पौधे के चारों ओर बाड़ लगा कर रखा जाता है, जिससे बकरियां पौधों को खा ना पायें और वही पौधा जब विशाल वृक्ष का स्वरूप धारण कर लेता है, तब सैकड़ों बकरियां उसकी छाया में आश्रय लेती हैं, तात्पर्य यह है कि जब तक तुम्हारा स्वरूप विशाल रूप धारण ना कर लें, तब तक तुम्हें एक बाड़ की आवश्यकता है, जो तुम्हारे मन, विचार, हृदय, चिंतन की रक्षा करे, तुम्हारे जीवन को सुरक्षा प्रदान करे और तुम्हारें भीतर जो ईष्ट, गुरु के प्रति भाव हैं उनमें वृद्धि हो। जब तुम्हारे हृदय में विश्वास और त्याग के भाव जागे, तो उन भावों को संयम पूर्वक और अधिक पुष्ट करने का प्रयास करो और जब वह भाव हृदय में दृढ़ हो जाता है, तब तुम्हें कोई भ्रमित नहीं कर सकता, फिर भटकाव के सभी अवसर स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं।
संसार प्रबल प्रलोभन का स्थान है, यह वास्तव में सत्य है। किन्तु क्या तुम यह जानते हो कि शक्तिशाली विपरीत हवा दुर्बल वृक्षों की जड़ों को ही पुष्ट करती है। शुभ नैतिक सिद्धान्त जो अभी मन में दृढ़ नहीं है, प्रलोभनों से उनका जो सतत् संघर्ष चल रहा है, उसके परिणाम स्वरूप निश्चित रूप से उनकी जड़े सशक्त होंगी। नियमित व्यायाम और संघर्ष से व्यक्ति का शारीरिक स्वास्थ्य उन्नत हो जाता है, हमारा मानसिक स्वास्थ्य भी इस नियम का अपवाद नहीं है। निस्सन्देह यह भूमि बहुत ही फिसलन भरी है, जिसमें बिना गिरे चलना मनुष्य के लिए बहुत ही कठिन है। किन्तु जो व्यक्ति प्रगति पथ की फिसलनों की अधिक चिन्ता न कर दृढ़ता पूर्वक बढ़ता जाता है, वह अवश्य ही इस दलदल के पार हो जाता है।
जब तक वह ऐसे स्थान पर न पहुंच जाये, जहां भूमि साफ और फिसलन रहित हो और जहां वह उस दैवीय सत्ता का साक्षात्कार कर ले, जिसके लिए वह अभी तक प्रयत्न कर रहा था, तब तक उसे गिरते-उठते, किन्तु कभी भी पराजय स्वीकार बिना किये, सदैव सामने देखते हुये दृढ़ता पूर्वक आगे बढ़ते रहना चाहिये। यदि कभी तुम फिसल जाओ, तो उसकी चिन्ता न करो। मनुष्य से भूल होना स्वाभाविक है। निराश न हो, दृढ़ता पूर्वक आगे बढ़ो संसार के फिसलन भरे मार्ग को निरापद पार कर जाने की आशा कोई व्यक्ति नहीं कर सकता। पार करने के प्रयत्न में असफल होने के भय से इस दलदल के बीच में बैठ जाना केवल मूर्खता है। पुनः प्रयत्न करो और जीवन के स्वर्णिम नियम कभी न भूलो। स्काटलैण्ड के उस ब्रूस का स्मरण करो, जो छह बार पराजित होकर भी अन्त में सातवीं बार विजयी हुआ।
दुःख और सुख हरेक के अपरिहार्य साथी हैं, जब एक राजा आता है, तो दूसरा चला जाता है, किन्तु स्थायी दोनों ही नहीं रहते। इसी तरह सुख जाता है दुख आता है, दुख जाता है तो सुख का आगमन होता है, दोनो ही स्थायी नहीं है। अतः इनके प्रभाव से विचलित ना होकर सद्गुरु पर पूर्ण आस्था, विश्वास और भरोसा रखें। साथ ही अपने सभी कर्तव्य पूर्ण करते रहें, सदा स्वयं को श्रेष्ठतम बनाने का प्रयत्न करें और प्रत्येक वस्तु, विचार को उत्तम अर्थ में ग्रहण करें। तुम्हें भविष्य के लिये चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं है, संसार की प्रत्येक क्रिया परम प्रभु के द्वारा संचालित है और उनकी प्रत्येक क्रिया में मनुष्य का ही कल्याण है। अपनी कर्तव्य परायणता का पूर्ण पालन करो साथ ही उदार, ईमानदार, सरल और सत्यवादी गुणों को स्वयं में विकसित करो, जब तक यह तुम्हारा स्वभाव न बन जाये, तब तक प्रत्यत्न करते रहो, क्योंकि तुम्हें यह सत्य स्वीकार करना ही चाहिये कि जब तक मनुष्य शरीर और मन से पवित्र नहीं हो जाता, तब तक योग के पवित्र मन्दिर में प्रवेश करने का उसे अधिकार नहीं मिलता है। योग सांस रोकने, प्राणायाम या विभिन्न आसन करने तक ही सीमित नहीं है। योग का अर्थ है- समस्त चित्त वृत्तियों से रहित हो जाना। अतः अपने माता-पिता, पत्नी-संतान, धर्म, राष्ट्र सभी के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हुये सर्वप्रथम आदर्श सद्गृहस्थ बनने का प्रयत्न करो, तभी तुम श्रेष्ठ योगी स्वरूप जीवन प्राप्त कर सकोगे।
अपने जीवन में कभी भी निष्क्रिय मत रहना, क्योंकि तुम्हारी निष्क्रियता सभी तरह के कुविचारों की जननी है। अपने कर्तव्य पालन में सतत सावधान रहना, अपने भीतर की समस्त जड़ता को दूर करने के लिये निरन्तर साधनात्मक भाव-चिंतन आत्मसात करो। आलस्य पूर्णता प्राप्ति का कदापि कोई मार्ग नहीं हो सकता है। भावुकता से भी कोई लाभ नहीं, तुम्हें निरन्तर कठोर परिश्रम करना चाहिये और ईश्वर तुम्हें जिस स्थान में भी रखें, वहां सदैव प्रसन्न रहना चाहिये। यदि तुम ईश्वर अथवा सद्गुरु के निमित्त कुछ सांसारिक कष्टों को सहन कर सकते हो, तो वास्तव में तुम सद्गुरु के अन्यतम आत्मीय बनने के योग्य हो।
अधिकांश लोग अज्ञान के कारण ही आधारहीन चिन्ताओं में पड़ जाते हैं। कर्म करना ही तुम्हारा अधिकार, फल में नहीं, साधक को पूर्ण रूप से अहंकार शून्य होना चाहिये। मैं नहीं, तुम इस मूलमंत्र का हमेशा स्मरण रखो और कार्य करते जाओ, तुम्हारी विजय निश्चित है। तुम्हें यह समझना चाहिये कि सभी बन्धनों को तोड़ना सरल नहीं और ना ही ये बन्धन आकस्मिक झटके में टूटते हैं, बन्धनों को काटने लिये सतत् रूप से साधनात्मक चेतना आत्मसात करने की आवश्यकता होती है, जो धैर्य पूर्वक निरन्तर क्रियाशील होने पर ही प्राप्त होता है। किसी भी आकस्मिक क्रिया से कभी कोई शुभ परिणाम उत्पन्न नहीं होता।
तुम्हारे पास जो कुछ आये उसी में सन्तुष्ट रहो। सद्गुरु से सतत् प्रार्थना करना ना भूलना, उनकी कृपा तुम्हें वह सब दे सकती है, जिससे तुम्हारा वास्तविक कल्याण हो। सदा उनका ध्यान, चिंतन करते रहना और अपने शुद्धतम-श्रेष्ठतम मनोभावों को शान्त और स्थिर रखने का प्रयास करो————-कल्याण हो——–!!!
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