जो निरंतर गुरु का ध्यान करता है, वह शिष्य ब्रह्ममय बनता ही है, इसमें कोई सन्देह नहीं है।
गुरु के ध्यान से बढ़कर कोई ध्यान नहीं है, गुरु को हृदय में स्थापित करने से बढ़कर कोई चिंतन नहीं है।
गुरु सेवा से बढ़कर अन्य कोई कार्य पुण्यदायक हो ही नहीं सकता, अतः अपने आप को गुरु चरणों में निमग्न कर देना ही शिष्य के जीवन की पूर्णता है।
जो शिष्य अपने जीवन में नित्य गुरु प्रदत्त मंत्र का स्मरण करता है वह जीवन में पूर्णता प्राप्त करता ही है।
गुरु मंत्र कामधेनु के समान है, क्योंकि यह समस्त कामनाओं की पूर्ति करने में समर्थ है।
गुरु मंत्र कल्पवृक्ष के समान है, जो भी मन की इच्छा की जाय, वह गुरु मंत्र के प्रभाव से अपने आप पूर्ण हो जाती है।
साधक का हृदय ही गुरु की बैठक है।
गुरु की कृपा प्राप्ति के लिये शिष्य को बारम्बार हाथ जोड़कर प्रार्थना करते रहना चाहिये।
गुरु के अनुग्रह मात्र से शिष्य इसी जीवन में जन्म मृत्यु के आवागमन से मुक्त हो जाता है।
सद्गुरु के चरण कमल जहां पडे़ उस दिशा को भी प्रति दिन नमन करना चाहिये क्योंकि गुरु एक सर्वव्यापी सूक्ष्म सत्ता है और इसी रूप में सर्वत्र व्याप्त है।
गुरु कृपा बिना कोई साधक कभी कृत कार्य नहीं हुआ।
दीक्षा वह अमृत वर्षा है जो पूरे शरीर को अमृतमय बना देती है। दीक्षा के द्वारा गुरु शिष्य के तार मिल जाते हैं। दीक्षा कुण्डलिनी को आज्ञा चक्र तक पहुंचाने की क्रिया हैं, सहस्रार तक पहुंचने की प्रक्रिया है।
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