हजारों-हजारों ऐसे लोग हैं इस पृथ्वी पर जिन्हें धरती का बोझ कहा जा सकता है और इसमें दोष उनका भी नहीं है, दोष है तो उनके भाग्य का, शायद उनके ही भाग्य में ना लिखा हो कि कोई मार्गदर्शक उन्हें मिले और उनके जीवन की रूप रेखा परिवर्तित हो। यदि ऐसा सम्भव हो जाता जीवन के किसी भी मोड़ पर, तो ऐसे मनुष्य भी कुछ न कुछ अवश्य घटित कर पाते, जो आने वाली पीढि़यों के लिए दीप ज्योति होती।
कुछ लोगों के जीवन में मार्गदर्शक मिल जाते हैं। किन्तु वे व्यक्ति खुद अपने सौभाग्य की रेखाओं को पढ़ नहीं पाते, मात्र मिथ्या अहंकार से ग्रसित रहते हैं। हो सकता है वे बहुत अधिक बुद्धिमान हों, किन्तु उन्हें भी किसी के सहारे की, किसी के द्वारा मार्गदर्शन की आवश्यकता महसूस होती ही है, लेकिन वे व्यक्ति अनावश्यक गर्व से इतने ग्रस्त होते हैं, कि मार्गदर्शक की बातो को समझते हुये भी अनजान बनने का प्रयास करते हैं और अपने अहंकार को पुष्ट करते रहते हैं।
कुछ लोग इस श्रेणी से भी उच्च श्रेणी के होते हैं। वे अपने मार्गदर्शक की बात को सुनते हैं, समझने की कोशिश करते है, लेकिन जीवन में उतार नहीं पाते हैं, क्योंकि वे उन्हें सामान्य मनुष्य समझ कर चिन्तन करने लग जाते हैं- अर्जुन को हम इसी श्रेणी का व्यक्ति कह सकते हैं, जो कृष्ण को केवल मित्र ही समझते रह गये।
ये तीन श्रेणियों के मनुष्य ही समाज में दृष्टिगोचर होते हैं। चौथी श्रेणी जो अतीत काल में कभी अत्यन्त व्यापक रूप में विद्यमान थी, आज उसका अंशमात्र ही देखने को मिलता है, क्योंकि ऐसे व्यक्ति विरले ही होते हैं, जो अपने मार्गदर्शक की बातों को बिना कोई तर्क-कुतर्क किये पालन करते हों और ऐसे व्यक्तियों के नाम ही ऋषि परम्परा के इतिहास में अंकित हैं।
एक प्रसिद्ध शायर ने कहा है-
किसी भी काव्य की रचना तभी हो पाती है, जब व्यक्ति का मन, आत्मा और प्राण सभी मिल कर एक हो जाते हैं। कुछ ऐसा ही हुआ होगा इस शायर के साथ, तभी तो उसने दो लाइनों में इतनी बड़ी बात लिख दी। ‘तू है मुहीते बेकरां’ तू विशाल सागर है, असीम विस्तृत, जिसका विस्तार इतना अधिक है, कि एहसास ही नहीं होता, कि इसका दूसरा छोर कहां पर है?
तू इतना अधिक विस्तृत है, कि तेरे अन्दर ही सब कुछ समाया हुआ है—- और तेरा ही साथ पाने की कोशिश की है मैंने, जब खुद को मैं देखता हूं, तो यही लगता है, कि ‘मैं हूं जरा सी आबजू’ मैं एक छोटी सी नदी, तालाब, सरोवर हूं, फिर भी सागर के साथ चलने की कोशिश कर रहा हूं, लेकिन मुझमें इतना सामर्थ्य नहीं है कि मैं यह सफर पूरा सकूं। इसलिये या तो मुझे ‘हमकिनार कर’ मुझे अपने साथ ले चल अर्थात् मुझे सामर्थ्य दे दे, कि मैं यह सफर पूरा सकूं या फिर ‘दरकिनार कर’ मेरा अस्तित्व ही मिटा दे।
बड़े गूढ़ रहस्य की बात इन दो लाइनों में सिमटी हुई है। ऐसी ही भावना एक भक्त की भगवान के प्रति, एक साधक की, एक शिष्य की गुरु के प्रति होनी चाहिये। परन्तु आप सभी लोग पढ़ते हैं, लेकिन समझ नहीं पाते, गुरु वाणी सुनते हैं, लेकिन उसे अपने जीवन में उतार नहीं पाते, सोचने का प्रयास तो करते हैं, लेकिन समझ में आपके कुछ और ही आता है, दोष लोगों का नहीं इस घोर त्रासदी से भरी सांसारिकता का है।
किसी को भी समझने के लिए चाहे वो सूर हों या मीरा, तुलसी या कबीर कोई भी हो इनको समझने के लिये इनके अनुरुप ढ़लना पड़ता है और जिसने ढ़लने का प्रयास आरम्भ कर दिया उसी ने समझना शुरु कर दिया। विश्व विद्यालयों में बहुत से लोगो को मीरा, सूर, कबीर आदि पर विवेचन प्रस्तुत करने के कारण डॅाक्टरेट की उपाधि से विभूषित किया जाता है। विचार करने का विषय है कि जो अपने समय में अनपढ़ थे, जिन्होंने वेद-पुराण शास्त्र को हाथ भी नहीं लगाया और अपने गीतों में अपने द्वारा रचित कुछ पदों या छन्दों के सीमित शब्दों में जीवन के सारभूत तथ्य को उड़ेल कर रख दिया, ऐसे लोगों की वजह से समाज में अनेक लोगों को समाज में प्रतिष्ठा और सम्मान प्राप्त हो रहा है।
इसका तात्पर्य तो यही हुआ कि आज जो बुद्धिजीवी और प्रतिष्ठित वर्ग है उसके ज्ञान का स्तर कुछ ऐसा लोगों पर आधारित है, जो कि अपने समय में स्कूल भी नहीं गये, फिर इतना ज्ञान उनको कैसे मिला? वह क्या था, जिसके कारण वे आज लोगों के प्रेरणा स्त्रोत बने?
उनके जीवन में एक ऐसे मार्गदर्शक गुरु मिले, जिन्होंने उनके हृदय में ज्ञान के सूर्य को स्थापित कर दिया और उस काल में, उस समय वे गुरु भी सौभाग्यशाली थे, जिन्हें मीरा, सूर, कबीर जैसे शिष्य मिलें और उनके भीतर ज्ञान का सूर्य उदित हुआ जिसका प्रकाश चारों ओर विस्तारित हुआ, तो पूरा समाज और समस्त मानव जाति प्रभावित हुयी। वह दिव्य प्रकाश आज तक उसी प्रकार दैदीप्यमान है, जैसा तत्कालीन समाज में था।
मीरा ने जिसे अपना ईष्ट माना, उनके प्रति पूर्ण समर्पित हो गई, मीरा का अपना जैसा कुछ रहा ही नहीं और मीरा के ईष्ट कोई साधारण व्यक्ति नहीं थे——–और साधारण व्यक्ति ईष्ट बन ही नहीं सकता, प्रेरणा स्त्रोत नहीं बन सकता गुरु या प्रिय नहीं बन सकता और जो विशिष्ट व्यक्तित्व होता है, जो अद्वितीय व्यक्तित्व होता है, उसका विस्तार पूरे समाज में, पूरे देश में, पूरी पृथ्वी पर होता है————-पूरे ब्रह्माण्ड में व्याप्त होता है और जो उसका सायुज्य प्राप्त कर लेता है, फिर वह जीवन के परम आनन्द की प्राप्ति कर लेता है।
ऐसा ही महान पर्व गुरु पूर्णिमा होता है, जिसमें गुरु की विराटता पूर्णरूपेण दृष्टिगोचर होती है। इस दिवस पर प्रत्येक शिष्य के जीवन को परम तत्व रूपी गुरु अपने सस्नेहिल सानिध्य में तृप्त करने की मंशा लिये शिष्य के समक्ष उपस्थित होते हैं। यह दिवस कोई सामान्य पूर्णिमा नहीं है, यह तो उन्हीं परम पूर्णत्व गुरुदेव को अपने रोम-रोम में पूर्णता आत्मसात कर जीवन के समस्त कलुषिताओं से निवृत्त हो जाने का दिवस है। ऐसे महान महापर्व पर सपरिवार सद्गुरुदेव का कल्याणमय आशीर्वाद् व तपस्यांश चेतना आत्मसात कर आप निश्चित रूप से सुख, आनन्द, प्रसन्नता, आरोग्यतामय जीवन की प्राप्ति कर सकेंगे।
वाचक रूप से केवल गुरु—गुरु—रटने मात्र से गुरु तत्व को पूर्ण रूप से आत्मसात नहीं किया जा सकता इस हेतु शिष्य को पूरे खुले मन से गुरु चरणों में उपस्थित होकर उनके प्रत्येक क्रिया की गूढ़ता पर मनन-चिंतन करना चाहिये साथ ही उनकी प्रत्येक साधानात्मक क्रिया को पूर्ण आस्था व सुभावों के साथ ग्रहण करना चाहिये जिससे साधक सर्वोत्कृष्टमय जीवन प्राप्ति की ओर अग्रसर होता है।
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