शनि ग्रह कांति हीन अत्यन्त धीरे चलने वाला तथा वात प्रकृति प्रधान ग्रह है। इस ग्रह के द्वारा शारीरिक दुर्बलता, विपत्ति योग, शत्रु बाधा, अकाल मृत्यु, अहंकार, मानसिक रोग, छल, कपट, क्रूरता, धोखा का विचार भी शनि ग्रह के प्रभाव से उक्त कुविचार आते हैं। इसके अलावा प्रधान बात यह है कि जीवन में शनि का प्रभाव ही सर्वाधिक पड़ता है। व्यक्ति के चिंतन का योग शनि के द्वारा ही बनता है।
शनि सूर्य का पुत्र है और यम का भाई है, अतः दुर्घटना, आकस्मिक मृत्यु का विवेचन भी इसी ग्रह से किया जाता है। विंशोतरी महादशा के अनुसार सारे ग्रहों की दशायें कुल 120 वर्षों की मानी गई है। इसमें- सूर्य महादशा- 6 चन्द्र महादशा- 10 मंगल महादशा- 7 बुध महादशा- 17 गुरु महादशा- 16 शुक्र महादशा – 20 राहु महादशा- 18 केतु महादशा- 7 शनि महादशा- 19
सभी ग्रहों में सर्वाधिाक बलशाली व प्रभावी शनि ग्रह किसी भी राशि पर न्यूनतम तीस माह तक रहता है। इस काल में यदि शनि शुभकारी है तो व्यक्ति अपने जीवन में सर्वाधिक उन्नतिशील बनता है। परन्तु यदि शनि की दशा विपरीत चल रही हो तो जीवन छिन्न-भिन्न हो जाता है। शनि की दशा अधिाकतर अत्यन्त क्रूर व हानिकारक सिद्ध होती है। इस दशा में साधक जीर्ण-शीर्ण, दीन-हीन की स्थिति में भी पहुंच सकता है और उसके जीवन के सभी विकल्प समाप्त हो जाते हैं। अतः साधक को निरन्तर शनि की उपासना, साधना कर जीवन निर्माण में सहायक इस विशेष ग्रह की अनुकम्पा ग्रहण करते रहना चाहिये।
एक समय सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु इन नौ ग्रहों में आपस में विवाद हो गया कि हम सबमें सबसे श्रेष्ठ कौन है? सभी अपने आप को श्रेष्ठ बता रहे थे। जब आपस में कोई निणर्य नहीं हो सका तो सभी ग्रह इन्द्र के पास गये और कहने लगे कि आप सब देवताओं के राजा हैं। इसलिए आप हमारा न्याय करते हुए बतायें कि हम नौ ग्रहों में सबसे श्रेष्ठ कौन है? राजा इन्द्र यह सुनकर घबरा गये और कहने लगे मुझमें यह सामर्थ्य नहीं है, जो आप लोगों में किसी को बड़ा या छोटा बताऊं। एक उपाय हो सकता है, इस समय पृथ्वी पर वीर विक्रमादित्य न्याय प्रिय व धर्मराज स्वरूप राजा है, आप सब उसी के पास जाओ।
ऐसा वचन सुनकर सभी ग्रह देवता भू-लोक में राजा विक्रमादित्य के सभा में उपस्थित हुये और अपना प्रश्न राजा के सम्मुख रखा। राजा उनकी बात सुनकर गहरी चिन्ता में पड़ गया कि मैं अपने मुख से किसको बड़ा और किसी छोटा बताऊं! जिसको छोटा बताऊंगा वहीं क्रोध करेगा, परन्तु उनका झगड़ा निपटाने के लिए राजा ने एक उपाय सोचा कि सोना, चांदी, कांसा, पीतल, शीशा, रांगा, जस्ता, अभ्रक, लोहा आदि नव धातुओं के 9 आसन बनवाये और सब आसनों को क्रम से लगा दिया और राजा ने सभी ग्रहों से कहा कि आप सभी अपने-अपने आसन पर बैठ जाईये। जिसका आसन सबसे आगे वह सबसे बड़ा और जिसका आसन पीछे वह सबसे छोटा समझिये, चूंकि लोहा का आसन सबसे पीछे रखा था और वह शनिदेव का आसन था, इसलिये शनि ने समझ लिया कि राजा ने मुझे सबसे छोटा बताया है, शनि को बड़ा क्रोध आया और शनि ने कहा कि राजन!, तू मेरे पराक्रम को नहीं जानता- सूर्य एक राशि पर एक महीना, चन्द्रमा सवा दो दिन, मंगल डेढ़ महीना, गुरु तेरह महीना, बुध और शुक्र एक महीना, राहु और केतु उल्टे चलते हुए केवल अठारह महीने एक राशि पर रहते हैं, परन्तु मैं एक राशि पर तीस महीने तक रहता हूं। बड़े-बड़े देवताओं को भी मैंने भीषण दुःख दिया है राजन! राम को साढ़े साती लगी और उन्हें वनवास हो गया, रावण पर साढ़े साती आई तो राम, लक्ष्मण ने सेना लेकर लंका पर चढ़ायी कर दी, रावण के कुल का नाश कर दिया। हे राजन! तू सावधान रहना।
राजा ने कहा जो कुछ भाग्य में होगा देखा जायेगा। कुछ काल व्यतीत होने पर जब राजा विक्रमादित्य को शनि की साढ़े साती की दशा लगी तब स्वयं शनिदेव घोड़ों का व्यापारी बनकर अनेक सुन्दर घोड़ों सहित विक्रमादित्य की राजधानी आये। जब राजा ने व्यापारी के आने की खबर सुनी तो अपने अश्वपाल को अच्छे-अच्छे घोड़े खरीदने की आज्ञा दी।
अश्वपाल ऐसी अच्छी नस्ल के घोड़े देखकर और उनका मूल्य सुनकर चकित रह गया और तुरन्त राजा को खबर कर दी। राजा ने एक अच्छा सा घोड़ा चुनकर उस पर सवारी के लिए चढ़ा! राजा के घोड़े की पीठ पर चढ़ते ही घोड़ा जोर से भागा, घोड़ा दूर घने जंगल में राजा को छोड़कर अन्तर्धान हो गया, इसके बाद राजा जंगल में भटकता फिरता रहा। बहुत समय पश्चात् राजा ने भूख और प्यास से दुःखी होकर भटकते- भटकते एक ग्वाले को देखा। राजा की उँगली में एक अगूंठी थी, राजा ने अगूंठी निकालकर प्रसन्नता के साथ ग्वाले को दे दी और शहर की ओर ले चलने को कहा।
राजा शहर में पहुंचकर एक सेठ की दुकान पर बैठ गया और अपने को उज्जैन का रहने वाला तथा अपना नाम बीका बताया। सेठ ने उसको एक कुलीन मनुष्य समझ कर जल पिलाया। उस दिन सेठ की दुकान पर बिक्री बहुत अधिक हुई तब सेठ उसे भाग्यवश भला समझकर भोजन कराने के लिए अपने साथ ले गया। भोजन करते समय राजा के साथ आश्चर्य घटना हुई खूंटी पर हार लटक रहा था और वह खूंटी उस हार को निगल रही थी। भोजन के पश्चात घर आने पर सेठ को घर में हार न मिला तो सबने यही निश्चय किया कि सिवाय बीका के और कोई घर में नहीं आया। अतः इसी ने हार चोरी किया, पर बीका ने हार लेने से इनकार किया। इस बात पर पांच-दस व्यक्ति इकट्ठे होकर उसको फौजदार के पास ले गये, फौजदार ने उसे राजा के सामने उपस्थित कर दिया और कहा कि यह आदमी तो भला प्रतीत होता है, चोर नहीं मालूम होता, परन्तु सेठ का कहना है कि इसके अतिरिक्त कोई और घर में आया ही नहीं, अवश्य ही इसी ने चोरी की है।
तब राजा ने आज्ञा दी कि इसके हाथ-पैर काट कर चौरंगा किया जाये। राजाज्ञा का अविलम्ब पालन किया गया और बीका के हाथ-पैर काट दिये गये, इस प्रकार कुछ काल व्यतीत होने पर एक तेली उसे अपने घर ले गया और कोल्हू पर उसे बिठा दिया। बीका उस पर बैठा हुआ जबान से बैल हांकता रहता।
इस वर्णन का तात्पर्य यही है कि शनि की विपरीत दशा में मनुष्य राजा से रंक बन जाता है। उसके जीवन की सभी परिस्थितियां छिन्न-भिन्न हो जाती हैं। शनि को ज्योतिष में विच्छेदात्मक ग्रह माना गया है। एक ओर शनि मृत्यु प्रधान ग्रह, वहीं दूसरी ओर शुभ होने पर भौतिक जीवन में श्रेष्ठता भी देता है। शनि का फल तत्काल व निश्चित रूप से प्राप्त होता है।
शनि शुभ होने पर अत्यन्त व्यवस्थित, व्यावहारिक, परिश्रमी, गंभीर, स्पष्ट वक्ता बना देता है। आत्म विश्वासी, प्रबल इच्छा-शक्ति युक्त महत्वाकांक्षी, श्रेष्ठ आचरण करने वाला, हर कार्य में सावधान रहने वाला होता है। शनि प्रभावी जातक व्यवसाय में चतुर, कार्य पटुता में कुशल होता है। साथ ही मनुष्य के मन का भेद लेने में शनि प्रधान व्यक्ति दक्ष होते हैं।
शनि प्रभावी जातक का अध्यात्म की ओर विशेष झुकाव रहता है तथा योगाभ्यासी, गूढ़ रहस्य का पता लगाने में दक्ष, कर्मकांड व धार्मिक शास्त्रें का अभ्यास करने वाला, ग्रंथ प्रकाशन, तत्वज्ञ, लेखन कार्य, यश व सम्मान पाते हैं। शनि के अनेक स्वरूपों में उनकी विशेषता का भी वर्णन है, शनि के विभिन्न नाम-सर्वाभीष्टप्रदायिन– सभी इच्छाओं को पूरा करने वला, शरण्य– रक्षा करने वाला, चिर स्थिर स्वभाव– व्यवस्थित रूप से चलने वाले, निश्छल– अटल रहने वाले, वज्रदेह– वज्र समान शरीर वाले, वैराग्यद– वैराग्य के दाता, वीर– अधिक शक्तिशाली, वीतरोगभय– डर और रोगों से मुक्त करने वाले, आयुष्यकारण– दीर्घायु जीवन प्रदान करने वाले, आपदुद्धर्त्र– दुर्भाग्य दूर करने वाले, वरदाय भयहस्त– भय को दूर करने वाले, कष्टौधानाशकर्त्र– कष्टों को दूर करने वाले, पुष्टिद– सौभाग्य के दाता, भानु– तेजस्वी, भक्तिवश्य– भक्त द्वारा वश में आने वाले, धनदा– धन दाता, तनुप्रकाशदेह– तन को प्रकाश देने वाला, दीनार्तिहरण– संकट दूर करने वाला, दैन्यनाशकराय– दुख का नाश करने वाला, परभीतिहर– भय दूर करने वाला।
इन विभिन्न स्वरूपों से शनिदेव जीवन को सुख-समृद्धि, वैभव, आरोग्यता, दीर्घायु जीवन, कार्य- व्यापार सफलता के प्रदाता हैं, ये सभी स्थितियां शनि ग्रहण की कुपितता के निवारण से ही संभव है। क्योंकि शनि ही एकमात्र ऐसे ग्रह देव हैं, जिनके कारण जीवन पूर्ण रूपेण नारकीय स्वरूप में अधोगतिमय बनता है और इनके सुप्रभाव से ही सर्वांगीण स्वरूप में राजयोगमय जीवन निर्मित होता है।
जिनके भी जीवन में कोई भी समस्या जटिल हो रही है, लाख प्रयास के बाद भी जीवन में सुस्थितियां नहीं आती हैं। तब आवश्यक है कि वह शनि की पूर्ण अनुकूलता प्राप्त कर शनि के सभी सुभावों को आत्मसात कर सके और जीवन में उन सभी स्थितियों को हस्तगत कर सके जो उसकी अभिलाषा है।
यह साधना शनि जयंती, ज्येष्ठ माह कृष्ण पक्ष शनिश्चरी अमावस्या 03 जून को रात्रि 09 बजे के पश्चात् प्रारम्भ करें। स्नान कर शुद्ध वस्त्र धारण करें। गुरु पीताम्बर ओढ़ कर पूर्व दिशा की ओर मुख कर बैठ जायें। पंचोपचार गुरु पूजन सम्पन्न कर 1 माला गुरु मंत्र जप करें, साधना में सफलता के लिये गुरुदेव से प्रार्थना करें और अपने सामने भूमि पर काजल से त्रिभुज बनायें और के अन्दर शं बीज मंत्र अंकित कर उस पर ताम्र पत्र रखें ताम्र पात्र पर काजल से ही अष्टदल कमल बनायें और उस पर नवग्रह यंत्र स्थापित करें और ताम्रपात्र के सामने भूमि पर काला कपड़ा बिछाकर उस पर शनि पुष्टिदा जीवट (पुष्टिदा अर्थात् सौभाग्य प्रदान करने वाला) स्थापित करें। फिर यंत्र व जीवट पर काजल का तिलक कर तिल के तेल का दीपक प्रज्ज्वलित करे, यंत्र पर काले रंगे हुये चावल 11 बार अर्पित करते हुये ऊँ शं ऊँ मंत्र का उच्चारण करते रहें, इसके पश्चात् करन्यास तथा हृदयादि न्यास सम्पन्न करें-
शनैश्चरायं अंगुष्ठाभ्यां नमः।
मन्दगतये तर्जनीभ्यां नमः।
अक्षजाय मध्यमाभ्यां नमः।
कृष्णंगाय अनामिकाभ्यां नमः।
शुष्कोदराय कनिष्ठिकाभ्यां नमः।
छायात्मजाय करतल कर पृष्ठाभ्यां नमः।
शनैश्चराय हृदयाय नमः। मन्दगतये शिरसे स्वाहा।
अक्षजाय शिखायै वषट्। शुष्कदराय नेत्रत्रयाय वौषट्।
छायात्मजाय अस्त्रय फट्।।
अब हाथ में जल लेकर संकल्प करें तथा शनि सम्मोहन शक्ति माला से निम्न मंत्र की 5 माला जप करें।
मंत्र जप पूर्ण होने के बाद यंत्र पर तीन पीले रंग के फूल लेकर निम्न प्रार्थना कर अर्पित करें।
अब हाथ जोड़कर श्रद्धापूर्वक निम्न वन्दना करें।
साधना समाप्ति के बाद सभी सामग्री उसी स्थान पर रहने दें अगले दिन सायं काल में यंत्र के सम्मुख हाथ जोड़कर पुनः उपरोक्त वन्दना का उच्चारण करते हुये सभी सामग्री को काले वस्त्र लपेट कर सुरक्षित रख लें व गुरुदेव से व्यक्तिगत रूप से मिलकर सभी सामग्री उनके चरणों में पोटली सहित अर्पित कर आशीर्वाद् ग्रहण करें।
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