देवर्षि नारद ब्रह्मा जी के मानस पुत्र और भगवान के भक्तों में सर्वश्रेष्ठ हैं। ये भगवान की भक्ति और महत्व के विस्तार के लिये अपनी वीणा की मधुर तान पर भगवान नारायण का गुणगान करते हुये निरन्तर विचरण करते रहते हैं। इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इनके द्वारा प्रणीत भक्ति सूत्र में भक्ति की बड़ी ही सुन्दर व्याख्या की गयी है। मंत्र स्वरूप गायन से देव शक्तियों को अपने भीतर समाहित किया जा सकता है और इसके प्रभाव से निश्चिन्त रूप से असुर शक्तियों का संहार होता ही है।
नारद प्रत्यक्ष रूप से भक्तों की सहायता करते रहते हैं। भक्त प्रहलाद, अम्बरीष, ध्रुव आदि भक्तों को उपदेश देकर इन्होंने ही भक्ति मार्ग में प्रवृत्त किया। इनकी समस्त लोकों में अबाधित गति है। इनका मंगलमय जीवन संसार के मंगल के लिये ही है। ये ज्ञान के स्वरूप, विद्या के भण्डार, आनन्द के सागर तथा सभी के अकारण प्रेमी और संसार के सहज हितकारी हैं।
देवर्षि नारद व्यास, वाल्मीकि तथा महाज्ञानी शुकदेव के गुरु भी रहें हैं। श्रीमद् भागवत तथा वाल्मीकि रामायण जैसे दुर्लभ ग्रन्थ देवर्षि नारद की सहायता व कृपा से ही हमें प्राप्त हो सके हैं। साथ ही आदि काल से बद्रीनाथ धाम के मुख्य पुरोहित के रूप आज भी प्रथम पूजन देवर्षि नारद द्वारा ही सम्पन्न किया जाता है। माना जाता है कि सूक्ष्म रूप से आज भी देवर्षि नारद बद्रीनाथ धाम में आकर भगवान बद्री का पूजन कर भोग लगाते हैं। इसके पश्चात् ही अन्य क्रियायें पूर्ण की जाती हैं। ऋषियों ने देवर्षि नारद की महिमा का गुणगान कुछ इस प्रकार किया है-
देवर्षि नारद आप धन्य हैं, क्योंकि आप भगवान् की कीर्ति अपनी वीणा पर गा-गाकर स्वयं तो आनन्दमग्न होते ही हैं, साथ ही इस जगत् को भी आनन्दित करते हैं। महाभारत में वर्णन है कि- देवर्षि नारद वेद और उपनिषदों के मर्मज्ञ व देवताओं के पूज्य है। पुराणों के विशेषज्ञ, न्याय एवं धर्म के तत्वज्ञ, शिक्षा, व्याकरण, आयुर्वेद, ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान, संगीतज्ञ, प्रभावशाली वक्ता, मेधावी, नीतिज्ञ, कवि, महापण्डित, बृहस्पति जैसे महाविद्वानों के संशय का समाधान करने वाले, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के यथार्थ ज्ञाता। योगबल द्वारा पूर्व कल्प (अतीत) व सभी लोकों का समाचार दूर श्रवण शक्ति से जान सकने में समर्थ, सदाचारी और परम तेजस्वी हैं।
ऐसे परम पूज्यनीय देव ऋषि के अवतरण दिवस पर उनकी उपासना, साधना के माध्यम से साधक भी अपने भीतर देवमय चेतना जाग्रत करने की अभिलाषा पूर्ण करने में सफल होता है। वास्तव में मनुष्य जीवन का परम उद्देश्य नर से नारायण की यात्र ही होती है, जो ऐसे देवमय ऋषियों की चेतना, शक्ति उनके अवतरण दिवस पर आत्मसात करने से निश्चित रूप से पूर्णता का भाव-चिंतन विद्यमान होता है।
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