सद्गुरु की इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को अगर एक शब्द में कहें तो वह है अप्रमाद (अवेयरनेस) अर्थात् जागकर जीना, जब व्यक्ति को अपने अस्तित्व का भान हो जाये। अभी तक की यात्रा में स्वयं से ही अनभिज्ञ है व्यक्ति, स्वयं से ही परिचय नहीं है उसका, निकटतम तक ही नहीं पहुंच पाया है वह और इस निकटतम तक पहुंचाना ही सद्गुरु का ध्येय है तभी दूरतम तक की मंजिल तय हो सकती है क्योंकि दूर भी निकट का ही प्रसारण है।
पर मानव अपनी निन्द्रा को सहेज कर रखे हुये है, प्रमाद जाल में जकड़ा हुआ है, जो प्रतिपल उसे मृत्यु की ओर अग्रसर कर रहा है और सद्गुरु ले चलता है, उसे मुक्ति के पथ पर, अमृत की राह पर क्योंकि जागते ही शिष्य को ज्ञान हो जाता है, उस अमृत कुण्ड का जो भीतर ही प्रसुप्त है जो मिट नहीं सकता, एक ऐसी सम्पदा का जो छीनी नहीं जा सकती। जो शाश्वत है, समयातीत है।
अतः यह स्पष्ट है कि गुरु कोई शरीर या नाम नहीं, किसी व्यक्तित्व या चमक-दमक युक्त आश्रम के अधिष्ठाता को भी गुरु नहीं कहते, प्रवचन करने वाले या शिष्यों की सेना से युक्त संन्यासी को भी गुरु नाम से सम्बोधित नहीं किया जाता। जो कुछ भी वास्तविक ज्ञान है वह गुरु है, इसीलिए गुरु को तत्व कहा गया है, जो समस्त ब्रह्माण्ड में फैला हुआ है। यह अलग तथ्य है कि यह ज्ञान किसी शरीर में भी विद्यमान रह सकता है और इसीलिए वह शरीर भी पवित्र और पूज्य बन जाता है फिर ऐसे उच्चकोटि के ज्ञान को धारण करने वाले व्यक्तित्व को गुरु कह सकते हैं।
और यह भी सत्य है कि जहां भी परम सत्य को पाने की पीड़ा और अभीप्सा है, वहां अस्तित्व किसी न किसी के माध्यम से उपस्थित हो ही जाता है, यही अस्तित्व सद्गुरु होता है, जिसके पास बैठते-बैठते, जिसके रस में निमग्न होते- होते सत्य भाव, आनन्द भाव उपज ही जाता है। शास्त्रों में गुरु को मृत्यु भी कहा गया है क्योंकि वह शिष्य की त्वरित मृत्यु का कारण बनता है, नष्ट करता है उसके अब तक के संचित अनर्गल कर्मों की झूठी सम्पदा को, संस्कारों को। शिष्य के पाखण्ड, उसकी सन्देहशीलता, उसकी न्यूनता, उसका ओछापन और उसकी निर्लज्जता को मृत्यु देता है। वह मृत्यु देता है कि शिष्य के चित्त पर, हृदय पर जो कुछ स्याह है, कालापन है वह समाप्त हो जाये, जो कुछ व्यर्थ है, निस्सार है, वह मर जायें तब फिर वह नये सिरे से निर्माण करें, वह सामान्य मनुष्य की जो निरन्तर सड़े-गले विचारों, जीवन की कुस्थितियों व निरन्तर परिवार की मलिन स्थितियों में निमग्न रहता है, ऐसी आस्था को ही बदल देना चाहता है। ताकि श्रेष्ठतम गुरुमय स्वरूप शिष्यत्व का निर्माण हो सके, देवदूत की तरह, अद्वितीय मानव की तरह, दुर्लभ शिष्य की तरह।
और यह मृत्यु ही महाजीवन का प्रारम्भ होता है। शिष्य मिटा नहीं कि उसके भीतर का देव तत्व दृष्टव्य हो जाता है। बड़ा विचित्र खेल है, यह ठीक वैसे ही जैसे बीज का माटी में खोकर अंकुरित होना। खोना जरूरी है, मिटना अनिवार्य है। जब तक शिष्य बीज के आवरण को ही अपना प्राण समझता है, उसे खोने से डरता है तभी तक वह अन्धकार मे डूबा है। गुरु उसे स्पष्ट करता है कि यह तो मात्र आवरण है, प्राण तो इसके भीतर है आवरण हटेगा तभी प्राणों का अंकुरण होगा, तभी वृक्ष का जन्म होगा, तभी करोड़ों बीजों का अस्तित्व होगा।
पर स्वप्नों से निकलना इतना सुगम नहीं। बड़ी मीठी नींद है यह। कोई सम्राट बना बैठा है, कोई स्वर्ग की सैर कर रहा है तो कोई स्वर्ण महल में विश्राम कर रहा है, ऐसे ही भविष्य के सपनों में खोया रहता है और अगर कोई इस नींद से जगाता है तो बड़ी व्याकुलता होती है उसे, जब कोई इस नकली घेरे से बाहर निकालने की क्रिया करता है तो पीड़ा होती है क्योंकि वह उसी मृग-मरीचिका में प्रसन्न है। पर सद्गुरु से नजर मिलते ही एक-एक कर सब लुटने लगता है, वे अपने शिष्य की सभी मिथ्या आशायें, संतोष, सांत्वना, आस्था और मान्यतायें सब छीन लेते हैं और जैसे-जैसे खोखली सम्पदा छिनेगी शिष्य घबरायेगा, अन्धकार उसे घना होता प्रतीत होगा और सारी बैसाखियां हटते ही वह एकदम से गिर जायेगा, पर यह गिरना ही उसके अपने पैरों पर खड़े होने की प्रथम शुरुआत होगी।
प्रत्येक के जीवन में ऐसी क्रांति घटित नहीं होती यह कोई आवश्यक नहीं कि सद्गुरु मिल ही जाये, जो ठोकर मार कर जगा दें, सत्य की प्रतीति करवा दें, ऐसा क्षण जो हजारों वर्ष बाद ही आता है जब सद्गुरु स्वयं आकर साकार रूप में उपस्थित हो शिष्य को पुकारता है, झकझोरता है, उसके जीवन को संवारने का प्रयत्न करता है, जो जीवन में बेसुध ही रहेंगे, पूरी जिन्दगी उनके हाथ से निकल जायेगी और एक बार पुनः ये सब बुद्धत्व से, पूर्णत्व से वंचित रह जायेंगे। प्रत्येक पूर्णिमा के पहले अमावस्या तो आयेगी ही, गहन रात्रि के बाद ही प्रभात का सूर्य उदय होगा।
यदि कोई है तो उसे हम समझ नहीं रहें है, जब हम कुछ समझने लगेंगे तब तक बहुत समय बीत गया होगा। इस तरह हम अनेक बार धोखा खा चुके हैं क्योंकि जो महान गुरु आये, उसे हम पहले ही नहीं पहचान पाये, क्योंकि हमारे समझने की पद्धति ही गलत थी, हमारे इतिहास साक्षी है और हमेशा यह हमारी परम्परा रही है कि गुरु सेवा द्वारा ही समझा गया है, सेवा के द्वारा ही पाया गया है। कृष्ण को भी उस दिव्य ज्ञान की उपलब्धि के लिए सांदीपन आश्रम में गुरु के पास जाकर उतनी ही सेवा करनी पड़ी। जो उस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए उपयुक्त थी और सेवा के द्वारा कृष्ण महान बन पाये। इसलिए आप सौभाग्यशाली है, आप के पास अद्वितीय चेतना युक्त, दिव्यतम गुरु विद्यमान हैं।
ऐसा ही महान-महान महोत्सव अपने आपको सांसारिक जीवन में सर्व बोधितत्वा की चेतना से युक्त होने का पूर्ण रूपेण सुअवसर है- गुरु पूर्णिमा महोत्सव अर्थात् दैहिक, दैविक, भौतिक-आध्यात्मिक स्वरूप में जो भी अधूरापन है, उसे समाप्त कर अपने आपको कर्मेन्द्रियों-ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से पूर्ण-पूर्ण करना है।
छत्तीसगढ़ की देव शक्तियों युक्त पावन भूमि पर वर्ष के महानतम गुरु पूर्णिमा महोत्सव में जीवन की अनेक-अनेक न्यूनताओं को समाप्त करने के लिए सर्व दुःख भंजन साधना, दीक्षा के माध्यम से निश्चिन्त रूप से सांसारिक जीवन में सद्गुरु कृपा व आत्मीयता से सुस्थितियों में वृद्धि हो सकेगी और इसी के फलस्वरूप गृहस्थ जीवन अष्ट सिद्धि व नवनिधि युक्त निर्मित हो सकेगा। साथ ही सांसारिक जीवन में होने वाली सुभाव स्वरूप कर्म रूपी क्रियाओं में सिद्धि प्राप्ति हो सकेगी।
इस त्रिभुवन में गुरु की उपमा देने लायक कोई दृष्टान्त नहीं है, गुरु को पारस की उपमा नहीं दी जा सकती, क्योंकि पारस तो मात्र सोना ही बनाता है, उस वस्तु को पारस नहीं बना सकता, परन्तु सद्गुरु तो अपने शिष्य को स्वयं के समान ही बना लेता है
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