दैत्यवीर घबराकर भागने लगे। तब शम्बरासुर ने वेद्युतास्त्र प्रयोग किया। प्रद्युम्न ने आनर्तपर्व द्वारा उसका बाण निष्फल कर दिया। शम्बरासुर ने उन पर वृक्षों की वर्षा शुरु कर दी। प्रद्युम्न आग्नेय बाणों के द्वारा वृक्षों को निथिषपात्र में भंग करने लगे। तब शम्बरासुर ने शिला वर्षा शुरु कर दी। प्रद्युम्न ने वायु क्षण चलाकर शिलाएं हवा में उड़ा दीं। माया प्रयोग से शम्बरासुर ने प्रद्युम्न पर हाथी, घोड़े, शेर, गधे, बानर, रीछ आदि जीव-जन्तु फेंकने शुरु कर दिये। प्रद्युम्न ने गंधर्वास्त्र चलाकर उसकी माया नष्ट कर दी।
तब शम्बरासुर ने भगवान शंकर से प्राप्त पल्लवी माया का प्रयोग किया। यह माया शत्रु का विनाश करने वाली थी। इसका प्रयोग करते ही हजारों विषधर प्रद्युम्न पर आक्रमण करने लगे। इससे पहले कि वे अपने विषदन्तों का प्रहार कर सकें, प्रद्युम्न ने सावर्णी माया का प्रयोग कर असंख्य गरूड़ उत्पन्न कर दिये। वे तमाम सर्पों को अपनी नुकीली चोचों में फंसाकर तत्काल आकाश मार्गी हो गए। शम्बरासुर घबरा गया।
शम्बरासुर की तपस्या पर प्रसन्न होकर भगवती पार्वती ने उसे स्वर्ग मंडित मुगदर प्रदान किया। वह मुगदर देव-दानव सभी को मारने में समर्थ था। इसी मुगदर द्वारा मां भगवती ने शुम्भ-निशुम्भ का संहार किया था। तब शम्बरासुर ने महाअचूक मुगदर कर प्रयोग करना चाहा, वह इसी उद्यम में लग गया। उसका मनोभाव जानकर भगवान विष्णु घबरा गए, उन्होंने नारद मुनि को अभेद्य कवच व वैष्णवास्त्र प्रद्युम्न को दे आने को कहा अन्यथा प्रद्युम्न की मृत्यु निश्चित थी।
नारद मुनि ने युद्ध में लगे प्रद्युम्न को शीघ्र ही वह कवच धारण कर वैष्णावस्त्र का प्रयोग कर द्वारिका जाने को कहा। नारद मुनि ने कहा कि अब शम्बरासुर माँ भगवती द्वारा दिया मुगदर प्रहार करने वाला है। उससे कोई आपकी रक्षा नहीं कर सकता। किसी में सामर्थ्य नहीं है। अतएव द्वारिका जाकर माँ भगवती की स्तुति कर उनसे रक्षा की प्रार्थना करिये। कवच और वैष्णवास्त्र इन्द्र द्वारा आपकी रक्षा के लिए प्रदत्त है।
प्रकाश वेग से प्रद्युम्न द्वारिका आए व माँ भगवती की स्तुति इस प्रकार करने लगे- हे भगवती, हे कात्यायनी, हे कार्तिकेय जननी आपकी माया को नमस्कार है। गौरी शिवबल्लभमयी मातेश्वरी आप शत्रुओं का नाश करने वाली, शुम्भ-निशुम्भ मर्दन करने वाली हैं, आपको मेरा नमस्कार है।
हे कालरात्रि! आपको मेरा नमस्कार है। आप ही कौमारी एवं औतारवासिनी हैं। मैं आपको हे माता, करबद्ध प्रणाम करता हूं। हे मातेश्वरी! आप विन्ध्य पर्वत पर निवास करती हैं। आप दैत्यों के दुर्गो को तोड़ने वाली, रण दुर्गा एवं रणप्रिया हैं। आप ही जया और विजया हैं।
हे महादेवी! आपको मेरा बारम्बार नमस्कार है। आप कभी पराजित न होने वाली अजिता तथा शत्रुओं का विनाश करने वाली हैं। आप ही महिषासुर को मारने वाली त्रिशूलिनी हैं। आप ही सिंहसाहिनी और सिंहध्वजा वाली हैं। आपको मेरा नमस्कार है। आप यज्ञों द्वारा सत्कृत गायत्री रूपिणी ब्राह्मणों की सावित्री को मेरा नमस्कार है। आप आकाशिनी को हाथ जोड़कर नमस्कार है। हे देवी! युद्धभूमि में मेरी रक्षा करती हुई आप मुझे विजय प्रदान करें।
शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए यह कवच सर्वोत्कृष्ट है। बहुत अधिक लम्बे समय शत्रु भाव की क्रियाओं से पीडि़त हैं, अथवा कार्य-व्यापार को बांधा हुआ हो तो पांच शुक्रवार तक इस कवचम् का हिन्दी या संस्कृत में पाठ करने से शत्रुओं का शमन होता है व चैतन्य मुगदर कवच लॅाकेट को धारण करने से प्रत्येक कार्य में सुस्थितियां निर्मित होती हैं। साथ ही भविष्य में भी आपको शत्रु किसी भी प्रकार की हानि नहीं पहुंचा पायेंगे, जिस प्रकार शम्बरासुर के अस्त्रों के वार को इस कवच ने निष्क्रिय कर दिया। इस चैतन्य कवच को आप किसी भी शुक्रवार को प्रातः उठकर पीले वस्त्र धारण कर व इस कवच का 11 बार उच्चारण करें अर्थात् केवल पांच शुक्रवार उक्त क्रिया करने से निश्चिन्त रूप से सर्व शक्तियों से साधक युक्त होता ही है।
ऊँ नमः कात्यायन्यै गिरीशायै नमो नमः
नमः त्रैलोक्यमायायै कात्यायन्यै नमो नमः।
नमः शत्रुविनाशिन्यै नमो गौर्यै शिवप्रिये।
नमस्तयै शुम्भमयनीं निशुम्भमथनीमपि।।
कालरात्रि नमस्तुभ्यं कौमार्य च नमो नमः।
कान्तारवासिनी देवीं नमस्यामि कृतान्जलिः।
विन्ध्यवासिनी दुर्गेभ्यो रणदुर्गा रणप्रियाम।
तमस्यामि महादेवी जयां च विजयां तथा।।
अपराजितां नमस्येउहमजितां शत्रु नाशिनीम्।
घण्टाहस्तां तमस्यामि घण्टमावाकुलां तथा।।
त्रिशूलिनीं नमस्यामि महिषासुरघूतिनीम।
सिंहावना नमस्यामि सिंहप्रवरकेतनाम्।।
आकाशिनी नमस्यामि गायत्रीं यज्ञसत्कृताम्।
सावित्रीं चापि विप्राहणां नमस्येऽकृतान्जलिः।
रक्षा मां देवी सततं संग्रामे विजयं कुरु।।
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