योग का तात्पर्य स्वचेतना और चेतना के मुख्य केन्द्र परम चैतन्य प्रभु के साथ संयुक्त हो जाना है। सम्यक् बोध से जब व्यक्ति वैराग्य के भाव से अभिभूत होता है तब वह समस्त क्षणिक भावों, वृत्तियों से ऊपर उठकर आत्म सत्ता के सम्पर्क में आता है। चित्त की पांच अवस्थायें हैं- क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र एवं निरुद्ध। इनमें से प्रथम तीन अवस्थाओं में योग व समाधि नहीं होती।
दत्तात्रेय योग शास्त्र तथा योगराज उपनिषद में मन्त्रयोग, लययोग, हठयोग तथा राजयोग के रूप में बताये गये हैं। योग तत्वोपनिषद् में इन चतुर्विध योगों का विवरण इस प्रकार किया है-
मन्त्र योगः विधि पूर्वक निरन्तर 12 वर्ष तक मन्त्र जाप करने से अनेक साधक अनेक सिद्धियों का स्वामी बन जाता है।
लय योगः दैनिक क्रियाओं को करते हुये सदैव ईश्वर का ध्यान करना लय योग है।
हठ योगः विभिन्न मुद्राओं, आसनों, प्राणायाम एवं बन्धों के अभ्यास से शरीर को निर्मल एवं मन को एकाग्र करना हठयोग कहलाता है।
राज योगः यम-नियम के अभ्यास से चित्त को निर्मल कर ज्योतिर्मय आत्मा का साक्षात्कार करना राजयोग कहलाता है।
भारतीय ग्रन्थों में गीता का अपना महत्वपूर्ण स्थान है। भारत के आधुनिक सन्तों ने गीता के योग का प्रचार विश्वभर में किया है। गीता में योगेश्वर श्री कृष्ण योग को विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त करते हैं। अनुकूलता-प्रतिकूलता, सफलता-विफलता, सिद्धि-असिद्धि, जय-पराजय इन समस्त भावों में आत्मस्थ रहते हुये सम रहने को योग कहते हैं। असडंग भाव से द्रष्टा बनकर अन्तः करण की दिव्य प्रेरणा से प्रेरित होकर कुशलता पूर्वक कर्म करना गीता में योग ही बताया गया है।
गीता में ध्यानयोग, सांख्ययोग एवं कर्मयोग का विस्तृत विवेचन है। गीता के पंचम अध्याय में संन्यासयोग एवं कर्मयोग में कर्मयोग को श्रेष्ठ माना गया है।
योग की क्रिया से हमारी सुप्त चेतना विकसित होती है और सुप्त तन्तुओं का पुनर्जागरण होता है एवं नये तन्तुओं कोशिकाओं का निर्माण होता है। योग की सूक्ष्म क्रियाओं द्वारा हमारे सूक्ष्म स्नायुतंत्र को चुस्त किया जाता है, जिससे उनमें ठीक प्रकार से रक्त परिभ्रमण होता है और नयी ऊर्जा शक्ति का विकास होने लगता है। योग से रक्त परिभ्रमण पूर्णरूपेण सम्यक होने लगता है और शरीर विज्ञान का यह नियम है कि शरीर के संकोचन व विमोचन होने से उसकी शक्ति का विकास होता है तथा रोगों की निवृत्ति होती है।
योग आसनों से यह प्रक्रिया सहज हो जाती है। आसन एवं प्राणायमायों के द्वारा शरीर की ग्रन्थियों व मांसपेशियों में कर्षण-विकर्षण आकुंचन-प्रसारण तथा शिथिलीकरण की क्रियाओं द्वारा उनकी आरोग्य शक्ति में वृद्धि होती है। रक्त को वहन करने वाली धमनियां एवं शिरायें भी स्वस्थ हो जाती हैं। अतः आसन एवं अन्य यौगिक क्रियाओं से पेन्क्रियाज एक्टिव होकर इन्स्युलिन ठीक मात्रा में बनने लगता है, जिससे डायबिटीज आदि रोग दूर होते हैं।
पाचन तंत्र पर पूरे शरीर का स्वास्थ्य निर्भर होता है। सभी बीमारियों का मूल कारण पाचन तंत्र की अस्वस्थता है। यहां तक कि हृदय रोग (हार्ट डिजीज) जैसी भंयकर बीमारी का कारण भी पांचन तंत्र की अस्वस्थता होना पाया गया है। योग से पाचन तंत्र पूर्ण रूप से स्वस्थ हो जाता है, जिससे सम्पूर्ण शरीर स्वस्थ, हल्का एवं स्फूर्तिदायक बन जाता है। योग से हृदय रोग जैसी भंयकर बीमारी से भी छुटकारा पाया जा सकता है। फेफड़ों में पूर्ण स्वस्थ वायु का प्रवेश होता है, जिससे फेफड़े स्वस्थ होते हैं तथा दमा, श्वास, एलर्जी आदि से छुटकारा मिलता है। जब फेफड़ों में स्वस्थ वायु जाती है तो हृदय को भी बल मिलता है।
इतना ही नहीं, इस स्थूल शरीर के साथ-साथ योग सूक्ष्म शरीर एवं मन के लिए भी अनिवार्य है। योग से इन्द्रियों एवं मन का निग्रह होता है, यम-नियम आदि अष्टांग योग के अभ्यास से साधक असत् अविद्या के तमस से हट कर अपने दिव्य स्वरूप ज्योतिर्ममय, आनन्दमय, शक्तिमय परम चैतन्य आत्मा एवं परमात्मा से एकाकार हो जाता है।
योग का मूल चिंतन अपने अन्दर निहित शक्तियों को विकसित करके पूर्ण आनन्द की प्राप्ति करना है। इस यौगिक प्रक्रिया में विविध क्रियाओं का विधान हमारे ऋषि-मुनियों ने बताया है।
अष्टांग योग- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि तक की यात्रा होती है। योग का पथ जीवन जीने की सम्पूर्ण पद्धति है। योग के द्वारा ही वैयक्ति व सामाजिक समरसता, शारीरिक स्वास्थ्य, बौद्धिक शक्ति वृद्धि, मानसिक शान्ति एवं आत्मिक आनन्द की अनुभूति हो सकती है।
यम, निमय, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि से योग के आठ अंग हैं। इन सभी योग अंगो का पालन कर व्यक्ति योगी तुल्य जीवन की प्राप्ति कर लेता है। इस अष्टांग योग को कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में सम्मिलित कर पूर्ण निरोगी, सुखी, शांति युक्त जीवन प्राप्त कर सकता है।
योग धर्म, अध्यात्म, मानवता एवं विज्ञान की प्रत्येक कसौटी पर खरा उतरता है। अष्टांग योग में जीवन के सामान्य व्यवहार से लेकर ध्यान एवं समाधि सहित अध्यात्म की उच्चतम अवस्थाओं का अनुपम समावेश है। जो भी व्यक्ति अपने अस्तित्व की खोज में लगा है तथा जीवन के पूर्ण सत्य से परिचित होना चाहता है, उसे अष्टांग योग का अवश्य ही पालन करना चाहिये।
यम और नियम अष्टांग योग के आधार हैं। सामान्य जीवन में हम योग पथ का अवलम्बन लेकर शारीरिक, मानसिक, बौधिक एवं आध्यात्मिक उन्नति की उच्चतम स्थिति आत्मसात कर सकते हैं। संसार के सभी व्यक्ति सुख व शान्ति चाहते हैं तथा विश्व में जो कुछ भी व्यक्ति कर रहा है, उसका मुख्य लक्ष्य उससे सुख प्राप्त करने का है।
इसी तरह हमारे जीवन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हमारा शरीर है, जिसके आधार पर ही हम संसार की सभी क्रियायें सम्पन्न करते हैं। यदि हमारा शरीर स्वस्थ, निरोगी व स्फूर्ति से भरा होगा और हमारे भीतर अपार ऊर्जा शक्ति समाहित होगी। तब ही हम अपने जीवन की अनेक क्रियाओं में सफलता की प्राप्ति कर सकेंगे। योग द्वारा मन-मस्तिष्क-शरीर पूर्णता स्वस्थ होते हैं। जिससे हमारी कार्य क्षमता में वृद्धि के साथ-साथ सोचने-समझने चिंतन, विचार शक्ति का विस्तार होता है और सबसे महत्वपूर्ण इससे हमारा आध्यात्मिक गुण सुचारु रूप से सतत् गतिशील बना रहता है।
योग से तन-मन स्वच्छ, सुदृढ़ बनता है जिससे क्रिया शक्ति में वृद्धि से सफ़लता के मार्ग प्रशस्त होते हैं। अतः नित्य योग-प्राणायाम अपने जीवन का प्रमुख अंग बनाये।
आपकी माँ
शोभा श्रीमाली
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