दिवा प्रकाशकः सूर्यः शशी रात्रौ प्रकाश की।
गृह प्रकाशः को दीपस्तमोनाशकरः सदा।
रात्रौ दिवा गृहस्यान्ते गुरु शिष्यं सदैव हि।
अज्ञानाख्यं तमस्तस्य सर्व प्रणाश्येत।।
तस्माद् गुरु परं तीर्थ शिष्याणामवनीपते।।
अर्थात् सूर्य सम्पूर्ण सृष्टि को प्रकाशित करता है, चन्द्रमा रात्रि में सूर्य की चेतना से प्रकाशवान होता है और दीपक घर में उजाला करता है तथा घर के अधंकार का नाश करता है, परन्तु गुरु अपने शिष्य के हृदय में रात-दिन प्रत्येक क्षण सदा ही प्रकाश फैलाते रहते हैं। वे शिष्य के सम्पूर्ण अज्ञानमय अन्धकार का नाश कर देते हैं। अतः शिष्य के लिये गुरु सानिध्य में ही दिव्यतम साधनायें, पूजा, मंत्र जाप, यज्ञ, दीक्षा तीर्थ स्थान पर करने से साधक के जीवन में सूर्य के समान तेजिस्वता आती ही है।
शिष्य की शिष्यता, भव्यता व दिव्यता गुरुत्व रूपी मूल भाव से परिभाषित होता है। गुरुदेव का सानिध्य श्रेष्ठ काल, मुहुर्त में ग्रहण करने से शिष्य का अहं भाव, विकार और उसके कर्म दोषों का पूर्णतः निदान निश्चित रूप से प्राप्त होता है। शास्त्रों में कहा गया है कि, इस तरह की दिव्यता का भाव तीर्थ धामों में गुरु सानिध्य में साधना, पूजा, दीक्षा, ज्ञान ग्रहण करने का अवसर मिले तो यह शिष्य का अहोभाग्य, वे शिष्य परम सौभाग्यशाली है, जिसे यह अवसर सुसंस्कारों स्वरूप प्राप्त होता है।
कैलाश सिद्धाश्रम साधक परिवार से जीवट रूप में जुड़े साधकों को ऐसा ही परम सौभाग्य प्राप्त हो रहा है। जब साधक परम पूज्य सद्गुरुदेव निखिलेश्वरानन्द जी के दिव्य आशीर्वाद् से सांसारिक मनुष्यों के पापों के क्षय के लिए सर्वोत्कृष्ट गंगा के उद्गम स्थल गंगोत्री व विष्णु लक्ष्मी की ज्योतिर्मंय देवभूमि बद्रीनाथ धाम में सिद्धाश्रम संस्पर्शित पूजन, हवन, उच्चकोटि की साधनायें व दीक्षाओं से पातालवासिनी लक्ष्मीमय व अहम् ब्रह्मास्मि युक्त समर्पित शिष्यों का जीवन निर्मित हो सकेगा।
पातालवासिनी लक्ष्मी एकमात्र ऐसी देवी है, जिसकी पूजा बौद्ध, जैन और हिन्दू तीनों धर्मो में की जाती है। लक्ष्मी का सबसे पहला उल्लेख ऋग्वेद के श्री सूक्त में हुआ है। श्री सूक्त में उन्हें श्री सम्बोधित किया गया है। यजमान इन श्लोकों द्वारा उनका आहवान करते हैं, ताकि उनकें घर में धन, धान्य, सम्पत्ति और संतान सुख की वृद्धि हो सके। लक्ष्मी की प्रतिमा में कलश और कमल के फूलो के साथ दर्शाया गया है। पुराणों में उल्लिखित है कि किसी महान आत्मा के जन्म के पहले लक्ष्मी उस महापुरुष की माता के सपने में आती है। सभी परम्पराओं में लक्ष्मी को मांगल्य और शुभ कार्यों से जोड़ा गया है।
आध्यात्मिक भाव-चिंतन के संस्कार होने के फल स्वरूप हम लक्ष्मी को महत्व देते आए हैं। इसका अर्थ है कि हम अध्यात्म को धन, धान्य और सम्पत्ति से अलग नहीं समझते। सनातन धर्म में अध्यात्म और व्यावहारिकता में अलगाव नहीं दिखाई देता। हम लक्ष्मी को देवी मानते हैं। इसलिए आज भी यदि किसी का पैर जाने-अनजाने पैसे को छू जाता है तो वह क्षमा मांगते हैं। हमें पैसों में, सोने में देवी दिखती है। इसलिए विशु, वैशाखी, ओणम, दीपावली जैसे कई उत्सव है जिसमें पैसों, गहनों, धन से देवताओं का श्रृंगार व पूजा करते हैं।
कथाओं के माध्यम से हमें धन व लक्ष्मी के बारे में बहुत ज्ञान मिलता है। लक्ष्मी को लेकर पुराणों में कई तरह की कथाएं हैं। बौद्ध काव्यों के अनुसार लक्ष्मी का जन्म पाताल लोक में हुआ था। उनके पिता का नाम पुलोमन था, इसलिए लक्ष्मी को पुलोमी भी कहते हैं। वह पाताल निवासिनी हैं, इस बात को हम रूपक भी मान सकते हैं। बीज धरती के नीचे उगते हैं, धातु और रत्न धरती के नीचे मिलते है। पशु धन के लिए चारा धरती के नीचे से आता है और जल भी धरती के नीचे संग्रहित होता है। इस तरह सारा धन धरती के नीचे से ही आता है और इसलिए हम लक्ष्मी को पाताल निवासिनी कहते हैं, जो विष्णु प्रिया है, विष्णु सांसारिक जीवन में लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए लक्ष्मी का सहयोग करते हैं और वैशाख मास दोनों ही शक्ति पर्व चैत्रीय नवरात्रि व आषाढ़ी नवरात्रि के मध्य होने से पूर्णरूपेण सांसारिक गृहस्थ जीवन में श्रेष्ठताओं को प्राप्त करने का माह है, इसीलिये इस वैशाख मास में अनेक-अनेक दैवीय शक्तियों का उद्भव हुआ है और ऐसे देव मास में गृहस्थ व्यक्ति चैतन्य हो जाता है अर्थात् अपने भाव-चिंतन सद्गुरु सानिध्य में उन दिव्य शक्तियों को आत्मसात करने में तिरोहित कर देता है तो उसका जीवन लुंज-पुंज, दीन-हीन स्थिति से निवृत्त हो जाता है और उसका सांसारिक जीवन योग-भोग, यश, कीर्ति, धन, सौभाग्यमय निर्मित हो जाता है।
अक्षय तृतीया: जिसका क्षय ना हो वही अक्षय है अर्थात् जीवन में जो भी सुभाव, सुक्रियायें और सद्चिंतन के माध्यम से धन- सम्पदा की प्राप्ति हो वह स्थायी रूप से विद्यमान रहे।
शंकराचार्य जयन्ती: ज्योतिर्मंय स्वरूप जीवन निर्माण साधना दीक्षा से शिवमय पूर्णता के भाव की प्राप्ति होती है।
बगलामुखी जयन्ती: वीर भाव व ब्रह्मास्त्र विद्या है, जिनकी साधना से जीवन शत्रुओं से सुरक्षित व प्रगतिशील बनता है।
सीता नवमी: माता सीता के आविर्भाव दिवस पर सौभाग्य, संतान-गृहस्थ सुख वृद्धि व मर्यादा पुरुषोत्तमय जीवन की कामना पूर्ति की क्रियाओं का अक्षुण्ण लाभ प्राप्त होता है।
मोहिनी एकादशी: शास्त्रों में मोहिनी एकादशी को अष्ट पाश नाशक कहा गया है अर्थात् इस दिवस पर साधना, पूजा से मनुष्य अपने अष्ट पाशों और माया-मोह के बंधन से मुक्त होता है।
नृसिंह जयन्ती: जीवन में व्याप्त असुरी तत्वों का पूर्णता से शमन व सिंह की भांति ऊर्जा, चेतना की प्राप्ति का दिवस।
छिन्नमस्ता जयन्ती: भौतिक व आध्यात्मिकता को सुदृढ़ बनाने वाली श्रेष्ठतम महाविद्या, जिनसे मन-वचन-कर्म में प्रखरता आती है और साधक स्वः सम्मोहित से युक्त होता है।
बुद्ध जयन्ती: ध्यान सिद्धि, ज्ञान व बोधित्व प्राप्ति का श्रेष्ठतम दिवस। जिसके द्वारा साधक स्वः से परिचित होने की क्रिया पूर्ण कर गुरुमय तत्व की प्राप्ति करता है।
नारद जयन्ती: देव ऋषि नारद की जयन्ती दिवस देवमय शक्तियों की प्राप्ति और ईश्वरीय चेतना से अभिभूत होने की साधना, दीक्षा से जीवन देव स्वरूप निर्मित होता है।
उक्त सभी चेतनामय दिवसों की दिव्यता से आपूरित गंगोत्री-बद्रीनाथ सप्तपुरी यात्रा में साधक को सर्वप्रथम दृढ़ मानस करना चाहिए कि वह इस यात्रा के प्रत्येक क्षण का पूर्ण-पूर्ण लाभ प्राप्त करे। इन दिव्य दिवसों के चेतनामय शक्ति और परम पूज्य सद्गुरुदेव की दिव्य सानिध्यता में सिद्धाश्रम शक्तियों से आपूरित होने के भाव-चिंतन से साधना, पूजा, दीक्षा आत्मसात करने से जीवन में धर्म, अर्थ, काम व पूर्णता की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है, एक से अधिक साधना, दीक्षा प्रत्येक दिवस पर आत्मसात करने से तीर्थ यात्रा पूर्ण तेजस्वी व अक्षुण्ण फलदायी सम्पन्न हो सकेगी, जिससे सांसारिक व गृहस्थ जीवन उच्चताओं को आत्मसात कर सकेंगे।
जीवन में उच्च सफ़लतायें तभी अर्जित होती हैं, जब व्यक्ति श्रेष्ठ काल, मुहुर्त में श्रेष्ठतम ओजस्वी साधानात्मक क्रियायें सम्पन्न कर अपने रोम-रोम में चैतन्य रश्मियां समाहित कर सके क्योंकि जीवन को उधर्वमुखी बनाने के लिए जिस ऊर्जा, चेतना की आवश्यकता होती है वह केवल और केवल श्रेष्ठ मुहुर्त में सिद्ध महापुरुष के सानिधय में आत्मसात करने से प्राप्त होती है।
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