ज्ञान से बाहर की यात्रा होती है, अज्ञान से भीतर की। ज्ञान स्वयं के मार्ग में बाधा बन जाता है। वहां तो चाहिए निर्दोष चित्त, छोटे बच्चों जैसा भाव। भाग्यशाली होते हैं, वे लोग जिन्हें ऐसा भाव मिलता है और ना मिला हो तो उस भाव की तलाश करने का प्रयास करें। यह सूत्र भावुक हृदय के लिए संकेत है। इससे आप अपनी मंजिल की यात्रा पूरी कर सकते हैं।
आश्चर्य की बात है कि मनुष्य परमात्मा को बिना देखे कैसे जी लेता है? इस संसार में एक क्षण भी जीने योग्य नहीं है उसके बिना। जिसने उस परमत्व को नहीं जाना वह क्यों जी रहा है, यह विचारणीय विषय है, आश्चर्य की बात है और जिस दिन तुम जानोगे उसे, उस दिन तुम्हें भरोसा न होगा उसे जानने से पहले तुम कैसे जी रहे थे, किस सहारे जी लिये? किस आधार पर जी लिये? किस हेतु से जी लिये?
लेकिन जब तक उसका दर्शन नहीं मिला तब तक याद ही नही है, स्मरण ही नहीं है कि क्या हो सकते हैं! बीज जब तक टूटा नहीं तब तक उसे पता भी कैसे हो कि कौन-सी अनंत संभावनायें उसके भीतर छिपी हैं। पक्षी जब तक उड़ा नहीं, उसे कैसे पता हो आकाश का आनंद, मुक्ति का आनंद, स्वतंत्रता का आनंद? जब तक प्रेम न चखा हो तब तक प्रेम के स्वाद का पता लगे भी तो कैसे ?
हां, एक बार झलक मिल जाये फिर पागलपन पैदा हो जाता है। एक बार झलक मिल जाए तो फिर प्यास जगती है और ऐसी जगती है कि फिर बुझायें नहीं बुझती। तुम अपनी जीवन-प्रक्रिया देखो। कोई धन कमाने निकला था, किसी को धन कमाते देखकर तुम धन कमाने में लग गये। कोई पद के लिए आतुर था, उसकी आतुरता ने तुम्हें भी जकड़ लिया है, तुम भी पद के पीछे चल पड़े हो। तुम सीखते कहां से हो? सीखते किससे हो? जो भी तुम जानते हो जीवन के सम्बन्ध में वह आस-पास से आता है, किसी ना किसी के द्वारा।
इसी तरह सद्गुरु के संग का अर्थ है किसी ऐसे व्यक्ति के पास होना, जिसकी आंखों में परमात्मा बसा हो। उससे जुड़ाव बनाये रखना ही काफी है, कुछ और करने की जरूरत नहीं है। उसके पास आते-जाते रहना, यह अवसर जितना मिले उतना अच्छा है। क्योंकि कब, किस क्षण में तुम्हारा हृदय ग्राहक हो, किस क्षण वह घटित हो जाये जिसकी तुम्हें तलाश है, कुछ कहा नहीं जा सकता। कभी तुम खुले होते हो, कभी तुम बंद होते हो। कभी तुम लेने को तैयार होते हो, कभी तुम लेने को तैयार नहीं भी होते हो। कभी तुम्हारे मन में हजार-हजार विचारों की तरंगे होती हैं। उस समय तुम गुरु के पास होकर भी दूर रहते हो। लेकिन कभी ऐसा क्षण भी आता है, जब विचार की तरंगे नहीं होती या बहुत कम होती है, न के बराबर होती है। उसी क्षण, जो रोशनी गुरु के भीतर जगी है, वह तुम्हारे अंधेरे को भी पार कर जाती है, बिजली की तरह कौंध जाती है।
बस, उसके बाद फिर दर्शन की इच्छा जगती है। उसके पहले तो दर्शन सिर्फ बातचीत है। जिसे तुमने देखा ही नहीं है, जिसका तुम्हें कोई अनुभव नहीं है उसके लिये तुम प्यासे भी कैसे हो सकते हो? तब तक तुम्हारी सब पूजा और प्रार्थना झूठी है। तब तक तुम जिन मंदिरो में जाते हो, मस्जिदों में जाते हो, गुरुद्वारो में वह जाना औपाचारिक है। एक संस्कार है सामाजिक, तुम उसे पूरा कर देते हो।
मंदिर-मस्जिदों से नहीं होगा, जीवित मंदिर खोजो। पत्थर की दीवालों से नहीं होगा, कहीं जहां परमात्मा अभी भी धड़क रहा हो, किन्हीं आंखों में झांको, जो आंखें परमात्मा में झांक चुकी हों। किसी ऐसे के संग-साथ हो लो, जिसके साथ होने पर सौभाग्य के किसी क्षण में एक झंझावात की तरह तुम्हारे चारों तरफ ऊर्जा का प्रवाह होगा। तुम एक अंघड़ में फंस जाओगे। एक अंघड़, जो तुम्हें अनंत की यात्रा पर ले जा सकता है।
तब दर्शन की इच्छा जगती है। गुरु की आंख में झांक कर परमात्मा में झांकने की अभीप्सा जगती है। फिर चैन नहीं, फिर बावरापन है।
इसका अर्थ यह है कि प्राथमिक घटना घट चुकी है। एक बार झलक मिल चुकी है। अब दर्शन की इच्छा है। थोड़ा-सा स्वाद लग गया है। होठों ने थोड़ा-सा रस पी लिया है अब और पीने की इच्छा है। अब बिना पिये नहीं रहा जाता।
तब साधक कहता है, जरा मेरी प्यास को आजमाओ। जरा मेरी अभीप्सा को परखो। यह जो मेरे प्राणों में जल रही है उत्कंठा, जरा इसकी तरफ देखो। और परमात्मा को रिझाना शुरु कर देता है, फुसलाता है, मनाता है, झगड़ता है, पुकारता है। कभी नाराज होकर चुप हो जाता है। कभी रोता है, कभी पीठ फेर लेता है। ये सभी भक्ति की भाव-भगिमायें हैं। जैसे प्रेमी झगड़ते हैं, भक्त भगवान से झगड़ता है। कई तरह से रिझाता है, कि तुम्हारी झलक अगर मिल जाये तो चांद-तारे फीके पड़ जाये। तुम्हारी झलक अगर मिल जाये तो सूरज अंधेरा हो जाये, तुम जरा पर्दा उठाओ।
ऐसा दोनों के बीच, सीमा और असीम के बीच, क्षुद्र और विराट के बीच, बूंद और सागर के बीच गुफ्तगू चलती है, वार्ता होती है, चर्चा होती है। भक्त रोता है और करे भी क्या? आंसू ही प्रार्थना बन सकते हैं और भक्त के पास है भी क्या?
और जब तक भक्त को अनुभव नहीं होने लगता है कि मेरे आंसूओं के उत्तर आने लगे, कि इधर मैं रो रहा हूं, इधर अस्तित्व रोने लगा, तब भक्त चैन नहीं लेता। बिन दरसन भई बावरी ऐसे पागल तुम हो जाओ तो परमात्मा मिल सकता है, यह कीमत चुकानी ही पड़ती है। मुफ्त यहां कुछ भी नहीं है, अक्सर लोग संसार की क्षुद्र चीजों के लिए बड़ी कीमत चुकाने को तैयार होते हैं लेकिन परमात्मा स्वरूप विराटता की प्राप्ति के लिए कोई कीमत चुकाने को तैयार नहीं है।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, परमात्मा कहां है? हम देखना चाहते हैं। मैं उनसे पूछता हूं, चुकाने की क्या तैयारी है? चुकाने के सम्बन्ध में वे कहते हैं, हमने सोचा ही नहीं, हमने विचार ही नहीं किया। हम तो परमात्मा को देखना चाहते हैं। मगर मूल्य क्या चुकाओगे? परम प्यारे को खोजने चले हो, जो भी तुम्हारे पास है, सब दे देना होगा। सर्वहारा हो जाओगे तो ही उसे पाओगे। ऐसी घड़ी जरूर आती है जब तुम्हारा रुदन तुम्हारे रोयें-रोयें से होता है तो उस तरफ भी आंसू टपकते हैं। वृक्ष रोते हैं और चांद-तारे रोते हैं। इस जगत में तुम्हारे भीतर उठे प्रश्नों के उत्तर छिपे हैं। यह जगत प्रतीक्षा कर रहा है कि तुम पुकारो तो उत्तर आये। यह जगत तुम्हारे प्रति उपेक्षा भरा हुआ नहीं है।
परमात्मा मानने का यह अर्थ नहीं होता है कि ऊपर कोई एक वृद्ध पुरुष बैठा है, जो सारे जगत को चला रहा है। वे तो बच्चों की कहानियां हैं। आस्तिक भी उनमें उलझे हैं, नास्तिक भी उनमें उलझे हैं। परमात्मा मानने का सार-अर्थ इतना ही होता है कि यह अस्तित्व हमारे प्रति उपेक्षा से भरा हुआ नहीं है। यह अस्तित्व हममें रस रखता है, इतना ही अर्थ है। यह अस्तित्व हममें उत्सुक है। यह हमारे विकास में उत्सुक है। यह हमारे चरम उत्कर्ष में उत्सुक है। यह हमें जीवन की परम आनंद की यात्रा पर ले जाना चाहता है। हमारे प्रति तटस्थ नही है- परमात्मा के मानने का इतना ही अर्थ है। अगर हम रोयेंगे तो कोई हाथ इस अस्तित्व से उठेगा हमारे आंसूओं को पोछने। मगर रोना आना चाहिए, झूठे आंसूओं से काम नहीं होगा। थोथे आंसूओं से काम नहीं होगा। नकली अभिनय के आंसू काम नहीं करेंगे।
चांद-तारे हिसाब रखते है। यह अस्तित्व तुम्हारे आंसूओं का हिसाब रखता है। तुम्हारे व्रत-उपवासों का नहीं, तुम्हारे पूजा-पाठों का नहीं, काशी और काबा की यात्रा का नहीं, लेकिन तुम्हारे आंसूओं का जरूर हिसाब रखता है। क्योंकि आंसू आत्मिक है। वहीं तुम्हारे जीवन का पुण्य है। सम्यक रूप से जिसे रोना आ गया उससे परमात्मा ज्यादा देर छिपा नहीं रह सकता। उसे पर्दा उठाना ही पड़ेगा।
इन दो छोटी आंखों से आकाश हराया जा सकता है। इन दो छोटी-सी आंखों के आंसू आकाश से होने वाली वर्षा को फीका कर सकते हैं। तुम्हारे इस हृदय में ऐसा सूरज छिपा है कि सारे सूरज फीके हो जाएं और तुम्हारे इस हृदय में प्रेम की एक ऐसी संभावना छिपी है कि परमात्मा अपने आप खिंचा चला आये। लेकिन तुम अपनी संभावनाओं को जगाओ, उकसाओ। तुम पत्थर की तरह पड़े हो। इस पत्थर से परमात्मा का मिलना नहीं हो सकता। तुम अति कठोर हो गये हो। तुम्हारे हृदय ने न मालूम कब से धड़कना बंद कर दिया है। तुम्हारे जीवन में कोई रहस्य नहीं है। तुम्हारा दर्पण इतनी धूल से जम गया है कि अब इसमें कोई प्रतिबिम्ब नहीं बनता। यह धूल झाड़ों, तुम्हारे आंसू जमी इस परम को बहा सकते हैं। और देखना, सस्ता मामला नही है। बाजी! दांव! खतरा है। क्योंकि जिस दिन तुम उसे देखोगे, उसके देखने में ही तुम मिट जाओंगे और मर जाओगे। तुम-तुम रहकर उसे न देख पाओगे। इसीलिए पागल ही उसे देख सकते हैं। क्योंकि अपने को मिटाने की हिम्मत समझदारों में नहीं होती, हिसाब-किताब लगाने वाले दुकानदारों में नहीं होती।
उसके पास जाने वाले को हजार तरह के भय पकड़ते हैं। सबसे बड़ा भय तो यही पकड़ता है कि मैं मिटा, मैं मिटा। बड़ा भय तो यह पकड़ता है। जैसे कोई दीया, मिट्टी का दीया, छोटी सी रोशनी वाला दीया सूरज से मिलने जाये तो सूरज के सामने एकदम फीका हो जायेगा, उसका कोई अस्तित्व नहीं होगा सूरज के सामने। किसी गांव में दो साधु रहते थे, वे दिन भर भीख मांगते और मंदिर में पूजा करते थे। एक दिन गांव में आंधी आ गयी और बहुत जोरों की बारिश होने लगी, दोनों साधु गांव की सीमा से लगी एक झोपड़ी में निवास करते थे, शाम को जब दोनों वापस पहुंचे तो देखा कि आंधी तूफान के कारण उनकी आधी झोपड़ी टूट गई है। यह देखकर पहला साधू क्रोधित हो उठता है और बुदबुदाने लगता है।
भगवान तू मेरे साथ हमेशा ही गलत करता है, मैं दिन भर तेरा नाम लेता हूं, मंदिर में तेरी पूजा करता हूं फिर भी तूने मेरी झोपड़ी तोड़ दी, गांव में लुटेरे झूठे लोगों के तो मकानों को कुछ नहीं हुआ, बिचारे हम साधुओं की झोपड़ी ही तूने तोड़ दी ये तेरा ही काम है, हम तेरा नाम जपते हैं पर तू हमसे प्रेम नहीं करता। तभी दूसरा साधू आता है और झोपड़ी को देखकर खुश हो जाता है, नाचने लगता है और कहता है भगवान आज विश्वास हो गया तू हमसे कितना प्रेम करता है। ये हमारी आधी झोपड़ी तूने ही बचाई होगी वर्ना इतनी तेज आंधी तूफान में तो पूरी झोपड़ी ही उड़ जाती, ये तेरी ही कृपा है कि अभी भी हमारे पास सर ढंकने को जगह है। निश्चित ही ये मेरी पूजा का फल है, कल से मैं तेरी और पूजा करूंगा, मेरा तुझ पर विश्वास अब और भी बढ़ गया है, तेरी जय हो।
एक ही घटना को एक ही जैसे दो लोगो ने कितने अलग-अलग ढंग से देखा, हमारी सोच हमारा भविष्य तय करती है। हमारी दुनिया तभी बदलेगी जब हमारी सोच बदलेगी। यदि हमारी सोच पहले वाले साधु की तरह होगी तो हमें हर चीज में कमी ही नजर आएगी और अगर दूसरे साधु की तरह होगी तो हमें हर चीज में अच्छाई दिखेगी, अतः हमें दूसरे साधु की तरह विकट परिस्थितियों में भी अपनी सोच सकारात्मक बनाये रखनी चाहिए।
एक पंडित जी कई वर्षों तक काशी में शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद गांव लौटे। पूरे गांव में प्रसिद्धि हुई कि काशी से शिक्षित होकर आये हैं और धर्म से जुड़े किसी भी पहेली को सुलझा सकते हैं। प्रसिद्धि सुनकर एक किसान उनके पास आया और उसने पूछ लिया, पंडित जी आप हमें यह बताइये कि पाप का गुरु कौन है? प्रश्न सुन कर पंडित जी चकरा गये, उन्होंने धर्म व आध्यात्मिक गुरु तो सुने थे, लेकिन पाप का भी गुरु होता है, यह उनकी समझ और ज्ञान के बाहर था।
पंडित जी को लगा कि उनका अध्ययन अभी अधूरा रह गया है। वह फिर काशी लौटे, अनेक गुरुओं से मिले लेकिन उन्हें किसी से सवाल का जबाव नहीं मिला। अचानक एक दिन उनकी मुलाकात एक गणिका (वेश्या) से हो गई। उसने पंडित जी से परेशानी का कारण पूछा तो उन्होंने अपनी समस्या बता दी।
गणिका बोली- पंडित जी! इसका उत्तर है तो बहुत सरल है, लेकिन उत्तर पाने के लिए आपको कुछ दिन मेरे पड़ोस में रहना होगा। पंडित जी इस ज्ञान के लिए ही तो भटक रहे थे। वह तुरन्त तैयार हो गए। गणिका ने अपने पास ही उनके रहने की अलग से व्यवस्था कर दी।
पंडित जी किसी के हाथ का बना खाना नहीं खाते थे। अपने नियम, आचार और धर्म परम्परा के कट्टर अनुयायी थे। गणिका के घर में रहकर अपने हाथ से खाना बनाते खाते कुछ दिन तो बड़े आराम से बीते लेकिन सवाल का जवाब अभी नहीं मिला। वह उत्तर की प्रतीक्षा में रहे। एक दिन गणिका बोली पंडित जी! आपको भोजन पकाने में बड़ी तकलीफ होती है। यहां देखने वाला तो और कोई है नहीं। आप कहें तो नहा-धोकर मैं आपके लिए भोजन तैयार कर दिया करुं। पंडित जी को राजी करने के लिए उसने लालच दिया, यदि आप मुझे सेवा का मौका दें, तो मैं दक्षिणा में पांच स्वर्ण मुद्राएं भी प्रतिदिन आपको दूंगी।
स्वर्ण मुद्रा का नाम सुनकर पंडित जी विचारने लगे। पका-पकाया भोजन और साथ में सोने के सिक्के भी अर्थात् दोनों हाथों में लड्डु हैं। पंडित जी ने अपना नियम व्रत, आचार, विचार, धर्म सब कुछ भूल गए। उन्होंने कहा तुम्हारी जैसी इच्छा बस विशेष ध्यान रखना कि मेरे कमरे में आते-जाते तुम्हें कोई नहीं देखे। पहले ही दिन कई प्रकार के पकवान बनाकर उसने पंडित जी के सामने परोस दिया। पर ज्यों ही पंडित जी ने खाना चाहा, उसने सामने से परोसी हुई थाली खींच ली। इस पर पंडित जी क्रुद्ध हो गए और बोले यह क्या मजाक है। गणिका ने कहा यह मजाक नहीं है, पंडित जी यह तो आपके प्रश्न का उत्तर है। यहां आने से पहले आप भोजन तो दूर किसी के हाथ का पानी भी नहीं पीते थे, मगर स्वर्ण मुद्राओं के लोभ में आपने मेरे हाथ का बना खाना भी स्वीकार कर लिया। यह लोभ ही पाप का गुरु है।
इस लोभ ने ही जीवन को विषमताओं से युक्त किया है। इसी कारण व्यक्ति अपने जीवन में अनेक-अनेक प्रकार के दुखों का भोगी बनता है। संसार में मनुष्य अनेक पाप कर्म इसी लोभ के कारण ही करता है। यदि जीवन से लोभ चला, मन में लालच का भाव ना हो तो, व्यक्ति किसी भी तरह की पाप युक्त क्रियायें ही नहीं करेगा। इस लोभ के कारण ही मनुष्य में छल, झूठ, प्रपंच, कपट, ईर्ष्या का भाव जाग्रत होता है अर्थात् मनुष्य जीवन की सभी विषमताओं के मूल में व्यक्ति का अपना स्वयं का लोभ होता है। सदा वह दूसरों से श्रेष्ठ व सम्पन्न, सुखी बनने की होड़ में रहता है। यह भाव ही अहंकार और ईर्ष्या का कारण है।
यदि व्यक्ति स्वयं का आकलन कर जो उसे ईश्वर ने दिया है, उसी में संतुष्ट और प्रसन्न रहना सीख लें तो उसके जीवन की अधिकांश समस्यायें समाप्त हो जायें। परन्तु आज के युग में ऐसा बिरला ही कोई व्यक्ति हो जो ऐसे भावों से युक्त जीवन व्यतीत करना चाहता हो। इसी कारण व्यक्ति लोभ के चक्कर में अर्नगल क्रियाओं में लिप्त हो जाता है। जिसका दुष्परिणाम उसे स्वयं ही भोगना पड़ता है और उस दुष्परिणाम को भोगते समय वह ईश्वर, गुरु पर रुष्ट होता है कि मुझे कैसा दुःख आपने दिया। परन्तु वह अपने स्वयं के कर्म की ओर नही देखता है।
परम पूज्य सद्गुरूदेव
कैलाश चन्द्र श्रीमाली
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