दमा रोग में श्वास नलिकाओं में सिकुड़न आ जाती है अथवा वे संकीर्ण हो जाती हैं। इस कारण रोगी को श्वास लेने और छोड़ने में कुछ रुकावट या तकलीफ का अनुभव होता है, रोगी की तकलीफ श्वास नलिकाओं के सिकुड़ने की सीमा पर निर्भर करती है। यदि सभी नलिकायें बहुत अधिक सिकुड़ जाती हैं तो रोगी को सांस लेने और छोड़ने में अधिक तकलीफ होती है और यदि नलिकायें थोड़ी मात्रा में सिकुड़ी होती हैं तो तकलीफ कम होगी। इस स्थिति में शरीर को ऑक्सीजन कम मिल पाता है, इसलिए रोगी जोर-जोर से सांस लेकर इस कमी को पूरा करने का प्रयास करता है। श्वास नलिकाओं के सिकुड़ने को ही दमा या अस्थमा रोग कहते हैं।
दमा होने के कई कारण हैं, कुछ रोगियों को दमे की शिकायत प्रायः हमेशा बनी रहती है, जबकि कई रोगियों को दमे की शिकायत कभी-कभी होती है। यह दमा उत्पन्न होने के कारणों पर निर्भर है।
एलर्जी- एलर्जी दमा का प्रमुख कारण है, एलर्जी उत्पन्न करने वाले पदार्थ (एलरजेन्स) कई तरह के हो सकते हैं। कोई विशेष खाद्य पदार्थ, वातावरण में मौजूद धूल और कुत्ता, बिल्ली, बकरी आदि जानवरों के सम्पर्क से भी एलर्जी हो सकता है।
संक्रमण एवं कृमि रोग- जीवाणु या विषाणुओं के संक्रमण से श्वास नलिकाओं में सूजन आ जाती है जिससे वे संकीर्ण हो जाते हैं, इस कारण दमा की शिकायत हो सकती है, जैसे- पुराना श्वास नलिका शोध (क्रोनिक ब्रांकाइटिस) में दमा की शिकायत भी हो सकती है, इसी तरह आंतों में कृमि होने के कारण भी दमा के लक्षण पैदा हो जाते हैं, लेकिन जब दवा दी जाती है, तो दमा बिल्कुल ठीक हो जाता है।
पैतृक गुण- दमा से ग्रसित मां-बाप के बच्चों में सामान्य लोगों की अपेक्षा रोग से पीडि़त होने की संभावना अधिक होती है, मां यदि दमा से पीडि़त है तो बच्चों में दमा होने की संभावना अपेक्षाकृत बढ़ जाती है।
कठिन परिश्रम- कठिन कार्य या परिश्रम भी दमे का दौरा शुरु करने का करण बन सकता है, गुब्बारे फुलाने या जोर से हंसने के पश्चात् भी दमा के दौरे का खतरा हो सकता है।
मनोवैज्ञानिक कारण- विभिन्न शोधों से यह भी पता चला है कि मानसिक रूप से परेशान लोगों में दमा अधिक होता है, वास्तव में प्रतिक्रिया स्वरूप ऐसा होता है।
दमा केवल वृद्धों या अधिक उम्र के व्यक्तियों का रोग नहीं है बल्कि आज-कल तो बच्चों और अधेड़ व्यक्तियों में यह रोग वृद्धों की अपेक्षा अधिक होता है।
प्रमुख लक्षण तो हांफना या जोर की श्वास लेना है, लेकिन श्वास छोड़ने पर एक विशेष तरह की सीटी जैसी आवाज निकलती है, यह आवाज श्वास नलिकाओं के संकरे होने पर उनमें से जोर की हवा निकलने के कारण आती है।
श्वास की तकलीफ के साथ रोगी को खांसी भी आ सकती है, साथ में जुकाम या नजला की शिकायतें, जैसे- छीकें आना, सिर भारी होना इत्यादि भी हो सकता हैं, यदि रोगी को संक्रमण है तो उसे बुखार भी आ सकता है।
चिकित्सक लक्षण एवं परीक्षण करके रोग का पता लगा लेते हैं लेकिन कुछ जांचे करवाना भी जरूरी होता है। इससे अस्थमा के मूल कारण का पता चलता है, कृमिरोग का इलाज करने से दमा के दौरों में अपेक्षित कमी आ जाती है। इसी तरह खून की जांच, छाती का एक्स-रे भी आवश्यक होता है। इससे अन्य रोगों की संभावनायें दूर हो जाती है।
रोगी के लक्षणों की अवधि एवं गंभीरता के आधार पर दमा की अवस्था का निर्धारण किया जाता है। दमा के रोगी को ऐसी दवाइयां हमेशा अपने पास रखनी चाहिये, जिन्हें जरूरत के वक्त वे तुरन्त ले सकें। रोगी मालबूटामाल, डोरिफाइलिन या टर्बुटालिन की गोलियां अथवा इनहेलर (सूंघने वाली दवा जो श्वास नलिकाओं को फैला देती है) अपने पास हमेशा रखें, जिससे आवश्यकता पड़ने और चिकित्सक उपलब्ध न हो तो इनका उपयोग कर सकें। यदि दवाइयों से राहत न मिले तो तुरंत चिकित्सक बुलायें या अस्पताल में भर्ती हो जाना चहिये, क्योंकि दमें के रोगी को ऑक्सीजन की आवश्यकता पड़ सकती है।
गर्मी के दिनों में सूर्य के तीव्र ताप एवं गर्म हवा के झोकों से प्रायः लू लग जाया करती है। अति परिश्रम, खाली पेट, नंगे सिर धूप में चलने से, थकान, कब्जियत, दुर्बलता आदि के कारण लू के चपेट में आ जाने की सम्भावना अधिक रहती है। सिर खुला रखने से गर्मी तथा धूप का प्रभाव मस्तिष्क पर शीघ्र होता है और तत्काल ही पूरा शरीर प्रभावित हो जाता है।
गर्मी के दिनों में पसीने द्वारा निकाले गये जल की पूर्ति निरन्तर होती रहनी चाहिये। यदि किन्हीं कारणवश ऐसा नहीं हो पाता है तो लू लगने का खतरा बढ़ जाता है। शरीर में उष्णता की मात्रा अधिक हो जाने पर स्वेद-ग्रन्थियां कार्य करना बंद कर देती हैं। जिसके कारण उष्मा का निष्कासन बंद हो जाता है और शरीर का तापमान बढ़ जाता है तथा शरीर तापमान को नियन्त्रित करने की क्षमता खो देता है। त्वचा सूख जाती है और शरीर में पानी की कमी हो जाती है। नाड़ी कभी तेज तथा कभी धीमी होने लगती है। शरीर का तापक्रम बढ़ते-बढ़ते 106 डिग्री तक पहुंच जाने पर जीवन खतरे में पड़ सकता है।
चिकित्सक के आने से पहले ये तत्कालिक उपचार करें-
रोगी को ठंडे, हवादार और स्वच्छ स्थान पर लिटा दें तथा वस्त्रों को ढ़ीला कर दें। बेहोशी दूर करने वाले उपचार करने के साथ ही शरीर का तापक्रम कम करने का प्रयास करें।
सिर, हाथ-पैर तथा पेट आदि को बार-बार ठंडे पानी से धोते रहें, उन पर बर्फ के टुकड़ें रखें, मोटे तौलिये को बर्फ के पानी में भिगोकर शरीर को पोछते रहें। ऐसा तब तक करें, जब तक शरीर का तापक्रम सामान्य अवस्था में न आ जाये।
वमन, दस्त, प्यास आदि की स्थिति में पुदीने का अर्क, अर्क कपूर, अमृतधारा आदि पानी में मिलाकर थोड़ी-थोड़ी देर पर चम्मच से देते रहना चाहिये।
बेहोशी की स्थिति में सीने और गले पर तारपीन के तेल की मालिश करनी चाहिये। गरम पानी में कपड़ा भिगोकर गले पर लपेट दें तथा सूखा कपड़ा बांध दें।
कच्चा आम पानी में उबालकर उसका पना बना लें। इसमें सेंधा नमक, भुना जीरा, पुदीना तथा मिड्डी आदि मिलाकर पिलायें। गरमी के दिनों में स्वस्थ व्यक्ति को भी इसे पीना चाहिये, यह लूकी प्रसिद्ध औषधि है।
गर्मी में तरबूज और खरबूज खाना चाहिये। बाहर निकलने से पहले अच्छी तरह पानी पी लें। अधिक प्रोटीन युक्त भोजन नहीं करना चाहिये। लू से ठीक हो जाने पर भी कुछ दिनों तक सावधानी रखें, अधिक धूप में न निकलें और बिलकुल खाली पेट रहने से बचें।
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