत्री छन्दः, श्री गुरुदेवता प्रीत्यर्थे जपे विनियोग।।
प्राण प्रतिष्ठा मंत्र- यंत्र को दाहिने हाथ से स्पर्श कर तीन बार निम्न मंत्र का उच्चारण करें।
इसके बाद कलश के जल से यंत्र को स्नान करायें तथा
निम्न मंत्र बोलें-
ऊँ गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति, नर्मदे सिन्धु कावेरि स्नानार्थं प्रतिग्रह्यताम।।
वस्त्र, नैवेद्यं, अक्षत, धूप, दीप, पुष्प यंत्र पर अर्पित करें।
वस्त्रं समर्पयामि नमः।। तिलकं नैवेद्यं निवेदयामि नमः।।
अक्षतान् समर्पयामि नमः।। धूपं दीपं दर्शयामि नमः।। पुष्प
मालां समर्पयामि नमः।।
इसके बाद निम्न मंत्रें का उच्चारण करते हुए यंत्र पर एक-एक पुष्प चढ़ाएं-
ऊँ भवाय नमः पादौ पूजयामि।।
ऊँ श्रीगुरुचरणकमलेभ्यो नमः पादौ पूजयामि।।
ऊँ परम गुरुभ्यो नमः पादौ पूजयामि।।
ऊँ परात्पर गुरुभ्यो नमः पादौ पूजयामि।।
ऊँ पारमेष्ठि गुरुभ्यो नमः पादौ पूजयामि।।
ऊँ मृडाय नमः पादौ पूजयामि।।
ऊँ सर्वाज्ञानहराय नमः पादौ पूजयामि।।
दाहिने हाथ में जल लेकर निम्न मंत्र को बोलते हुये यंत्र पर पुष्प चढ़ायें-
ऊँ गुरवे नमः आवाहयामि स्थापयामि।।
ऊँ परम गुरवे नमः आवाहयामि स्थापयामि।।
ऊँ परात्पर गुरवे नमः आवाहयामि स्थापयामि।।
ऊँ पारमेष्ठि गुरवे नमः आवाहयामि स्थापयामि।।
ऊँ परम गुरवे नमः आवाहयामि स्थापयामि।।
दोनों हाथों में पुष्प, अक्षत, कुंकुंम लेकर निम्न मंत्र बोलकर यंत्र के ऊपर समर्पित करें-
ऊँ सर्व शास्त्रार्थं तत्वज्ञं निखिलेश्वरानन्दम् आवाहयामि
स्थापयामि।। ऊँ परमानन्द रूपेण परमहंस स्वामी
सच्चिदानन्दं आवाहयामि स्थापयामि।। ऊँ ब्रह्मण्य रूपेण
वेदव्यासं आवाहयामि स्थापयामि।। ऊँ पूर्णत्व प्रदाय
चतुर्मुखं ब्रह्माणं आवाहयामि स्थापयामि नमः।।
फिर सद्गुरु तत्वाभिषेक माला से निम्न मंत्र का 11 माला मंत्र जप करें-
दोनों हाथों में पुष्प लेकर पुष्पांजलि अर्पित करें-
ऊँ परमहंसाय विद्महे महातत्वाय धीमहि तन्नो हंसः
प्रचोदयात्।। ऊँ महादेवाय विद्महे रूद्रमूर्तये धीमहि
तन्नो रूद्रः प्रचोदयात्।। ऊँ गुरुदेवाय विद्महे परम
ब्रह्मणे धीमहि तन्नो गुरुः प्रचोदयात्।। श्री
गुरुचरणकमलेभ्यो नमः पुष्पांजलिं समर्पयामि नमः।।
गुरु आरती सम्पन्न करें और सभी को प्रसाद वितरण करें, चरणामृत ग्रहण करें। सवा माह तक यंत्र को पूजा स्थान में स्थापित कर दें, प्रति दिन सामान्य पूजन करें। सवा माह के बाद यंत्र व माला नदी में विसर्जित कर दें।
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