एक पंडित प्रतिदिन रानी के पास कथा करता और कथा के अंत में सबको कहता कि राम कहे तो बंधन छूटे। तभी पिंजरे में बंद तोता बोलता है, यूं मत कहो रे पंडित झूठे। पंडित को क्रोध आता कि ये सब क्या सोचेंगे, रानी क्या सोचेगी। पंडित एक दिन अपने गुरु के पास गया, गुरु को सब हाल बताया, गुरु तोते के पास गया और तोते से पूछा तुम ऐसा क्यों कहते हो? तोते ने कहा- मैं पहले खुले आकाश में उड़ता था। एक बार मैं एक आश्रम में जहां सब साधु-संत राम-राम बोल रहे थे, वहां बैठा तो मैंने भी राम-राम बोलना शुरु कर दिया। एक दिन मैं उसी आश्रम में राम-राम बोल रहा था, तभी एक संत ने मुझे पकड़ कर पिंजरे में बंद कर दिया, फिर मुझे एक-दो श्लोक सिखाये। कुछ दिन बाद आश्रम में एक सेठ ने मुझे संत को कुछ पैसे देकर खरीद लिया। अब सेठ ने मुझे चांदी के पिंजरे में रखा, मेरा बंधन बढ़ता गया, निकलने की कोई संभावना न रही। एक दिन उस सेठ ने राजा से अपना काम निकलवाने के लिए मुझे राजा को उपहार कर दिया, राजा ने खुशी-खुशी मुझे ले लिया, क्योंकि मैं राम-राम बोलता था। रानी धार्मिक प्रवृत्ति की थी तो राजा ने रानी को दे दिया, अब मैं कैसे कहूं कि राम-राम कहने से बंधन छूटता है।
तोते ने गुरु से कहा आप ही कोई युक्ति बतायें, जिससे मेरा बंधन छूटे। गुरु बोले- आज तुम चुप-चाप सो जाओ, हिलना भी नहीं, रानी समझेगी मर गया और छोड़ देगी। ऐसा ही हुआ, दूसरे दिन कथा के बाद जब तोता नहीं बोला, तब रानी ने सोचा तोता तो गुम-सुम पड़ा है, शायद मर गया। रानी ने पिंजरा खोल दिया, तभी तोता पिंजरे से निकलकर आकाश में उड़ते हुए बोलने लगा सद्गुरु मिले तो बंधन छूटे। इसलिए कोई कितना भी शास्त्र पढ़ ले, कितना भी मंत्र जाप कर ले, लेकिन चैतन्य सद्गुरु के बिना कर्म का बंधन नहीं छूटता। क्योंकि सद्गुरु निराकार ईश्वर के साकार स्वरूप है, परमात्मा पिता के समान कठोर हो सकता है परन्तु सद्गुरु का माँ के समान कोमल हृदय होता है, वे शिष्य के विकारों, अशुद्धियों को दूर कर उसे पावन स्वरूप देते हैं और परम तत्व प्राप्ति के योग्य बनाते है।
सद्गुरु के चरण कमलों में पूर्ण श्रद्धा व समर्पण का भाव ही साधक, शिष्य की सम्पत्ति है, उसे मन, वचन, कर्म से ऐसी चेष्टा नहीं करनी चाहिए कि सद्गुरु उस पर रूष्ट हों, क्योंकि जीवन में सद्गुरु की रूष्टता से बढ़कर कोई दुर्भाग्य नहीं हो सकता है और सद्गुरु की प्रसन्नता से बढ़कर कोई अहोभाग्य नहीं हो सकता है। जिस शिष्य-साधक पर सद्गुरु प्रसन्न हों, उसे वे हर क्षण संभालते है, उसके डगमगाते कदमों में सही गति प्रदान करते हैं, माया के प्रभाव में आकर जब-जब साधक का मन भ्रमित होता है, तब-तब सद्गुरु उसका हाथ थाम कर उसे सदमार्ग दिखाते हैं। किन्तु जो साधक अपने मन-वचन-कर्म से सद्गुरु को रुष्ट कर देता है, माया का आकर्षण उसे भटकाता रहता है तथा माया की शक्ति उस पर हावी हो जाती है, तब वह पतन की ओर अग्रसर हो जाता है और वह जीवन में अत्यंत कष्ट भोगता है।
साधक यदि माया की शक्ति का सामना कर सकता है तो वह केवल सद्गुरु की कृपा से उनकी शक्ति के बल पर कर सकता है और कोई उपाय नही हैं, किन्तु जिसने जीवन में सद्गुरु की कृपा, उनकी प्रसन्नता नहीं कमाई, उसके लिए माया के बहाव में बह जाना बहुत सरल और सहज है, वह जीव अनेक-अनेक योनियों में भटकता हुआ नरक समान जीवन व्यतीत करता है। जिस प्रकार एक व्यापारी धन कमाकर प्रसन्न होता है, उसके जीवन भर की कमाई उसकी सम्पत्ति, उसका संग्रहित धन होता है और उसी धन में उसके प्राण बसे रहते हैं। सम्पत्ति खो जाये तो वह निर्धन हो जाता है, तो वह महसूस करता है कि जीवन प्राणहीन हो गया है। उसी प्रकार अध्यात्म में प्रगति के इच्छुक साधक की कमाई है, सद्गुरु की प्रसन्नता, उनका प्रेम, उनकी कृपा, जो साधक, जो शिष्य साधना, सेवा, समर्पण, प्रेम, पवित्रता व निर्मलता से सद्गुरु की कृपा कमा लेता है। वही जीवन में सबसे बड़ा बलवान है। भौतिक सम्पदा का अभाव नहीं रहता, सद्गुरु की प्रसन्नता से ही उसके जीवन में निरन्तर सुखों की वृद्धि होती रहती है, जो जन्म-जन्मान्तरो तक उसका साथ देती है कहा जाता है कि जीवन में उम्र के साथ बदलाव होता रहता है, परन्तु एक अच्छा इंसान कई-कई जन्मों तक उच्चतम पद पर बना रहता है और यही एक ऐसा धन है जो शिष्य, साधक अपने साथ ले जा सकते हैं, बाकी सारी कमाई तो धरी की धरी रह जायेगी।
किन्तु याद रहें सद्गुरु को प्रसन्न करना सरल नहीं है, जब तक मन में छल-कपट है, प्रपंच है, विकार है, अपवित्रता, ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार, क्रोध, स्वार्थ, लोभ है तो सद्गुरु साधक से कोसो दूर हैं। यदि भीतर के मन को पवित्र करने की प्यास है, सच्ची लग्न है, विकारों से मुक्ति की इच्छा है, साधना में प्रगति की इच्छा है तथा उसके मन, वचन, कर्म में वह प्यास प्रकट होता है तो सद्गुरु उसे दिशा-निर्देशन देते हैं, उसका मार्गदर्शन करते हैं।
साथ ही सद्गुरु की आज्ञा में रहकर उनके हर छोटे से छोटे आदेश का पालन करना सरल नहीं है क्योंकि मन का अहंकार साधक को भ्रमित करता है, इसका एकमात्र उपाय है, सद्गुरु के चरणों में समर्पण और जब इस निष्ठा, श्रद्धा एवं विश्वास में शिष्य के नेत्र मूंद जाते हैं तो उसके समक्ष दिव्य मार्ग खुल जाता है, दिव्य द्वार खुल जाता है तथा वह परम दिव्य ज्योति भीतर प्रकट हो उठती है।
इसलिये जब भी गुरु के दर पर जाये, तो प्रार्थना करें- कहे गुरुवर! आपके चरण कमलों में यह जीव आपकी कृपा, प्रसन्नता के लिए नैन बिछायें खड़ा है। हे दयानिधि! आपकी करुणा की प्राप्ति कर सकूं, इस योग्य मुझे बना दो, उनकी कृपा व प्रसन्नता से सांसारिक सुख स्वतः ही प्राप्त हो जायेंगे—–यही परम कल्याण का मार्ग है—-!!!!
सद्गुरु की प्रसन्नता ही एक मात्र ऐसा धन है जिसे शिष्य, साधक अपने साथ ले जा सकते हैं और यही अर्जित सम्पत्ति ही जन्म-जन्मातर तक शिष्य, साधक का साथ निभाती है और परम तत्व की प्राप्ति में सहायक होती है, इसलिये मन-कर्म-वचन से निरन्तर सद्गुरु को प्रसन्न करने का प्रयास करें।
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